- राजीव मित्तल
मार्च, 2005। पता नहीं किस तुफेल में ढाई साल पुरानी जमी जमायी किरायेदारी छोड़ इत्ते बड़े घर को डेरा बनाया। कई सारे कमरे। अंदर आंगन, बाहर दालान और उसके भी बाहर लॉन। और रहने वाला सिर्फ मैं। मकान मालिक का परिवार ऊपर। साथ में जिमी। सुबह की चाय अक्सर उनके यहां। पता नहीं क्यों, जिमी को पसंद नहीं आया मेरा आना। मुंह बिचका कर भाग जाता। एक दिन ऐसे ही पूछ लिया-इसे खाने में क्या पसंद है! खीरे और पानी में भीगे चने। वाह! यही तो अपनी भी पसंद है। दालान में खड़े-खड़े फौरन खीरे की दो फांक कर एक अपने मुंह में डाली और सहमते हुए दूसरी उसके सामने। पहले तो घूरता रहा, फिर अहसान दिखाते हुए दांतों से कुतरने लगा। अगले दिन तश्तरी भर भीगे चने और खीरे के टुकड़े। तीन दिन बाद ही महाशय जी कमरे के अंदर। रात को काफी देर से घर लौटना, दिन भर सोना सारे घर के दरवाजे खोल कर। रखवाली जिमी के हवाले। मिलने वाले गेट पर खड़े होकर चिल्लाते रहते।
सावन आ गया। अब देर रात के बजाये दफ्तर से सुबह लौटना होने लगा। एक अल्ल सुबह बूंदाबांदी के बीच ब्रह्मपुरा के सब्जी बाजार में देसी अमियों की ढेरी देख दिल लपकने लगा। छंटाई कर कई किलो भर लीं। गेट खोलते ही रोजाना की तरह जिमी की लपक-झपक शुरू। आम की गंध मिली तो बौरा गया। तेजी से दरवाजे पर पुहंच उछल-उछल कर पैर मारने लगा कि जल्दी खोलो यार, अब रहा नहीं जा रहा। रहा तो अपने से भी नहीं जा रहा था। अंदर जा कर सारे आम पानी भरी बाल्टी में उडेले। उसके बाद छिलका उतार कर गुठली उसे दी और एक अपने मुंह में। अब पूरे आंगन में जिमी की खो-खो शुरू। गुठली आगे को फिसल रही और जिमी मुंह खोले उसके पीछे-पीछे। चार-पांच गुठलियों ने पूरे आंगन को आम के रस से महका दिया। दोनों ने पूरी बरसात सुबह-दोपहर आम, खीरा और भीगे चनों का मजा लिया। उसने अपने घर भी जाना बंद कर दिया। कोई लेने आता तो गुर्राने लगता । बाकी समय दोनों का गपशप या सोने में गुजरता। मुश्किल आती शाम को जब आॅफिस के लिये स्कूटर बाहर निकालता। वह पैर पकड़ झूल जाता। मैं, स्कूटर और वो, तीनों आगे की ओर की घिसटते। बरसात के पानी से भीगे पंजे कपड़े तक खराब कर देते। उसे बांध कर ही गेट से बाहर निकल पाता। सितम्बर खत्म होते-होते इस बड़े घर से मन उकताने लगा।
एक दिन ऑफिस का कोई पकड़ कर पुराने घर ले गया तो मकान मालिक का चेहरा खिल उठा। चाय के साथ रसगुल्ले भी खिलाये। कहा-फिर यहीं आ जाइये-अपके दोनों कमरे बंद ही पड़े हैं। लखनऊ से आए बेटे ने भी वह घर छोड़ जाने के लिये लानतें भेजीं। खैर, एक सुबु सामान ढोने वाले बुलाए। सामान लदता देख जिमी पागल हो गया। एक पर तो दांत भी गड़ा दिये। मकान मालिक किसी तरह गोद में उठा कर ऊपर ले गये। पुराने घर में आने के बाद दो-चार बार जिमी को बेटे के हाथ बुलवाया। मिल कर खुशी से झूम उठता और खा-पी कर बेमन से लौट जाता। दफ्तर के रास्ते में पड़ता था इसलिये जब-तब उससे मिलने चला जाता। साथ में उसे खिलाने को भी कुछ। आवाज सुन जिमी हल्ले मचाता ऊपर से आता। फिर लखनऊ-दिल्ली के चक्कर में काफी दिन बाद वहां जाना हुआ।
कई बार घंटी बजाने के बाद भी जिमी की आवाज सुनायी नहीं दी तो अजीब सा लगा। श्रीवास्तव जी अकेले नीचे आये तो उनसे पूछा-जिमी कहां है? जो सुना उससे कान सुन्न हो गये। हुआ यूं-- मेरे जाने के बाद कोई रिटायर्ड जज उस घर में रहने आ गये थे। जिमी को उस चौखट से काफी मोह था ही, अक्सर वह अंदर भी चला जाता और अपना ही घर समझ सुसु वगैरह कर देता। उनके बेटे को उसका आना बिल्कुल पसंद नहीं आया। एक दिन उसने जिमी पर मिट्टी का तेल डाल दिया। घने बालों की वजह से किसी को पता नहीं चला कि तेल ने खाल को जला डाला है। सड़ने पर घाव से बदबू उठने लगी। काफी कमाऊ जगह मैनेजर रहे श्रीवास्तव साहब आठ साल से बेटे की तरह पल रहे जिमी का घर में ही टटपूंजिया इलाज करते रहे। जब दुर्गंध पूरे घर को गंधाने लगी तो एक दिन उसे कार में धर 30-35 किलोमीटर दूर सुनसान जगह पेड़ से बांध आए। .... दिमाग में बस यही चल रहा था- पेड़ से बंधा जिमी मरा किस तरह होगा .........काफी देर तक भौंकता रहा होगा.... फिर कूं-कूं..... हो सकता है जीते जी उसे निवाला बनाया गया हो .......। इससे अच्छा तो आप उसे जहर दे देते...यह कह कर लौट लिया। फिर जब तक मुजफ्फरपुर में रहा, उनके लाख बुलाने पर घर तो क्या, उस तरफ जाने वाली सड़क पर भी पांव नहीं रखा। जिमी को अपने से इस कदर जोड़ने के अपराधबोध से अभी तक मुक्त नहीं हूं। कभी होऊंगा भी नहीं।
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