सोमवार, 28 मार्च 2011

सुर तो ठीक ही लगा था.. फिर....


गमले में फूल पूरी सोच और तैयारी के साथ खिलाये जाते हैं, पर उसी गमले में कई बार हरी घास भी झांकने लगती है, जिसका फूल से, उसके उगने और खिलने या फूल को सहलाती हमारे हाथों की उंगलियों या फूलों को निहारती हमारी आंखों से कोई संबंध नहीं होता। वो घास या तो हमारे रहमो करम पर रहती है या खुद ब खुद मुरझा जाती है.....लेकिन कई बार हम पाते हैं कि अचानक फूलों के पौधों के बीच बेवजह उग आयी घास हमारे दिल में कुछ ऐसा पैठ जाती है कि सारे फूल अपनी खुश्बू के साथ कहीं ओझल हो जाते हैं।

राजीव मित्तल

जब मां और सब टीचरें स्कूल चली जातीं, तो हॉस्टल पर कुछ घंटों के लिये अपना साम्राज्य। चाहे जितना गुलगपाड़ा मचाऊं, छत की मुंडेर पर चढ़ पतंग उड़ाऊं.... फुल वॉल्यूम पर गाने सुनूं.....गलियारे में किसी के दरवाजे को विकेट बना कर बल्ले बाजी करूं या अपना सुर कैसी भी उंचाई पर ले जाऊं......या नहाते समय बाथरूम का दरवाजा खुला छोड़ दूं। ऐसी ही दोपहर थी वो...खटखट सुनी तो आवाज को लगाम दी.. दरवाजा खोला। नया चेहरा.....मैं बगल के कमरे में कुछ दिन पहले आयी हू...तुम्हीं गा रहे थे..... जी..जी..जी..हां। मिसेज मित्तल के बेटे हो न......किसी काम से आयी थी...गाना सुन कर रुक गयी... डिस्टर्ब करने के लिये सॉरी।

एक इतवार को दिखीं तो अपने कमरे में बुलाया.....वो गीत आता है?.....सुना दो। सारी लज्जा और शरम के बावजूद दुनिया वालों से जुड़ने को यही तरीका अपनी पसंद का था। गला खखार शुरू हो गया। आधे पर ही था कि उनके आंसू बहने लगे। अब मैं क्या करूं। हुक्का बन गया बिल्कुल। उठीं..मुंह धोकर आयीं। मेरे हसबेंड को बहुत पसंद था। लास्ट ईयर मॉस्को में निधन हो गया। आईएफएस थे। जैसे ही जाने को हुआ....रुको... तश्तरी में मेवों की ढेरी रख हाथों में थमा दी। खूब सारे रिकॉर्ड्स दिखाये...पुराने स्टाइल का ग्रामाफोन। ये सब तुम अपने पास रखो। अगले दिन मां से सुना कि फोटोग्राफी का भी शौक है तो कीव कैमरा भी।

मई 1970 की एक दोपहर। अपने कमरे में ले गयीं....दो नये चेहरे घूरते दिखे। इनसे मिलो......। गलाबाजी तय थी। आह-वाह के बाद एक ने भी कुछ सुनाया। गाना सुनाने वाली नये सेशन में हॉस्टलर हो गयी। कमरा एक मंजिल ऊपर। नकचढ़ी लगी। अगस्त में गायन सीखने लगा तो पूरी शाम वहीं का हो गया। भातखंडे ने अपने शेयर काफी ऊंचे पहुंचा दिये। प्रशंसकों की तादाद में जबरदस्त उछाला। उन मैडम की नाक भी सम पर आ गयी। नाक सम पर आ गयी तो पूरा गलियारा उनकी खिलखिल से भर उठा। चूंकि सब मां के गैंग की थीं...तो, इज्जत से पेश आना जरूरी था। अब उनके साथ खूब उठना-बैठना..किताबों की चर्चा..फिल्म देखना...घूमना.. एक दिन उनकी डायरी मांग बैठा और जब मिल गयी तो तकिये के नीचे रख कर कई नींद पूरी कीं।

