सोमवार, 28 मार्च 2011

सन् 1857 वाया मंगल पांडे बनाम जहां शाख शाख पर ..1

इस बार के नर्मदा प्रवास में एक सुबह मिलना हुआ जबलपुर के एक जाने माने डॉक्टर से, जो शहर के संघ प्रचारकभी हैं। इतिहास पर बात चली तो उनका हिंदु गुणगान शुरू हो गया। सत्तावन की ग़दर पर वो सावरकर जी कि हीभाषा निकाल रहे थे। जब उनके सामने तर्क रखने शुरू किये तो यहाँ से वहां और वहां से यहाँ होने लगे। अंत मेंबोले... आप सही कह रहे हैं लेकिन हमारे युवाओं को गौरवशाली इतहास की जरूरत है....... गौरवशालीइतिहास.....यानी कुछ भी सच हो....कड़वा तो बिलकुल ही नहीं...फिर उन्होंने ज्ञान की एक बात औरबघारी-----यह गलत धारणा है कि अंग्रेजों ने सत्ता मुगलों से हासिल की थी अंग्रेजों को यह देश मिला मराठों से।अब तो चुल्लू भर पानी में डूब मरिये डॉक्टर साहेब......मैं जो कहने से बच रहा था आपने वही बात अपनेमुखारबिंद से निकाल दी ......कि उस समय के असली गद्दार कौन थे......उस समय अंग्रेजों से जूझ रहा था केवलहैदर अली..... और उसका बेटा टीपू सुलतान....मराठे तो चालें चल रहे थे कि किसकी जेब काटी जाए.....असलियतमें वे पिंडारी बने हुए थे... जाते जाते एक बात और सुनते जाएँ डॉक्टर जामदार कि आज गंगा को तबाह हिंदु ही कररहे हैं.......और गाये कटने को जिन ट्रकों में लाद कर नेपाल ले जाई जाती हैं.....उनके ज़्यादातर ठेकेदार संघ परिवारके नुमाइंदे होते हैं......मेरठ में जो एशिया का सबसे बड़ा स्लाटर हॉउस है, भले ही उसको चलाने वाले मुसलमानहों.....लेकिन उसके खिलाफ मुंह बंद रखने के लिए काफी मोटी रकम संघियों और बीजेपी वालों को भी जातीहै.........अब चलें इस राष्ट्र के गौरवमय इतिहास की ओर...... ......
आप सबसे गुजारिश कि एक बार में पूरा दे पाने की वजह से लेख को दो भाग में देने की मजबूरी है...अगला भागनीचे देखें

राजीव मित्तल

देश-दुनिया की खबरों से बेखबर नरक-स्वर्ग के पचड़े में पता नहीं किन युगों से फंसा भारतीय समाज सदियों तकअपनीगौरवमयी जड़तामें इस कदर डूबा रहा कि उसे भविष्य को भांपने, अपने समय की घटनाओं को झांक करदेखने या उन दिनों के नामी-गिरामी सुधिजनों को उन्हें लिपिबद्ध करने की जरूरत ही कभी महसूस नहीं हुई। लिखाभी तो चंदबरदाई जैसे चारणों ने, जो किसी पब्लिक रिलेशन ऑफिसर वाला कारनामा बन कर रह गया। लेकिनभारतवर्ष नामाराशि वाले इस देश के ढाई हजार सालों का जर्रा-जर्रा उन परिस्थितिजन्य साक्ष्यों से भरा पड़ा है, जिनसे पता चलता है कि भारत या हिन्दुस्तान एक भूखंड का नाम जरूर था लेकिन देशवासियों के लिये, खास करशासक वर्ग के लिये यह कभी राष्ट्र नहीं रहा था (आर्यावर्त नाम का कुछ था तो जुरूर पौराणिक, लेकिन वो पुरानोंतक ही सीमित है )

