शुरूआठवीं शताब्दी में सिंध को हथियाने के बाद अरबों के आक्रमण कश्मीर पर शुरू हुए। लेकिन 713 में सम्राट चंद्रपीड ने, 724 में सम्राट ललितादित्य ने अरबों को मात दी। सन् 754 में भी अरब आक्रमण विफल रहा। करीब दो सौ साल बाद महमूद गजनवी ने भी कश्मीर पर दो बार आक्रमण किया लेकिन दोनों बार हारा। फिर उसने कश्मीर के नाम से तौबा ही कर ली। उसी कश्मीर में जब तुर्क आये तो उनके लिये माहौल मनमुआफिक था। 12 वीं शताब्दी में राजा सहदेव के समय कश्मीर में सूफियों का प्रवेश हो चुका था। मुल्ला-मौलवी भी कदम धर चुके थे, इस्लाम धर्म की हल्की सी बयार बहने लगी थी, तभी वहां तिब्बत से भागा एक राजकुमार रिंचन आ पहुंचा। राजा सहदेव ने उसे शरण दी। वह हिन्दू धर्म अपनाना चाहता था, लेकिन कश्मीरी पंडितों ने साफ मना कर दिया। मजबूर हो कर रिंचन इस्लाम धर्म में चला गया और फिर कश्मीर का सांस्कृतिक और भौतिक कायाकल्प करने में उसने तुर्कों का पूरा साथ दिया।
यहां यह बताना इसलिये जरूरी लगा, क्योंकि 17 वीं शताब्दी में अंग्रेजों के आने तक राजपूत-ब्राहमण गठजोड़ भारत नाम के तथाकथित राष्ट्र की तथाकथित राष्ट्रीयता को जबरदस्त नुकसान पहुंचा चुका था।छठी और सातवीं सदी में जो जबरदस्त बदलाव आये, उसके फलस्वरूप इस देश की मजबूत केन्द्रीय सत्ता गुप्त वंश के अंतिम दौर में ही गर्त में चली गयी, और जो भारत कुछ बड़े साम्राज्यों में सिमटा हुआ था, खंड-खंड हो कर कई छोटे-बड़े राजाओं में बदल गया।..........................................................
यही वह दौर है जब राजपूत जाति परवान चढ़ी। राजपूत राजाओं के छोटे-बड़े कई सारे ‘देश’ राजस्थान, गुजरात, उत्तरप्रदेश, पंजाब और मध्य भारत में स्थापित हो चुके थे। इनमें चौहान, प्रतिहार, सोलंकी, पवार, राठौड़, सिसोदिया, परमार, चेदि, चंदेल आदि महत्वपूर्ण वंश शामिल हैं। सब खूब ताकतवर थे, किसी की सेना एक लाख से कम नहीं थी। लेकिन सबकी तलवारें एक-दूसरे पर ही चमकती थीं। इन सब राजाओं के धर्मगुरु-पुरोहित-मंत्री ब्राहमण ही थे, जिसके चलते हर ‘देश’ जबरदस्त कर्मकांड और अंधभक्ति और अंध-विश्वासों का शिकार हो चुका था। राजा किसी देवता का अवतार था, तो मंत्री किसी पौराणिक महर्षि का। महमूद गजनवी के आक्रमण के समय वैष्णवों और शैव्यों में ‘शिव बड़ा कि विष्णु’ को लेकर घमासान चल रहा था। राजपूत राजा भी इन दो सम्प्रदायों में बंटे हुए थे। दोनों के बीच दुश्मनी इस हद तक पहुंच गयी थी कि सरे आम कढ़ाहों में खौलते तेल में एक-दूसरे के अनुयायी भूने जा रहे थे। हजार साल पहले राजपूत काल में जब पहला विदेशी आक्रमण (महमूद गजनवी का) हुआ, तब सारे देश का करीब-करीब यही हाल था।