दिसम्बर में भातखंडे में गायन की परीक्षा.... एक बड़े कलाकार के सामने..... खमाज पकड़ने का हुक्म मिला.. सुना दिया तो कलाकार मुस्कुराये..आपने ठीक गाया?.....जी, बिल्कुल ठीक गाया....तब उन्होंने गा कर सुनाया तो पता चला..अपना धैवत गलत लग रहा था। लेकिन सिखाया ही उसी तरह गया था। अपनी गल्ती मानने को तैयार नहीं था। वो बोले....अपने मन से कुछ सुनाओ। बिलावल में कुछ सुनाया। उन्हें पसंद आया। बोले..अगले सेशन में मेरे पास आना। गला संभाले रखो।

जनवरी में सेशन शुरू हुए कई दिन निकल गये लेकिन मैं नहीं गया। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्यों नहीं जा रहा हूं। सांस की तकलीफ का बता कर घर वालों को शांत कर दिया। रात आठ बजे के बाद कमरे में ही महफिल लगने लगी। तार कसते जा रहे थे...... नयी झंकार में कुछ अजब झनझनाहट। सारे सामाजिक क्रिया कलाप बंद...कॉलेज और घर..... बस। एक शाम रास्ते में भातखंडे के एक शिक्षक मिल गये.....तुम आ क्यों नहीं रहे हो....महीना भर हो गया......दो नये राग सिखा दिये गये हैं.....मेरे घर आ जाओ कल से...पूरी तैयारी करा दूंगा। यह गल्ती मत करो। हां हूं कर टाला उन्हें...कौन बताता कि किस दौर से गुजर रहा हूं।

इंटर के एग्जाम सिर पर आ गये....हाथ लग गयी अमृतलाल नागर की बूंद और समुद्र। करेले की बेल पहले से लिपटी पड़ी थी अब नीम भी सवार। रिजल्ट आया तो फेल... फिर उसी क्लास में। मां-पिता ने बुरा लगने जैसा कुछ न जताया.. तो.. यहां भी सामान्य होने में देर नहीं लगी।

हर रविवार को अपने घर चली जातीं तो बहुत खाली-खाली लगता। बाकी छह वार स्कूल की छुट्टी साढ़े चार बजे। मां समय पर आ जातीं। अब कान सीढ़ियों की पदचाप पर टिकने को बेताब। यह नहीं, यह भी नहीं....अचानक कोई ऐसा कदम पहली सीढ़ी पर पड़ता कि दिल और दिमाग के सारे सुर-ताल हिलने लग जाते। सीढ़ी कम होती जा रही हैं। दो पैड़ी बचीं..फिर एक....फिर.... अब कदम किधर की तरफ मुड़ते हैं.. दरवाजे की तरफ या अपने कमरे तक जाने को ऊपर की ओर। दिल बाहर निकलने को। दरवाजा खटका तो पूरी कायनात अपनी झोली में...नहीं तो..तो..गहरे डूबने की तैयारी।

अक्तूबर आया तो स्कूल में दशहरे की छुट्टियां। अपना सिर दीवार पर दे मारने का मन करे। एक दिन मां पकड़ कर बैठ गयीं.....राजू ..अब यह सब छोड़ दे...बहुत हो ली भावुकता...वो अब जल्दी ही यहां से जा रही है....उनके चेहरे पर निगाह ठहर गयी......वो घर वालों को बिना बताये शादी करने जा रही है। लड़का पीसीएस है.. बम्बई कस्टम में। इंच-टेप लेकर बैठ गया लेकिन इंटरफेल की नाप किसी तरह पीसीएस को नहीं छू पा रही थी............गमले में बेवजह उग आयी घास पीली पड़ रही है..फूल-पत्तियों पर ध्यान दे यार.......।

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