चूंकि राष्ट्र का संबंध केवल भावना से ही नहीं भौतिकता से भी जुड़ा है, जो इहलोक-परलोक केकर्मकांडी अध्यात्ममें बुरी तरह फंसे हिंदु समाज के लिये बहुत मायने नहीं रखता था। इस सोच में 1857 के मार्च महीने में भी कोईबदलाव नहीं आया था। तो जब जहन में राष्ट्र की कोई परिकल्पना ही नहीं थी, तो माफ करना सावरकर जी, फिरकैसी देशभक्ति और कैसा 1857 में भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम! हां, बेहद निजी किस्म की वीरता से भरपूरकारनामों के चलते और टिकट खिड़की की एकछत्र बादशाहत को देखते हुए हिन्दी फिल्मों के निर्माताओं के लियेअनेक युद्धों औरस्वतन्त्रता संग्रामोंमें से निकालने को मंगल पांडे या पृथ्वीराज चौहान जैसे जायकेदार चरित्रोंकी कोई कमी कभी नहीं रहने वाली।

भारत के इतिहास में सन् 1857 का साल बेहद अहम् स्थान रखता है। सैनिक विद्रोह, गदर या फिर आजादी कीपहली लड़ाई-इनमें से कोई भी नाम मार्च 1857 से अगले साल सितम्बर के महीने तक चले घटनाक्रम को दिया जासकता है। कुल मिला कर नतीजा यही निकला कि ईस्ट इंडिया कम्पनी भारतीय परिदृष्य से लापता हो गयी औरअगले नब्बे साल का भारत को गुलाम बनाये रखने का पट्टा इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया और उनके वंशजों कोबैठे बिठाए मिल गया।

इस उपमहाद्वीप को डेढ़ सौ साल के अंदर ही पूरी तरह गुलाम बना देने वाली ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी केकारकूनों ने मुगल बादशाह अकबर के शासन के अंतिम वर्षों में पुर्तगालियों और डचों की देखादेखी हमीं क्यों पीछेरहें वाली भावना के साथ भारत में कदम रखा था। 1612 में जहांगीर के दरबार में कोर्निश बजाते-बजाते सर टॉमसरो को सूरत में फैक्टरी डालने की मंजूरी मिल गयी। पटसन और मसाले बेचते-बेचते यह कम्पनी कुछ सालों में हीबारूद और बंदूक-तमंचों की तिजारत करने लगी। लेकिन औरंगजेब के समय तक उसकी इतनी हिम्मत नहीं पड़ीकि वह भारत के राजनीतिक अखाड़े में कूदती। काफी समय तक अंग्रेज मद्रास तक ही सीमित रहे।

लेकिन औरंगजेब का इंतकाल (1707) होते ही भारत की केन्द्रीय सत्ता बेहद कमजोर हो गयी, जिसका फायदाउठाने को ईस्ट इंडिया कम्पनी तैयार ही बैठी थी। मकसद था ज्यादा से ज्यादा कच्चा माल उलीचना लेकिन जबदेखा कि इस देश को गुलामी की जंजीरों से जकड़ने के सारे हालात पेड़ों पर पके आम की तरह लटक रहे हैं (औरमाली का कोई अता-पता नहीं) तो उसने चोला बदला। जहां दो राजाओं को लड़ते देखती, कम्पनी बिल्ली कीभूमिका में जाती। दक्षिण में अपने अरमानों को परवान चढ़ा कर औरंगजेब के जाने के पचास साल बाद हीवह पलासी के आम के बगीचे में उतर पड़ी और करीब 25 गुना सैन्य क्षमता वाले बंगाल के नवाबसिराजुद्दौला को देशी गद्दारों के बल पर मात दे अपनी साजिशों को अंतिम रूप देने में जुट गयी। (1757)