इस दौरान धुर दक्षिण के चोल, चालुक्य और पांड्य, मध्य भारत की ओर खिसकने पर राष्ट्रकूट, होयसल, यादव और काकतिया वंश कई मायनों में राजपूतों से ज्यादा बलशाली, वैभवशाली और ज्यादा बड़े इलाकों के अधिपति थे। चोल और पांड्यों ने तो समुद्र पर निकल आज के इंडोनेशिया, थाईलैंड और कम्बोडिया तक चढ़ाईयां कीं। और चालुक्य वंश के पुलकेशिन ने हर्षवर्धन जैसे प्रतापी राजा के घोड़े विंध्य को पार नहीं करने दिये थे। विशाल महल और मंदिर बनवाने की तो जैसे होड़ सी मची हुई थी इन वंशों में। लेकिन ज्यादातर युद्ध आपसे में ही लड़े गये, तलवारें किसी बाहरी दुश्मन को नहीं, इन्हीं वंशों के बीच खनकती रहीं और एक-दूसरे को कमजोर करती रहीं। एक के बाद एक वंश सम्राट से राजा और राजा से जागीरदार की हैसियत में खिसकते गये, जो बचा-खुचा था, 13 वीं शताब्दी में दिल्ली की खिलजी सल्तनत ने पूरी तरह तहस-नहस कर दिया। यही हाल बंगाल के पाल, सेन और बर्मन राजवंशों का हुआ। इनमें से किसी को दसवीं सदी से पश्चिमी सीमा प्रांत पर शुरू हुए तुर्कों के हमलों, या देश के ह्दय स्थल में लड़ी गयी लड़ाइयों से कभी कोई मतलब नहीं रहा। न कभी किसी ने सेना भेजी, न कोई लड़ने आया। राजपूतों राजाओं के दिमाग में भी कभी नहीं आया होगा कि विंध्याचल पार का इलाका भी इसी देश में आता है।
पहली शताब्दी में महमूद गजनवी के आक्रमणों की शुरुआत के बाद अगले साढ़े आठ सौ साल तक हुए कई युद्धों में वीरता और ताकत के मामले देशी सेनाएं दुश्मन पर भारी पड़ीं, लेकिन नतीजे में हार ही पल्ले पड़ी। कारण भी देख लिये जाएं। सन् 1001 में अफगान महमूद गजनवी को रोकने के लिये भारत के प्रथम प्रवेश द्वार हिन्दुकुश के राजपूत राजा जयपाल ने खासी तैयारी की थी। पिछले साढ़े तीन सौ साल से आपस में ही मर-कट रहे राजपूतों में जयपाल पहला राजा था (सिंध का राजा दाहिर राजपूत नहीं था), जिसका मुकाबला विदेशी फौज से था। उसकी सेना में तीन सौ हाथी भी थे। लेकिन यही हाथी उसकी हार का कारण बने और जयपाल के मुकाबले आधी फौज लेकर आये गजनवी ने अपने घुड़सवारों की गतिशीलता के चलते मैदान मार लिया।
1008 में गजनवी फिर उसी रास्त से भारत में घुसा। इस बार उसका रास्ता रोके था जयपाल का बेटा आनन्दपाल। पिछली बार के मुकाबले और ज्यादा विशाल सेना के साथ। पहली ही मुठभेड़ में गजनवी को मुंह की खानी पड़ गयी। आनन्दपाल की फौज की मार से घबरा कर गजनवी अपने घोड़े का मुंह काबुल की ओर मोड़ने को ही था कि जिस हाथी पर आनन्दपाल सवार था, तीर लग जाने से वह जंग के मैदान से भाग खड़ा हुआ। अपने राजा को भागता देख उसकी सेना में आतंक छा गया। फिर ऐसी भगदड़ मची कि गजनवी की ऊपर अटक गयी सांस नीचे आयी और अब उसके सामने पूरा हिन्दुस्तान था और हिन्दुस्तान में था सोमनाथ मंदिर, जिसकी लूट से उसने पूरे अफगानिस्तान की दरिद्रता दूर कर दी और भारत पर बार-बार आक्रमण करने को खासी बड़ी सेना बना ली।
अब पानीपत के उन तीन युद्धों पर भी एक नजर डालें, जो भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इसलिये नहीं कि इन तीनों युद्धों में से किसी एक में भी भारत जीता हो, बल्कि ये तीन युद्ध बताते हैं कि आरपार की लड़ाई में भारतीय राजाओं की मति किस तरह मारी जाती थी। भारत की तरफ से भारी-भरकम सेनाओं के सहारे लड़े गये इन युद्धों में कई देशी राजा बरसों बाद एकसाथ हुए, लेकिन तीनों युद्धों में राष्ट्र का नामोनिशान नहीं था। तीनों पराजयों ने इस देश का भविष्य सींखचे में धकेल दिया।
