राजीव मित्तल
79 की फरवरी तक अपन आश्रमवासी हो चुके थे। दिल्ली के आईटी गेट के सामने मदर इंटरनेशनल स्कूल, जिसमें पॉंडेचेरी आश्रम की फ्रेंचाइजी थी, उसी में। सौजन्य से अमृता भारती यानि मेरी बुआ..जो कॉमरेड किस्म की पत्रिका पश्यन्ति निकालते-निकालते आस्था के सागर में गोते लगा कर श्रीअरबिन्दो और मदर की भक्ति में लीन हो चुकी थीं। मुझमें उन्हें पता नहीं कौन से विषाणु नजर आए अध्यात्म के.. कि.. एम ए करने के बाद दो साल साल से चल रही आवारागर्दी पर विराम लग गया।
सुबह के भक्ति-भजन के अलावा काम मिला लाइब्रेरी संभालने का। इसके अलावा, गोरी या काली कैसी भी लड़कियों को हिंदी पढ़ाना..जिनकी फीस में से आधा हिस्सा बाहर की दुनिया से तोल-मोल करने को और आधा आश्रम की संचालिका >>जोहर के हवाले। लाइब्रेरी श्रीअरबिन्दो और मदर की किताबों से ठसाठस। पॉंडेचेरी आश्रम में उत्पादित सामान की बहार अलग से। रहने को आरामदार कमरा। दानी-पानी को शानदार मेस। मंटो की जुबान में उस हैपटुल्ली जगह पर सारा मामला एक दम हैपटुल्ला।
लाइब्रेरी की खिड़की से मेन गेट को जाता बजरी वाला रास्ता साफ नजर आता था। एक शाम निगाह गयी तो सामने से एक जोड़ा आ रहा था। पुरुष को पहचान लिया। वो थे मीडिया मैनेजमेंट के श्लाका पुरुष। नजीबाबाद के समय के पारिवारिक संबंध। जाहिर है बुआ से मिलना होगा। स्थूल हो चली लावण्यमयी महिला साथ में। उन दोनों के खिड़की के पास आते ही दिमाग के पट फड़फड़ करने लगे.....!!! बरसों पहले जो सुनायी पड़ता रहा था वो अब बेलौस होकर एकदम सामने । सामने से निकल गए दोनों।
कुछ देर बैठा रहा, फिर उठा और बुआ की रिहायश तरफ चल दिया। अंदर घुसा तो माहौल बेहद आस्थामय। सबके चेहरे पर पवित्र मुस्कान। बुआ कॉफी बनाने में व्यस्त। बोलीं...राजीव...आ बैठ। मैंने श्लाका पुरुष के चरण छुए....कैसा है तू......उनकी आवाज में थरथराहट का आभास हुआ। कॉफी पी गयी। सोफे पर साथ में बैठी लावण्य से उनकी कुनकुन शुरू हो गयी। पता नहीं किस फितूर में बौड़मपना दिखा गया....आपने मुझे पहचाना नहीं...? श्लाका पुरुष का चेहरा पीला पड़ना शुरू। महिला ने मुड़ कर आंखें मिलायीं....नहीं...मैंने आपको नहीं पहचाना। मैं राजीव।........ राजीव...राजीव....? बिल्कुल ध्यान में नहीं आ रहा।.....श्लाका पुरुष टुनटुनाए....फलाने फलाने का बेटा है। ओह हो हो हो ...मुन्ना....। कैसा है रे तू..दीदी कैसी हैं...जीजाजी कहां हैं....कितने साल बाद देख रही हूं तुझे....खूब लम्बा हो गया है...इत्ता सा था..कुछ-कुछ बोले जा रही थीं वो। इधर, मैं पहुंच गया 19 साल पहले दिल्ली में घंटाघर के पास कोल्हापुर हाउस के उस एक कमरे वाले घर में। मां कमलानगर के जैन मॉंटेसरी स्कूल में पढ़ाती थीं। कई-कई स्कूलों में अंदर-बाहर होने के बाद मुझे अपने साथ ही घसीट ले जाने लगीं। एक दिन मैं दमा के अटैक के चलते घर पर ही रह गया। शाम को लौटीं तो खूबसूरत युवती साथ में। इतनी अच्छी लगी कि शरमा कर मां के पीछे छुप गया। यह मुन्ना...मेरा बेटा....सामने आ न..यह तेरी मौसी है बेटू।