उस लड़ाई में अगर नवाब का मीर बख्शी और रिश्ते में चाचा मीर जाफर का एक भी सैनिक गोली दाग देता तोकम्पनी को मद्रास भागने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था या बंगाल के मारवाड़ी साहूकार सेठ अमीचंद औरजगत सेठ ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक बड़े अफसर रॉबर्ट क्लाइव के लिये अपनी तिजौरी का मुंह खोल देते तोउसके पास अपने सेना के घोड़ों को घास तक खिलाने के पैसे नहीं थे। लेकिन सब कुछ पहले से तय था और नवाबकी 50 हजार पैदल और 20 हजार घुड़सवार सेना कम्पनी के उन तीन हजार सैनिकों के सामने दुम दबा कर खड़ीरही, जिसके दो हजार जवान भारतीय थे। इतना ही नहीं, पचास बड़ी तोपों का बारूद खुले में इस तरह पड़ा था किबारिश की पहली बौछार में ही भीग कर लुगदी बन गया। इस लड़ाई को भारत के ही नहीं, दुनिया भर के इतिहास केसबसे शर्मनाक युद्धों में शामिल किया जा सकता है। भारतवर्ष के भाग्य को बदल देने वाले इस युद्ध में दोनों तरफके कुल जमा 523 सैनिक खेत रहे थे।

अगले सौ साल कम्पनी की मक्कारी, धूर्तता, नोच-खसोट और कन्याकुमारी से कश्मीर कटक से अटक तक फैलेछह सौ ज्यादा भारतीय रजवाड़ों के निकम्मेपन और अय्याशी से लबालब हैं। इन सौ वर्षों में ही इंग्लैंड औद्योगिकक्रांति के सफल दौर से गुजरा क्योंकि उसकी नौसेना बेहद सशक्त थी और भारत से जहाजों में भर-भर कर रहाथा कच्चा माल। इस दौरान अंग्रेजों ने जो थोड़ा-बहुत प्रतिरोध झेला, वह दक्षिण भारत में ही झेला, उत्तर भारत केराजा तो तब तक आपस में भी लड़ना भूल चुके थे।

जहां तक राष्ट्र या राष्ट्रीयता का सवाल है, हम भारतीयों का इन दोनों में किसी से भी कैसा भी सम्बंध ईसा के छह सौसाल पहले से ही कभी नहीं रहा था। हां, एकमुलुकजरूर होता था और होती थी माथे पर लगाने को उस मुलुक कीमाटी। मुलुक का क्षेत्रफल चालीस बीघे से लेकर चार कोस तक का होता था। जय हो गांधी बाबा की, जिन्होंने 20 वींशताब्दी के 21 वें साल में भारतवासियों की आंखें खोलीं कि झांसी देश नहीं है। यहां अंग्रेजों को भी साधुवाद देनापड़ेगा कि अपने स्वार्थ में ही सही, कोने-कोने पर निगाह रखने को प्रशासनिक व्यवस्था कायम करने के लियेउन्होंने एक महादेश को राष्ट्र का जामा पहनाया।

यह सोच कि 1857 कासंग्रामभारत को अंग्रेजों की गुलामी से निजात दिलाने के लिए हुआ था, तो यह बातआर्यावर्तनाम के किसी पौराणिक देश, जिसमें पुष्पक विमान उड़ा करते थे, मिसाइल छोड़ी जाती थीं, कोई राजाहजार पुत्रों का बाप हुआ करता था, कोई ऋषि पूरे समुद्र का जल पी जाया करता था, जैसी महिमाओं कासामूहिक गान करने वालों और ईश्वर नाम की किसी अज्ञात और अशरीरी ताकत से हमेशा डरे रहने वालों औरपत्थर के प्रति आस्था पालने वालों के लिए काफी मुफीद बैठती है। उस पर केतन मेहता ने आमिर खान को मंगलपांडे बना कर 1857 के भोथरे रोमांच को और रंगीन चमक-दमक वाला बना दिया। ‘ 10-10