पानीपत के प्रथम युद्ध में एक तरफ था जहीरुद्दीन मोहम्मद बाबर, जिसने समरकंद और मध्य एशियायी इलाकों में लड़े गये ज्यादातर युद्धों में मात खाने का रिकार्ड बनाया था। आखिरकार उसे कोई ठौर तलाशने के लिये ईरान के शाह से मिन्नत करनी पड़ी। लेकिन उसकी पटरी वहां भी नहीं बैठी और उसे भाग कर काबुल आना पड़ा। काबुल भी उसके मुआफिक नहीं आया। लेकिन वहां से जाता तो कहां जाता! तभी उसे भारत पर हमला करने के लिये कई देशी ताकतों ने आमंत्रित किया उनमें पंजाब के सूबेदार दौलत खां लोदी और दिल्ली के प्रतिष्ठित सरदार हिन्दू बेग के अलावा मेवाड़ के राणा सांगा भी थे। ये सब किसी न किसी वजह से सुल्तान इब्राहीम लोदी से खार खाये बैठे थे। इन सभी को उम्मीद थी कि बाबर की मदद से इब्राहीम लोदी को बेदखल कर सत्ता की बंदरबांट कर लेंगे। लेकिन दर-दर की ठोकरें खाते-खाते अघा गये बाबर का इरादा भारत को ही अपना ठिकाना बनाने का था।
शुरू के छिटपुट हमलों के बाद 1526 के अप्रैल माह में बाबर अपनी 12 हजार सेना के साथ पानीपत के मैदान में आ डटा लेकिन जब उसने लोदी की फौज का आकार-प्रकार देखा तो उसकी रुह फना हो गयी। उसको केवल उन तोपों का सहारा था, जो भारत में पहली बार गोले दागने जा रही थीं। कुछ ही घंटे चले इस युद्ध में लोदी की एक लाख सैनिकों की फौज बाबर की तोपों की मार से पूरी तरह बिखर गयी और सुल्तान के साथ मैदान से भागने लगी, जबकि बाबर जीत के प्रति अंत तक आश्वस्त नहीं था। इब्राहीम लोदी मारा गया और आगरा और दिल्ली पर कब्जा कर भारत में बाबर का रुक जाना राणा सांगा को रास नहीं आया। उसने सभी राजपूत राजाओं को गोलबंद कर चंगेज खान और तिमूर के वंशज को सीकर के पास कन्हवा में ललकारा। एक ही साल बाद बाबर के सामने फिर एक लाख घुड़सवारों और पांच सौ हाथियों की फौज थी। इतना ही नहीं, पहली बार कई सारे राजपूत राजा एक झंडे तले उसका मुकबला करने के लिये जमा हुए थे। बाबर के लिये इस बार करो या मरो का मामला था। उसने अपने सिपहसालारों को खुदा का वास्ता दिया, शराब छोड़ने की कसम खाई और खोल दिये अपनी तोपों के मुंह। इधर, राणा सांगा ने एक साल पहले हुए इब्राहीम लोदी के हश्र से कोई सबक नहीं सीखा था। वही तलवार, वही भाले और वही हाथी। तोपों की मार से बाबर ने अपनी एक चौथाई से भी कम फौज से एक लाख से ज्यादा के जमावड़े को जमीन सुंघा दी। और अब तुर्क-मंगोल मिश्रित रक्त वाला मुगल वंश भारत में धंस चुका था। घाघरा के किनारे 1529 के तीसरे युद्ध में उसने अफगानों को अगले 10 साल के लिये पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दिया।
