सोमवार, 28 मार्च 2011

एक बार फिर ......बन्दा टीवीआई का


होली पर पारुल का संदेश मिला तो तुरंत बात करने का मन हुअ ा....वही खनकती हुई आवाज....कहां हो....आगरा में......अभी तक ठीक नहीं हुए....कब तक हो वहां.....जब डाक्टर छोड़ेंगे......अरे बेवकूफ मैं 26-27 को वहीं हूं, इसलिये पूछा.........हूं न आ जाइये.....ठीक है फोन कर दूंगी।

26 की शाम मिलने को बुलाया, मैंने 27 की दोपहर बताया। विदेशियों से मुक्ति पाओ तो फोन कर देना। एक बजे फोन आ गया कि फलाने होटल आ जाओ.....पर खाना खिलाना पड़ेगा....बहुत भूख लगी है...गाड़ी लेते आना। आगरा से उतना ही अनजान जितना अ ागरा मुझसे। फतेहाबाद रोड पर पहुंच कर फोन किया.....तुम वहां पहुंचो, मैं बाहर ही मिल जाऊंगी। गाड़ी चलती जा रही थी कि आवाज आयी...रुको।

उतरा तो 10 साल पहले की पारुल अ ौर बीते 10 साल बाद का मैं....पर कुछ नहीं बदला था.......कैसे हो......कहां-कहां भटक लिये......पहले कुछ खिला दीजिये.....पांच दिन से खाना नहीं खाया.....ड्राइवर से गाड़ी मुड़वायी.....पारुल का कोई खासा जाना-पहचाना रेस्त्रां......बाहर चोबदार से लेकर अंदर बेयरे तक मुस्कुराते हुए सलाम ठोंक रहे......वो भी सबका हालचाल लेते हुए अपने मेहमानों के लिये शाम के डिनर की तैयारी का जायजा ले रही।

क्या मंगाना है...दाल-रोटी-सब्जी बस.....ठीक है.....आॅडर्र दे दिया....बात शुरू करने से पहले फेस बुक में लिखा ..टीवीआई का बन्दा.. का प्रिंट जेब से निकाला और देते हुए कहा....रात को पढ़ना। विभाकर पर है न!

अगले डेढ़ घंटे तक हम बातचीत करते रहे, खाना खाते रहे.....लेकिन दोनों तरफ विभाकर ही था.....शतरंज के उस खेल की तरह, जिसे एक ही जना खेलता है और कभी अ ामने-कभी सामने या बोर्ड के बीचोबीच बैठ कर दोनों तरफ की चालें चलता है। विभाकर भी तो यही कर रहा था। टीवीआई के साढ़े तीन साल और पारुल के साथ बिताए न जाने कितने साल.....सब जगह वो ही था।

........जब विभाकर पटना के लिये चला तो पहली बार कहा कि रास्ते के लिये खाना रख दो और अपने भांजे को फोन कर मेरा ख्याल रखने को कहा.....वो बोला भी कि क्या पहली बार उन्हें अकेला छोड़ कर जा रहे हो....ख्याल तो वो तुम्हारा रखती आ रही हैं अब तक.........

बस एक ही दिन बाद पटना से फोन आने शुरू हो गये कि विभाकर कहां है...फिर कुछ ही समय बाद फोन आया कि जल्दी आओ...वो कोमा में है। फ्लाइट से पटना और वहां से दरभंगा अस्पताल पहुंची। सारे वार्ड निकल गये, पर वो कहीं नहीं दिख रहा था.....कहीं कोने में लेटा था.....भीड़ देख कर मैं सब समझ गयी......तुम खाना खत्म करो...मैं बिल्कुल नहीं रोऊंगी....पर अपनी अ ाखों में धुंधलापन आना शुरू हो गया था...चलो चलें.......जब कार में बैठने लगा...तो सिर पर हाथ चला गया.....अरे तुम मुझसे छोटे हो......क्या फर्क पड़ता है पारुल......बस ऐसे ही रहना तुम.....तुम ही हो जो मुझमें विभाकर को तलाशते हो....उसके जाने के बाद तो उसके सब यार-दोस्त मुझमें औरत को ही तलाशते रहे।

घर पहुंच कर सीढ़ियों पर कदम रखा ही था कि फोन बजा.....राजीव, तुम्हारे जाते ही वो मैंने पढ़ा.....तुम फिर विभाकर को मेरे पास छोड़ गये....मैंने कहा था न मैं नहीं रोऊंगी.....मैं क्या करूं.....मैं रो रही हूं......कई देर से पता नहीं कहां अटके आंसू अब और इंतजार नहीं कर सकते थे.....कमरे का ताला खोलते-खोलते बाहर आने शुरू हो गये।

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