लंदन में इन दिनों एक व्यक्ति गुपचुप एक ऐसे सिद्धांत पर काम कर रहा है, जिसके नाम से ही हर कोई दूर भागताहै और भागना चाहता है, वह है वास्तविक्ता का सिद्धांत। यानी जो है उसे बिना आवरण, बिना आडम्बर के बेलौस, जस का तस स्वीकार करना। अब अगर हम इस सिद्धांत के जरिये द्वापर काल से शुरू कर सन् 1857 के मंगल पांडेऔर इन पांच-छह हजार सालों के दौरान इस देव भूमि पर जन्मींराष्ट्रभक्तविभूतियों के क्रियाकलाप पर नजरडालें, तो सामने जो आएगा उसे स्वीकार करने के लिए दिल पर पत्थर रखने की जरूरत पड़ सकती है।

1857 में हुए प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (सावरकर ने अपनी किताब का यही नाम दिया है) के कई लड़ाकों केनाम इतिहास में दर्ज हो चुके हैं, जो आज भी बड़ी शिद्दत से याद किये जाते हैं। मंगल पांडे के अलावा इनमें प्रमुख हैंअंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर, नाना साहब पेशवा, रानी लक्ष्मीबाई, कुंवर सिंह, तांत्या टोपे, बेगमहजरत महल, जनरल बख्त खान आदि आदि। और कम्पनी की कई ब्रिगेड में शामिल लाल-नीली धारियों वालीवर्दी डाटे दो लाख छब्बीस हजार देशी फौज के रहते ऐसा नहीं था कि कुछ हजार अंग्रेज नब्बे साल पहले ही यह देशछोड़ कर चले जाते।

लेकिन जब लड़ाई झांसी नाम केमुलुकके लिए होगी, कुछ हजार पाउंड की सालाना पेंशन के लिए होगी, कारतूसोंमें गाय या सूअर की चर्बी के लिए होगी और दिल्ली के अस्सी साल के बादशाह की कमर में कहीं से तलाश करजबरन बांधी गयी तलवार से होगी, दिल्ली की लड़ाई हारने के बाद जिसे पठान जनरल बख्त खां के साथ लालकिलेसे बच कर निकलना नहीं वरन् अंगरेजों के हाथ पड़ना मंजूर था, आरा के जमींदार कुंवर सिंह की गोते खा रहीजमींदारी के लिए और जंगलों में छुप कर रहने की मजबूरी से होगी, उस अवध की सत्ता के लिए होगी, जिसकानवाब बदइंतजामी के चलते कलकत्ता के मटियाबुर्ज में नजरबंद हो, दिल्ली से अंग्रेजों को भगाने के बाद देशी फौजका खाना बनाने के लिये जल रहे अलाव ऊंची-नीची जातियों में बंटे हों, तो इसे भारत का पहला स्वतंत्रता संग्रामकह कर हम केवल खुशफहमी ही पाल सकते हैं, बल्कि इस खुशफहमी में हम जिये भी जा रहे हैं।

सावरकर के मुताबिक अगर मंगल पांडे ने कारतूस को मुद्दा बना कर शहीद होने की जल्दबाजी की होती औरमेरठ में तै तिथि से बीस दिन पहले बग़ावत शुरू हो जाती तो यह लड़ाई बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से लड़ी जानी थीऔर विजय पक्की थी। उन्होंने इसमें आर्यसमाज के प्रवर्तक ऋषि दयानंद का भी महत्वपूर्ण योगदान दर्शाया है, किउन्होंने कमल के फूल और रोटी के जरिये देश भर के राजाओं का अंग्रेजों के खिलाफ इस लड़ाई में शामिल होने काआह्वान किया था। चलिये मान लिया, लेकिन यह उससे भी बड़ा सच है कि इसआजादी की लड़ाईमें देश के बहुतछोटे से हिस्से ने भाग लिया था। उत्तर में हिमालय, पश्चिम में अफगानिस्तान, पूरब में बर्मा और दक्षिण में श्रीलंकावाले तब के भारत में लखनऊ से दिल्ली और लखनऊ से आरा और मध्य भारत का बहुत छोटा हिस्सा ही इसगुबारमें शामिल थे।