पानीपत के युद्धक्षेत्र में दूसरा भारतीय खेत रहा राजा विक्रमादित्य उर्फ राव हेमू, जिसकी हार ने भारत में मुगल साम्राज्य को पूरी तरह स्थापित कर दिया। हेमू यह युद्ध जीतने के कगार पर था, लेकिन हाथी के हौदे ने सब मटियामेट कर दिया। सन् 1556 के अंतिम दिनों में हुए इस युद्ध से पहले तक मुगल सत्ता केवल आगरा और दिल्ली तक ही सीमित थी। दो-तीन साल पहले ही देश के एक बड़े हिस्से पर पठान शेरशाह सूरी का शासन रहा था और उन दिनों मुगल राजवंश का दूसरा बादशाह हुमायूं भाग कर ईरान में पनाह लिये हुए था। वहां वह करीब 10 साल रहा। मुगलों के नसीब ने करवट ली, शेरशाह सूरी कालिंजर के युद्ध में खत्म हुआ और हुमायूं को फिर आगरा के सिंहासन पर बैठने का मौका मिला लेकिन उसका तुरंत ही इंतकाल हो गया। उसे कुछ करने का मौका ही नहीं मिला इसलिये देश का बड़ा हिस्सा अफगानियों के कब्जे में बना रहा।
शेरशाह सूरी के कमजोर वंशज आदिल खान का प्रधानमंत्री था राव हेमू। विदेशी मुगलों को देश से भगाने के लिये उसने जबरदस्त अभियान चलाया और अफगानों व कई सारे राजपूत राजाओं और उनकी फौज को अपने साथ कर लिया। पहले ही झटके में आगरा और दिल्ली दोनों के हाथ में आते ही वणिक राव हेमू ने विक्रमादित्य का जामा ओढ़ अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली।
इस दौरान हुमायूं का 12 साल का बेटा मोहम्मद जलालुद्दीन अकबर अपने संरक्षक बैराम खां के साथ जलंधर में फंसा हुआ था। यह सुन कर कि राव हेमू के पास पचास हजार घुड़सवार, एक हजार हाथी, 51 तोपें और विशाल पैदल फौज है, घबराहट के मारे अकबर ने काबुल जाने का मन बना लिया, लेकिन बैराम खां अड़ गया और केवल बीस हजार घुड़सवारों के बल पर मुकाबला करने की ठान ली। रणक्षेत्र बना वही पानीपत, जहां तीस साल पहले अकबर के पितामह बाबर ने इब्राहीम लोदी को रौंदा था। हेमू दिल्ली से चला और अकबर जलंधर से। लेकिन इस बीच हेमू की अपनी ही बेवकूफी से सभी तोपें दुश्मन के हाथ लग गयीं। लेकिन तब भी हेमू का पलड़ा भारी था। युद्ध शुरू होते ही देशी फौज अकबर की सेना पर पिल पड़ी और एक समय ऐसा आ गया जब हेमू की जीत पक्की हो चली थी, लेकिन तभी हाथी के हौदे पर बैठ युद्ध का संचालन कर रहे हेमू की आंख में एक तीर जा घुसा और वह हौदे पर गिर पड़ा, उठने की कोशिश की, लेकिन तब तक राजपूत सेना में भगदड़ मच चुकी थी। हेमू पकड़ कर बैराम खां के सामने ले जाया गया और उसने एक वार से हेमू की गर्दन उड़ा दी।
पानीपत का तीसरा युद्ध अफगानों और मराठाओं के बीच लड़ा गया। अफगान आक्रमणकारी अहमदशाह अब्दाली इस युद्ध से पहले एक बार मुगल सल्तनत की धज्जियां उड़ाते हुए दिल्ली को बुरी तरह लूट कर हजारों औरतों, बच्चों और पुरुषों को ऊंटों पर लाद कर काबुल के बाजारों में बेच चुका था। उसने फिर भारत पर चढ़ाई की, पर इस बार उसका रास्ता रोके खड़े थे एक लाख मराठा सैनिक। फ्रांसीसी तोपों और बंदूकों से लैस। निर्णायक फैसले के लिये फिर पानीपत को ही चुना गया। युद्धक्षेत्र में अब्दाली के पहुंचने से पहले ही वहां मराठा सेना खाई-खंदक खोदे तैयार बैठी थी। दोनों सेनाएं बजाये लड़ने के एक-दूसरे की घेराबंदी कर बैठ गयीं और हल्की-फुल्की झड़प के अलावा दो महीने तक देखा-देखी चलती रही। गड़बड़ी यहीं से शुरू हो गयी। अब्दाली ने स्थानीय कुमुक के लिये पीछे की खिड़की खुली रखी जबकि मराठाओं की रसद वगैरह की सप्लाई के सारे रास्ते बंद हो गये। 