(47 में पाकिस्तान से भागते समय पिता मारे गये। मां और छोटी बहन के साथ किसी तरह भारत पहुंचीं। कई साल पंजाब में रिश्तेदारी में गुजरे। बीए कर दिल्ली में नौकरी की तलाश। इसी चक्कर में मां से टकरा गयीं। )
बहरहाल, पहले ही दिन से मौसी के प्यार ने इस नन्ही सी जान की जैसे दुनिया ही बदल दी। उनकी रिहायश लाजपतनगर में थी। सप्ताह में तीन-चार बार तो आ ही जातीं। कई बार रात को रुकना भी। परिवार की पांचवी सदस्य बन गयीं। हर इतवार को कभी पिकनिक, कभी मूवी, कभी कहीं..कभी कहीं। अपनी हालत ---जब वो आएं लेकर आएं दिन में चांद सितारे...जब वो जाएं लेकर जाएं दिल के अरमां सारे...उन्हें घर से जाते देख पाना बर्दाश्त के बाहर था, इसलिये खुद को ओझल कर देता। या तो उन्हें रुकना पड़ता...या फिर सब समझ जाते कि मेरे अगले कुछ घंटे कैसे गुजरेंगे।
एक दिन बहुत मनुहार के साथ अपने घर ले गयीं। रात में हाथ-मुंह साफ कर अपने पास लिटा लिया। मुझे थी मां के पेट पर हाथ रख कर सोने की आदत। रात को सोते में टटोलना शुरू किया। मेरी इस हरकत की मां से उन्हें जानकारी मिल चुकी थी। पंजाबन थीं, तो पोशाक कुर्ता-सलवार....उन्होंने जो भी इंताजामात किये हों.... मुझे पेट मिल गया और चैन की नींद भी। सुबह नहलाने से लेकर अगले कई दिन तक वो मुझे चिढ़ातीं और मैं हाथ-पैर पटकता।
जनम भर सब कुछ इतना ही हसीन चलता रहेगा, यह सोच मैं अपने में मग्न था। छह महीने बीत गये....एकाएक अहसास हुआ कि राग यमन में... रे... का कोमल स्वर तीव्र लग रहा है। उनका आना एकाएक कम हो गया। हुआ यूं.. मां ने अपने पति को बचाने के चक्कर में एक दिन उन्हें श्लाका पुरुष से मिलवा दिया ताकि भाईसाहब उन्हें नौकरी दिलवा दें। एक दिन भी नहीं लगाया श्लाका पुरुष ने उन्हें हिल्ले से लगाने में।
दिल्ली छोड़ने के दिन नजदीक आए तो रूपनगर के एक साल पुराने घर में उनकी सूरत फिर दिखनी शुरू हुई। लेकिन अपना दिल तो चकनाचूर हो चुका था...उनके आने पर मन न तोआह्लादित होता, और न उनके जाने पर नरक की आग में झुलसता।
अरे, कहां खो गया तू.....क्या कर रहा है आजकल.....सुनिये, आप इसके लिये कुछ कीजिये न! हां................जम्हाई सी लेते हुए श्लाका एकाएक पुरुष उठ कर खड़े हो गये। अरे बैठो न...कितने दिनों बाद मिला है....खूब बातें करनी हैं इससे। नहीं, एक जरूरी काम याद आ गया। श्लाका पुरुष के साथ लावण्यमयी महिला उसी रास्ते से लौट रही थी और मैं.......... लाइब्रेरी में पॉंडेचेरी से आयी स्विस लड़की को टूटी हिन्दी-फूटी इंगलिश में समझा रहा था कि सीता धरती में क्यों समायी।
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