कुल मिला कर इसक्रांतिको थोड़ा-बहुत लखनऊ और दिल्ली के बीच की पांच सौ किलोमीटर की पट्टी में बसेमुसलमानों ने ही ढोया था क्योंकि इस देश की केन्द्रीय सत्ता अंग्रेजों ने उन्हीं से छीनी थी। कड़वा सच यह भी है किअंग्रेजों के पैर इस देश में जमाने में मदद करने वाले हिंदू बहुत बड़ी संख्या में थे और वह इसलिए क्योंकिमुसलमानों की आठ सौ साल की गुलामी उन्हें अखर रही थी। खुद नहीं हटा पाए तो अंगरेज ही सही, जिसका उन्हेंभरपूर पारितोषिक भी मिला।

उस समय की दो महान लड़ाकू जातियों राजस्थान के राजपूत और पंजाब के जाट सिख शासकों ने तो अपनीजनता की इच्छा का गला घोंट कर इस कथित स्वतंत्रता संग्राम की गन्ध और गर्द तक अपने इलाके में नहीं घुसनेदी...... क्योंकि शहंशाह अकबर अपने जीते जी राजपूत राजाओं को आगरा के मुगल दरबार में हर वक्त कमरझुकाये रहने की आदत लगा गया था, या शाही खानदान की औरतों के महलों की रखवाली करने का काम सौंप गयाथा (चौकीदारी का यह काम जयपुर के राणा संवाई जयसिंह, बुन्देला लोक गीतों के नायक वीर छत्रसाल और राठौरोंके महाराजा जसवंत सिंह ने शाहजहां और औरंगजेब के जमाने में बखूबी किया) अंग्रेजों और हिन्दू-सिख राजाओंका यह हनीमून सन् 1947 के बाद तक बगैर बाधा के चलता रहा।

राजपूत राजाओं ने तो वैसे भी अंग्रेजों के खिलाफ कभी तलवार उठायी ही नहीं। सच तो यह है कि उनकी तलवारका रहा-सहा पानी अकबर के समय ही सूख चुका था। बचे सिख, तो महाराजा रणजीत सिंह की मौत के बाद पंजाबको हथियाने के कम्पनी के अभियानों में देशी सैनिकों के खुल कर हिस्सा लेने से उनके दिलों मेंपूरबियोंसे बदलालेने की सोच ज्यादा प्रबल थी। और औरंगजेब को थर्रा देने वाले मराठा, पेशवा बाजीराव प्रथम के मरते ही किसकासाथ दें-किसका नहीं के कन्फ्यूजन में आपस में ही लड़-भिड़ कर तबाह हो गए, जबकि 18वीं सदी के अंतिम 20 सालों में अगर हैदरअली या टीपू सुल्तान को केवल मरहठों की मदद मिल जाती तो अंग्रेज कब का भारत छोड़ करभाग गये होते। या 1857 में केवल ग्वालियर के सिंधिया ने ही आंखें तरेर दी होतीं तो अंग्रेजों की खैर नहीं थी।