14 जनवरी 1761 को युद्ध शुरू हुआ, लेकिन नतीजा वही निकला। अब्दाली के घुड़सवारों ने मराठाओं को दौड़ा-दौड़ा कर मारा। इस हार के साथ ही देश भर में करीब पचास साल से चला आ रहा मराठाओं का दबदबा पूरी तरह खत्म हो गया। यहां हार का कारण मराठा सिपहसालारों की आपसी रंजिश बनी। मराठा कमान के सेनापति सदाशिवराव भाऊ की अपने भतीजे विश्वास राव से नहीं बन रही थी, जो पेशवा बालाजी विश्वनाथ का बेटा था। सिंधिया से होलकर खार खाये बैठा था, तो गायकवाड़-भौंसले अपनी-अपनी चला रहे थे। सबसे बड़ी बात यह है कि मराठाओं को उत्तर भारत के किसी राजा से कोई मदद नहीं मिली। उन्होंने सालोंसाल जिस तरह मुगल बादशाह और उत्तर भारत के राजाओं से रंगदारी वसूली, उस कारण क्या सिख, क्या जाट, क्या रोहिल्ले और क्या राजपूत-सभी उनसे खार खाये बैठे थे। जबकि अब्दाली को जाटों और रोहिल्ले पठानों से वक्त-वक्त पर मदद मिलती रही।
इधर, 1757 में पलासी की लड़ाई जीत कर अंग्रेजों के हौसले बुलंद थे ही, मराठाओं की इस हार ने उनका इरादा भारत को पूरी तरह हथियाने का बना दिया। तीन साल बाद ही अंग्रेजों ने मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और बंगाल के नवाब मीर कासिम की तिकड़ी को बक्सर युद्ध में हरा कर ऐसी संधि को मजबूर किया कि उसके हाथ भारत के एक बड़े हिस्से की दीवानी लग गयी यानी भरपूर पैसा और रुतबा अब दोनों उसकी मुट्ठी में थे। इस लड़ाई के बाद ही अंग्रेजों ने भारत के एक से एक बलशालियों की मिट्टी पलीद करनी शुरू की। पहले पेशवा को निशाना बनाया, फिर सिंधिया को, होल्कर को, और सबसे अंत में महाराजा रंजीत सिंह के मरने के बाद सिखों को। मुगल बादशाहत तो पहले से ही बेदम थी। निजाम को शुरू में ही अंग्रेजों ने अपना पिट्ठू बना लिया था। इस दौरान अंग्रेजों का इरादा मैसूर के हैदरअली और उसका बेटा टीपू सुल्तान ही भांप सके, लेकिन उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ किसी भी युद्ध में किसी भी देशी ताकत का सहयोग नहीं मिला।
अभी थोड़ा और। फिर पीछे लौट कर जरा उस नायक की तस्वीर का भी नजारा ले लें, जिस पर हर भारतीय को बड़ा गर्व है और जो कभी भी बॉलीवुड की शान बन सकता है।
भारत पर कई हमले बोल कर और सोमनाथ के मंदिर को पूरी तरह लूट कर महमद गजनवी 1030 में मर खप गया। उसके बाद अगले डेढ़ सौ साल तक भारत विदेशी आक्रमणों से बचा रहा। लेकिन देशी राजाओं की आपसी मार-काट जारी रही और उन्होंने अगले विदेशी आक्रमण से निपटने की कोई भी नीति नहीं बनायी, जबकि भारत का प्रवेश द्वार पंजाब उनके हाथ से गजनवी के समय ही निकल चुका था। बारहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में अजमेर का राजा पृथ्वीराज चौहान उत्तर भारत की बड़ी ताकत बन चुका था और उसका राज दिल्ली तक फैला था। उसने ही पांडवों और तोमर राजाओं के बाद तीसरी बार दिल्ली बसायी थी, जो किला रायपिथौरा के इर्द-गिर्द पसरी हुई है।
