सोमवार, 28 मार्च 2011

जाइए आप कहाँ जाएँगे


ओ पी नैयर का आज ना तो जन्मदिवस है ना मरण दिवस.....बस ऐसे ही......हो तो संयोग समझें ...

राजीव मित्तल

मरने से पहले के तीस साल या बेकार हो जाने के बाद के तीस साल-कैसा भी हिसाब लगा लिया जाए तो हाथ कुछ नहीं लगना ओपी नैयर को लेकर। हां, टीवी पर सा रे गा मा पा कार्यक्रम में अक्सर दिखायी दिये जज के रूप में। प्रोग्राम पेश करने वाले सोनू निगम उनके पैर भी छुआ करते थे। बस, इतना ही भर रह गये थे वह।

साठ के दशक के उस दौर में, जब दिलीप कुमार की त्रासदी नुमा या उन जैसी ढेरों फिल्में सिर पर सवार थीं, उन फिल्मों के गीत माथे पर हाथ रख आकाश को वीरान आंखों से निहारते गुनगुनाये जा रहे थे, कल्पना में किसी साड़ी या धोती का पल्लू झूलता नजर आता था, तब ओपी नैयर का जीवंत और चिरयुवा संगीत प्रेम की नयी परिभाषा गढ़ रहा था। जिसमें न रातें काली थीं, न आसमान पर छायी बदली आंखों से बरस रही थी, न राह तकती प्रेमिका थी, न प्रेमी का विरहगान था। उस परिभाषा में पहाड़ थे, जंगल थे, हरियाली थी, कूदते - फांदते झरने थे, विक्टोरिया पर किसी हसीना के साथ इठलाते जॉनीवाकर थे, हंसते-खिलखिलाते गुरुदत्त थे, मधुबाला का मद था और था नाइट क्लबों का मदहोश कर देने वाला वातावरण।

शमशाद बेगम, गीता दत्त और फिर आशा भोंसले - ये वे तीन आवाजें उनके जादू के पिटारे में थीं, जिन्हें गुंजाने के लिये खुल जा सिम सिम जैसी सिफत वाली बांसुरी या क्लैरिनेट, सारंगी या गिटार, वायलिन या मेंडोलिन या पियानो के की-बोर्ड को छेड़ना भर होता था। फिर तो जैसे जिप्सियों वाला उल्लास जमाने भर पर छा जाया करता था। ओपी नैयर किस कदर नैसर्गिक थे, इसका पता चलता है सीएच आत्मा के गाये ‘प्रीतम आन मिलो’ गीत से। यह गाना किसी फिल्म के लिये तैयार नहीं किया गया था, पर बरसों बाद उसका इस्तेमाल गुरुदत्त की फिल्म मिस्टर एंड मिसेज 55 में हुआ। उसी फिल्म में इस गाने को गीतादत्त ने जब गया, तो गीत कुलाचे भरता न जाने किस ऊंचाई तक पहुंच गया।

गीतादत्त के खिलंदड़े अंदाज को रुमानियत और शोखी में बदलने का काम वैसे तो सचिन देव बर्मन ने किया था, लेकिन पूर्णता तक पहुंचाया ओंकार प्रसाद नैयर ने। 1952 में आसमान फिल्म से शुरू हुई उनकी स्वरों की यात्रा में जब गुरुदत्त का दखल हुआ तो नैयर ने वास्तव में आकाश को ही चूम लिया। प्यासा और कागज के फूल जैसे क्लासिक देने से पहले गुरुदत्त की हल्के-फुल्के अंदाज वाली फिल्मों आर-पार, सीआईडी और मिस्टर एंड मिसेज 55 से ओपी नैयर ने अपने झंडे गाड़ दिये थे।

सीआईडी से होते हुए नैयर के संगीत का अश्वमेघ सत्तर के दशक में एक मुसाफिर एक हसीना तक झूमते-झुमाते पहुंचा। नैयर की ये दो फिल्में रिद्म के मामले में समय की सारी सीमाएं तोड़ने वाली रही हैं। रिद्म के जरिये रुमानियत का झंझावात-इन दो फिल्मों से बेहतर उदाहरण और कोई नहीं हो सकता। सीआईडी में गीतादत्त की आवाज का जलवा था, तो एक मुसाफिर...में छाया हुआ था आशा की आवाज का मद। शमशाद बेगम से तो 1970 तक अपनी करीब-करीब हर फिल्म में नैयर ने कोई न कोई गीत गवाया और उनकी मजलिसी ठनकती आवाज में शोखी का रंग मिला कर संगीत प्रेमियों को झुमा देने वाला रस बरसाया।

1956 में प्यासा फिल्म से गुरुदत्त ने अपना अंदाज बदला और नैयर से उनका साथ छूट गया, लेकिन आखिरी (जो उनके बगैर बनी) फिल्म बहारें फिर भी आएंगी में नैयर का ही संगीत था। 1958 में हावड़ा ब्रिज के बाद गीता दत्त का भी साथ छूट गया। लेकिन नैयर पूरे दम-खम से डटे रहे। सत्तर के दशक की शुरुआत में नैयर ने अपनी नयी पारी शुरू की। पहले से ज्यादा उमंगमय और तंरगमय। इस बार उनके साथ थे फिल्मकार नासिर हुसैन।

इसी दौर में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के धमाकेदार प्रवेश करने तक हिंदी फिल्मों का संगीत खास तौर पर नौशाद, एसडी बर्मन, मदन मोहन और शंकर-जयकिशन के इर्द-गिर्द ही ठहरा हुआ था, उस चक्रव्यूह में घुस कर अपनी पैठ बनायी थी नैयर ने।

अब समय आया हुसैन-नैयर-आशा के धमाल का, जो करीब 10 साल तक चला। 1973 में फिल्म प्राण जाए पर वचन न जाए नैयर की आखिरी यादगार फिल्म है। 1993 में फिल्म जिद के बाद यह अनोखा संगीतकार गाहे-बगाहे दिखने को मजबूर हो गया।

ओपी नैयर वह शख्स है, जिसने लता मंगेशकर से गवाये बिना, संगीत की कैसी भी विधिवत् शिक्षा लिये बिना 15 साल तक अपनी पताका फहरायी। उस लता के बिना, जिसका साथ छूट जाने के बाद सी. राम चन्द्र जैसा आला दर्जे का संगीतकार अपने संगीत की छाया मात्र रह गया और महा प्रतापी शंकर (जय किशन के जोड़ीदार ) कहीं के नहीं रहे। और बर्मन दा ने घुटने टेक दिए। उस लता को नैयर साहब ने नकार दिया और जगह तैयार की।

बाद में आशा ने भले ही नैयर के उस योगदान को नकार दिया, जिसकी वजह से फिल्म गायिकी में उनके पैर मजबूती से जमे, लेकिन राज कुमार संतोषी ने सलमान-आमिर वाली फिल्म अंदाज अपना-अपना में ओपी नैयर की पुरानी धुनें इस्तेमाल कर अपने तरीके से उनकी काबलियत का सम्मान जरूर किया और आज की पीढ़ी को घोड़े की उस टाप का अहसास कराया, जिसे सुन सारे जमाने की धड़कन हवा से बात करने लगती थी।

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