यहां से आगे बढ़ने से पहले हम ईसा के जन्म से करीब डेढ़ शताब्दी पहले फलस्तीन में लड़े गये एक ऐसे युद्ध परनजर जरूर डालें, जिससे भारत की उस समय की और उसके हजार साल बाद तक की वे स्थितियां स्पष्ट हो जाएंगी, जो बड़ी आसानी से किसी देश को गुलाम बनाती हैं। फलस्तीन में किस तरह 30 साल तक यहूदी किसानों ने अपनेबच्चों और औरतों को साथ रख छुरे और भालों के बल पर गांव-गांव, घने जंगलों, रेगिस्तानों, बर्फीले पर्वतों, समुद्रके किनारे कभी एकजुट हो, तो कभी तितर-बितर हो कर लड़ाई लड़ी थी। दुश्मन था उनके देश पर कब्जा जमानेवाला शक्तिशाली यूनानी साम्राज्य, जिसके साथ मिल कर फलस्तीन को उजाड़ने में लगे हुए थे सीरिया के राजाऔर उसके सैनिक। यहूदी किसान 30 साल लड़ सके और सफल हो सके तो इसलिए कि उनका समाज ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं और आगे-पीछे एक समान था, जिसमें आस्था तो थी, लेकिन कैसा भी अंध-विश्वास नहीं था, कोईब्राहमण था कोई दलित। पुरोहित पूजनीय था, लेकिन उसके साथ, यहां तक कि उसकी थाली में कैसा भी कर्मकरने वाला व्यक्ति बैठ कर खा सकता था, वह किसी के भी झूठे गिलास से पानी के या शराब के दो घूंट भर सकताथा। उनका सबसे बड़ा पुरोहित भी बैठ कर या दान में मिले धन से जीवन यापन नहीं करता था। वह खेत जोतता थाऔर हाड़ तोड़ मेहनत करता था। समाज में सब को सब कुछ कहने का हक दिया हुआ था। घर, परिवार और समाजमें औरतों को बराबर के अधिकार थे। लड़ाई में शामिल हर व्यक्ति सेनानायक था और हर व्यक्ति सैनिक। हर किसीको तर्क-वितर्क करने का पूरा अधिकार था।

आइये, अब हम काफी पीछे लौट कर कृष्ण के द्वापर युग का हल्का सा जायजा लें, जिससे पता चलता है कि पांचहजार साल पहले भी इस देश के राजा एक-दूसरे की ईंट से ईंट बजाने के लिये क्या कुछ नहीं कर गुजरते थे औरतब का चला यह सिलसिला आगे के हजारों साल बदस्तूर जारी रहा। कृष्ण के हाथों कंस के मारे जाने और मथुराकी गद्दी पर कैद कर रखे गये उसके पिता उग्रसेन के बैठने से मगध का प्रतापी सम्राट जरासंध बुरी तरह बौखलागया क्योंकि कंस उसके महासंघ का प्रमुख स्तम्भ था। कृष्ण को नेस्तनाबूद करने के लिये जरासंध को अपनासाथ देने वाले राजाओं की भीड़ कम लगी और उसने मध्य एशियायी कबीले के आततायी कालयवन को न्योताभेज, मथुरा पर आक्रमण कर दिया। कृष्ण ने आनन-फानन में सारे मथुरावासियों को हजारों मील दूर द्वारकाभिजवाया। और फिर कैसे उन्होंने जरासंध की साजिश को विफल किया, और कैसे कालयवन को मारा-यह एकलम्बी गाथा है।


उसके बाद काल का पहिया हजारों साल बाद कर रुकता है जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़ियां करती हैं बसेरा - वो भारत देश है मेरा..... पर। यह उस बम्बइया फिल्म का गान है, जिसमें पोरस ने सिकन्दर से लोहा लिया था।इसी फिल्म में युद्ध जीतने के बाद सिकन्दर बने दारासिंह ने पंजाबी लहजे में पूछा-बताओ तुम्हारे साथ कैसाव्यवहार किया जाए तो जंजीरों में बंधे पृथ्वीराज कपूर का पेशावरी लहजे में कड़कड़ाता जवाब था-जो एक राजादूसरे राजा के साथ करता है। ईसा से 326 साल पहले के भारत की पश्चिमी सीमा पर झेलम नदी के इस किनारे, जहां राजा पुरुषोत्तम (पोरस) की जागीरदारी थी, ईरान को जीतने के बाद सिकन्दर ने इसी रास्ते भारत में घुसनाचाहा, जिसका पोरस ने प्रतिरोध किया। लेकिन अकेले दम। उसकी मदद को इस देश का एक भी राजा आगे नहींआया। पहले तो सहोदर आम्भि ने ही विश्वासघात किया, जिसका नाम सिकन्दर को न्योतने में लिया जाता है।फिर चूंकि सिकन्दर ने दूर-दराज सीमा प्रांत के राजा पर हमला किया था, इसलिये मगध सम्राट महापद्मनंद या देशके अन्य महान राजाओं की जेब से क्या जा रहा था या उन पर कौन सी आफत आनी थी, इस सोच के साथ सबमस्ती की नींद सोते रहे। झेलम नदी के किनारे सिकन्दर का सामना करने को रह गया अकेला पोरस। सिकन्दरका सामना करने के लिये पोरस के पास फौज-फाटा कम नहीं था, दो सौ जंगी हाथी भी थे। भीषण बरसात की रातमें जब पोरस को कतई उम्मीद नहीं थी, सिकन्दर के घोड़ों ने उफनाती झेलम में कदम रखे और निश्चिंत हो चलीपोरस की फौज पर आक्रमण कर दिया। सबसे पहले हाथियों को ही निशाना बनाया और पगलाए हाथियों ने अपनीही सेना को रौंदना शुरू कर दिया। यह युद्ध जीत कर सिकन्दर दो सौ मील दूर बह रही गंगा को पार कर पूरे भारतकी धूल अपने घोड़े के खुर से उड़ाने की फिराक में था, लेकिन उसके सेनानायकों और सैनिकों ने वापस लौटने कोबगावत कर दी और सिकन्दर पंजाब से ही लौट लिया। अगर तब भारत उसके चंगुल में फंस जाता तो हो सकता हैकि आज भारत के बड़े हिस्से में यूनानी भाषा भी बोली जा रही होती। औलादें तो कई घूम रहीं हैं।