भारतीय इतिहास का देदीप्यमान सितारा पृथ्वीराज चौहान दिल्ली पर राज करने वाला आखिरी हिन्दू राजा था। उसके बाद अगले साढ़े सात सौ साल तक दिल्ली तुर्कों, अफगानों, मुगलों और अंग्रेजों के आधिपत्य में रही। जिस समय चौहान सेना गुजरात की ईंट से ईंट बजा रही थी और आल्हा-ऊदल जैसे नामी वीरों वाले महोबा को रौंद रही थी, उस समय अफगानिस्तान में मोहम्मद गौरी तेजी से पांव पसार रहा था और अब उसके निशाने पर था भारत। उसने गजनवी के वंशजों को खत्म कर सत्ता हासिल की थी। 1185 में जब उसने आखिरी गजनवियों से लाहौर, मुल्तान और सियालकोट छीने, तभी राजपूत राजाओं को चेत जाना चाहिये था। लेकिन चेतने की परम्परा भारत में कभी रही ही नहीं। इस बीच, जम्मू आदि के राजाओं के बुलावे पर गौरी पंजाब के इधर भी अपनी फौजी के साथ आता रहा, और लूटपाट कर वापस लौट जाता। 1191 में मोहम्मद गोरी एक बड़ी फौज लेकर भारत में घुस आया और थानेश्वर के करीब तराइन के युद्धक्षेत्र में उसका मुकाबला पृथ्वीराज चौहान ने बड़ी वीरता से किया। उसने न केवल गोरी को मात दी, बल्कि उसे पकड़ भी लिया। लेकिन अपने मंत्रियों के लाख समझाने के बावजूद उसने गोरी को छोड़ दिया। इस युद्ध में मेवाड़ के राणा रावल मथान सिंह समेत करीब डेढ़ सौ राजपूत राजाओं ने पृथ्वीराज के पक्ष में अपनी सेनाएं उतारी थीं।
अब आता है वह दौर, जिसके बारे में चौहान राजा के चारणकवि चंदबरदाई ने काव्यनामा ही लिख मारा है और अपने राजा की तुलना इंद्र से की है। पृथ्वीराज के समान एक और शक्तिशाली राजा जयचंद उस समय कन्नौज का अधिपति था, जिसकी एक खूबसूरत बेटी थी संयोगिता। इन दोनों राजाओं में शुरू से ही कभी नहीं पटी। दोनों किसी रिश्ते में भाई भी लगते थे। पृथ्वीराज और संयोगिता में चक्कर चल गया, इसकी जानकारी लगते ही जयचंद ने संयोगिता का स्वंयवर रचा डाला। जाहिर है उसमें पृथ्वीराज को नहीं बुलाया गया। पर आशिकी ने जोर मारा और चौहान राजा बगैर सेना के सौ के करीब बेहद विश्वस्त और तलवार के धनी सरदारों के साथ कन्नौज जा पहुंचा और स्वंयवर सभा से संयोगिता को उठा कर लौट लिया। जयचंद की सेना ने उसका पीछा किया। अपने राज तक पहुंचते-पहुंचते चौहान राजा के सभी सरदार जयचंद की सेना को रोकने के चक्कर में मारे गये, जिसका खामियाजा जल्द ही चौहान को उठाना पड़ा।इधर, अपनी हार से बौखलाये गोरी ने अगले ही साल फिर पृथ्वीराज चौहान को ललकारा और दोनों की सेनाएं तराइन में आ डटीं। इस बार भी सारे राजपूत राजा सामने थे। लेकिन चौहान की रणनीति की एक-एक जानकारी गौरी तक पहुंचा रहा था जयचंद। 1192 के इस युद्ध में राजपूतों की सारी वीरता धरी की धरी रह गयी और गौरी ने न केवल मैदान मारा बल्कि पृथ्वीराज चौहान और ज्यादातर सरदार और अन्य राजपूत राजाओं को मौत के घाट भी उतारा। यह हार भारत के लिये तबाहकुन साबित हुई और मोहम्मद गोरी ने बजाय लूटपाट करने केदिल्ली की गद्दी को अपने कब्जे में रखने का फैसला किया। वह तो लौट गया लेकिन पीछे अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को छोड़ गया। यहीं से शुरू हुई भारत को गुलाम बनाने वाले गुलाम वंश की शुरुआत।
