कुछ दिन पहले एक मित्र का एसएमएस मिला......आप भी देखें....देखें क्या...आप सबको भी मिला ही होगा....
वह देश, जहां घरों में पिज्जा एम्बुलेंस से पहले पहुंचता है
वह देश, जहां कार लोन 5 फीसदी और शिक्षा पर लोन 12 फीसदी है
वह देश, जहां चावल 40 रुपये किलो...लेकिन सिमकार्ड 10 रुपये में मिलता है
वह देश जहां चाय के ठेले या ढाबे पर अखबार में बाल श्रम पर प्रकाशित लेख पढ़ कर जोर-जोर से टिप्पणी की जाती है...यार बच्चों से काम करवाने वालों को फांसी पर चढ़ा देना चाहिये और तभी कोई चिल्लाता है...ओये छोटू...अबे जल्दी ला तीन चाय (1946 में जवाहर लाल नेहरु भ्रष्टाचारियों को फांसी पर चढ़ाने का जोर-शोर से ऐलान करते थे, लेकिन तब देश आजाद नहीं हुआ था)
तो गुरु यह है इंडिया, जहां आप किस पर विश्वाास करेंगे.. फांसी पर चढ़ाने वालों पर या अबे छोटू की तान लगाने वाले पर।
सवाल इस बात का है कि बजट कुछ लेकर आता है, मिलता कुछ है...लेकिन जेब से कितना निकाला जाता है...इसका कोई हिसाब नहीं.... औार साल का वो समय भी जल्द ही आ जाता है जब बजट का सारा हिसाब-किताब पूरी तरह गड़बड़ा जाता है....घर का भी और सरकार का भी....सब कुछ समुद्र की लहर बहा कर ले जाती है......अंत में70 फीसदी जनता सुबकी भर रही होती है...10 फीसदी हर साल की तरह कमाने की धुन में लगे रहते हैं और बाकी 20 फीसदी को बजट से केवल इतना ही मतलब होता है कि उनके हाथ क्या लगा है नोचने को। जहां तक करदाता को राहत का सवाल है, उसे वह कर का स्लैब देख कर समझ जाएगा। वैसे भी सबने चैनलों पर देख ही लिया होगा। गृहणियां जरूर रसोई के डिब्बे देख लें कि अभी वे कितने दिन और खाली पड़े रहेंगे। तब तक टीवी औार फ्रिज का नया मॉडल खरीद कर ‘आए दिन बहार के’ का मजा लें।
अब यह देखना कि इस वित्तीय वर्ष में सल्फास खाकर मरने वालों किसानों की संख्या में क्या बदलाव आता है और मजदूर वर्ग का प्रवास कौन सी दिशा पकड़ता है....वह जब घर लौटता है तो उस पर एचआईवी पॉजिटिव किस कदर हावी है, या इस बार केवल जुखाम-खांसी से ही काम चल गया।
बहरहाल हम इस आम बजट को लेकर कुछ उस तरह खुश हो लें, जैसे दो दिन पहले रेलवे बजट को देखकर चहके थे कि बच गये भाई बच गये...इस बार भी किराया नहीं बढ़ा, न ही बढ़ा माल भाड़ा.....हां, दो-चार डिब्बे और मिल गये लटकने को...और गंदे बिस्तरों पर एसी का मजा तो मिल ही रहा है, रेलवे कैटरिंग थाली में से काकरोच पहले ही निकाल देती है....अब वो सामने नहीं आते..... पल में खुश और पल में दुखी होना हम भारतीयों की नियति है......चलते चलाते इसे भी देख लें....बजट समझ में आ जाएगा....
उनसे मिलिये तो खुशी होती है उनसे मिलकर
शहर के दूसरे लोगों से जो कम झूठे हैं
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