(यहाँ पर हाथी नाम के उस विशालकाय जीव का जिक्र भी कर लिया जाए, जो यजमान का इहलोक सुधारने औरपरलोक को स्वर्गमय बनाने वालों की आध्यामिक इच्छा के चलते हिन्दुस्तानी राजाओं की सेना का लम्बे समयतक महत्वपूर्ण अंग रहा। कलयुगी राजाओं के दिमाग में यही भरा गया कि हाथी देवताओं के राजा इंद्र के वाहकऐरावत का अवतार है, और राजा का स्थान इंद्र जितना ही ऊंचा है। घोड़ा तो मलेच्छों की सवारी है। इस कारण आगेहुए कई बाहरी आक्रमणों के सामने भारत को मुंह की इसलिये खानी पड़ी क्योंकि हाथी के हौदे पर सोने के छत्र केसाये में अपना झंडा फहराये बैठा राजा दुश्मन का तीर खा जाता, झंडा झुक जाता और राजा को ओंधा पड़ा देख जीतके कगार पर खड़ी उसकी सेना मैदान छोड़ देती।)

फिर स्थापित हुआ मौर्य साम्राज्य, जिसके प्रताप से कुछ सैंकड़ा साल बाहरी आक्रमणों से बचा रहा भारत। वैसे देशके अंदर आपस में ही भीषण खून-खराबा होता रहा और जब सम्राट अशोक ने कलिंग विजय के दौरान एक बार मेंही लाखों गर्दनें कटवा दीं, और फिर वह अहिंसक बन बौद्ध धर्म की शरण में चला गया। उसके बाद शुरू हुआ ब्राहमणसमाज और बौद्धों के बीच हजार साल तक चलने वाला संघर्ष क्योंकि दोनों की जीभ को सत्ता से फायदा उठाने कास्वाद लग चुका था। इस संघर्ष में जिस तरह कदम-कदम पर देश के साथ विश्वासघात किया गया, उसके चलते हीभारत अगले एक हजार साल तक के लिये गुलाम बना।

मौर्य वंश के अंतिम दिनों में बाहर से शक और कुषाण आए, जो यहीं के हो कर रह गये। फिर गुप्त साम्राज्य कास्वर्ण युग आया, जो एक सौ साल चला। तभी मध्य एशिया के हूणों के ताबड़तोड़ हमलों ने गुप्त साम्राज्य कोतहस-नहस करना शुरू कर दिया। यहीं से प्रारम्भ होती हैं ब्राह्मणवादी व्यवस्था की साजिशें।