पृथ्वीराज चौहान की इस हार का एक बड़ा कारण था देशी रवायतों के मुताबिक़ सारी सेना को एकबारगी युद्ध क्षेत्र में झोंक देना। जबकि गोरी ने सेना का एक बड़ा हिस्सा सुरक्षित रखा और जब शाम को गोरी ने मैदान में ताजादम सुरक्षित फोर्स को उतारा तो उससे लड़ने की ताकत राजपूतों में नहीं रह गयी थी।युद्ध के मैदान में फौज के चार-पांच हिस्से कर एक को रिजर्व में रखने की सोच किसी भी राजपूत राजा की कभी रही ही नहीं। और इस कारण भी करीब हजार साल के इतिहास में भारत का एक भी राजा किसी विदेशी ताकत को मात नहीं दे सका। सिर्फ एक नाम सामने आता है जिसने वीरता के साथ-साथ दिमाग का भी इस्तेमाल किया वह था मराठा शिवाजी, जिसने औरंगजेब जैसे प्रतापी बादशाह को नाको चने चबवा दिये। सुनने में यह बात चौंकाने वाली लगेगी, लेकिन यह आखिरी सच है कि सन् 1971 में बांग्लादेश युद्ध में भारतीय सेनाओं ने हजार साल बाद कोई विजय हासिल की थी।
और अंत में एक ऐसे युद्ध पर लिखी गयी पोथी की वो चंद पंक्तियां, जो बताती हैं कि केसरिया बाना पहन कर लड़ मरने से कुछ हासिल नहीं होता। युद्ध क्षेत्र में मर-मिट कर स्वर्ग जाने और पीछे महल में टसुए बहा रहीं सौ-पचास रानियों को आग में भस्म हो जाने की प्रेरणा देने के बजाये दुश्मन का कैसे भी खात्मा करने के ज़ज्बे के साथ इसी धरती पर हुआ था वह युद्ध-हावर्ड फास्ट की कलम से फलस्तीन में दो हजार साल से ज्यादा पहले तीस साल तक लड़े गये उस स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत का अंश-
‘आने दो उन्हें हमको ढूंढते हुए! भेजने दो हमारे खिलाफ अपनी फौजें! फौज बकरी की तरह पहाड़ों पर नहीं चढ़ सकतीं, हम चढ़ सकते हैं! हर चट्टान के पीछे और हर दरख्त की शाखों में एक तीर छिपा हो! हर चोटी पर बड़े-बड़े पत्थर जमा रहें! हम कभी सामने से उनका मुकाबला नहीं करेंगे, कभी उन्हें रोकने की कोशिश नहीं करेंगे-लेकिन हम बराबर उन पर वार करते रहेंगे, करते रहेंगे, करते रहेंगे, यहां तक कि हमारे तीरों के डर से उनकी रात की नींद हराम हो जाएगी, फिर उनकी हिम्मत नहीं होगी कि किसी तंग दर्रे में घुस भी सकें, और फिर सारा जूडिया उनके लिये एक बड़ा सा जाल बन जाएगा! लाने दो उन्हें अपनी फौजें हमारी धरती पर-हम तो पहाड़ों पर होंगे! और फिर आने दो उन्हें पहाड़ों पर -हर चट्टान जाग उठेगी! फिरने दो उन्हें हमारी तलाश में, हम कुहरे की तरह फैल कर हवा में घुल जायेंगे! और वे अपनी फौज किसी दर्रे के बीच से निकालने कोशिश करेंगे तो हम उनके टुकड़े टुकड़े कर डालेंगे, जैसे सांप के लिए जाते हैं।