ब्राहमण समाज सम्राट अशोक के समय में शुरू हुए बौद्धों के बढ़ाव से बुरी तरह बौखलाया हुआ था। क्योंकि इसकेचलते उसकी जीविका के साधनों पर खतरा मंडराने लगा था। ईश्वर प्रदत्त जाति-वर्ण व्यवस्था, देवी-देवताओं काभय और नरक-स्वर्ग की अवधारणा गढ़ ब्राहमणों ने एक ऐसी व्यवस्था की बुनियाद बुद्ध के जन्म से काफी पहलेही डाल दी थी, जिसमें अगले हजारों साल तक पूरे हिन्दू समाज को अपने शिकंजे में जकड़े रखने का जबरदस्तमाद्दा था, पर जिसमें राष्ट्र कहीं नहीं था। बौद्धों का समूल नाश ही ब्राहमणों का एकमात्र उद्देश्य था और इसके लियेइस दौरान जितनी विदेशी जातियों ने भारत पर हमला किया, उन्हें किसी किसी रूप में ब्राहमणों का आशीर्वादमिला। बदले में आगे चलकर बौद्धों ने भी यही किया। बौद्धों को मटियामेट करने में पूरी मदद पहुंचाने के लियेब्राहमण गुप्त राजाओं से निराश हो चुके थे, सो हूण सेनानायकों मिहिरकुल और फिर तोमरमाण की संतानों से मिलवे बौद्धों को खत्म करने की जुगाड़ में लग गये। इससे पहले मौर्य राजा बृहद्रथ और कुषाण वंश के महाप्रतापी सम्राटकनिष्क को तो खुद उनके ब्राहमण मंत्री ही गला दबा कर परलोक भेज चुके थे, क्योंकि वे दोनों बौद्ध थे। ब्राहमणों नेजंगली हूणों का कायाकल्प किया और उन्हें राजपूत शब्द से सुशोभित किया।

उसके बाद बौद्ध अनुयायी सम्राट हर्षवर्धन के समय को छोड़ अगले दो सौ साल ब्राहमणों का समय हूणों को अपनेमनमुआफिक बनाते बीता। सातवीं शताब्दी के मध्य में जब मोहम्मद साहब अरब धरती पर इस्लाम का प्रचारकर रहे थे, उत्तर भारत का एक बड़ा हिस्सा राजपूत राजाओं के आगोश में चुका था और बौद्धधर्म विहारों मेंसिमटता जा रहा था। बौद्ध भिक्षुओं की हत्या का दौर तो महात्मा बुद्ध के रहते ही शुरू हो चुका था, राजपूतों के पैरजमाने के साथ ही उन पर कहर बरपना शुरू हो गया। इसका बदला बौद्धों ने इस्लाम का प्रचार कर रहे अरबआक्रमणकारियों का साथ दे कर लिया। हालांकि हजारों बौद्ध फिर से हिन्दू धर्म में आने को तैयार थे, लेकिन उसदरवाजे पर ब्राहमणों ने ताले जड़ दिये थे। इस्लाम की शुरुआत में ही इस रार का खामियाजा उठाना पड़ा सिंध केराजा दाहिर को। जब खलीफा के आदेश पर उसके भतीजे मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला किया तो उसेबौद्धों का साथ मिला। दाहिर मारा गया और सिंध अरबों के हाथों में चला गया, जिससे अफगानिस्तान से लेकरपंजाब तक का हिस्सा विदेशियों के बेरोकटोक घुसने का रास्ता बन गया। कभी यही इलाका बौद्ध धर्म का गढ़ था।ब्राहमणों से दुश्मनाई के चलते बौद्धों ने आक्रमणकारियों का कोई प्रतिकार कर उनका स्वागत ही किया।चूंकिब्राहमणों के लिये बौद्ध मलेच्छ थे, हिन्दु धर्म में उनकी वापसी असंभव थी, जिसका खामियाजा करीब एक हजारसाल पहले कश्मीर को भुगतना पड़ा।

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