शनिवार, 30 अप्रैल 2011

लखनऊ टु चंडीगढ़ वाया जलंधर








राजीव मित्तल

चंडीगढ़....मार्च शुरू हो चुका था.....ठंड से सुरसुराता......17 सेक्टर के बस अड्डे पर अम्बाला की बस का इंतजार....वहां से नीलगिरी एक्सप्रेस से शाम तक......लखनऊ से बुलऊआ जो आया है....तभी एक बस आयी.....

करीब सौ साल पहले रेलगाड़ी के एक कोच से किसी स्टेशन का नाम सुन वो उतर पड़ा था......
यह बस जलंधर जा रही थी.......चलो चला जाए.....कंधे पर बैग ....टिकट लिया....बैठ गया.....बस चल पड़ी.....और अम्बाला!! तुमको तो लखनऊ जाना है न......रात को जलंधर से पकड़ लेंगे....


बस के अंदर गर्माहट मिलते ही पलकें भारी........तुम......हां तुमसे तो मिलने को ही तो बैठा हूं जलंधर जाने वाली बस में.....नये साल पर तुम्हारा कार्ड मिला था......कि तुम चंड़ीगढ़ से जलंधर चली गयीं....नीचे एक लाइन.....आना जरूर.....इतने साल चंडीगढ़ में रहने पर तुमसे कितनी बार मिलना हुआ......बताओ तो.....तुम कब चली गयीं इसका भी चार महीने बाद पता चला......

पांच साल पहले जनसत्ता में इंटरव्यू देते रात हो गयी तो एक्सप्रेस प्रबंधन ने हम चार को पंचायत भवन ठहरा दिया....कि अब लेटर लेकर ही जाएं......सुबह उठे तो सामने ही 17 सेक्टर...तभी दिमाग में कुछ ठुनका...तुम्हारा बैंक भी तो यहीं-कहीं है....साथियों को ऑफिस में मिलने की कह तुम्हारी तलाश में निकल पड़ा....बहुत आसानी से मिल गयी स्टेट बैंक ऑफ पटियाला की वो ब्रांच....तुमसे.... मिलना..... हर बार की तरह धड़कनें तेज.....अंदर पूछा... ...जिस तरफ इशारा..नजर आ गयीं तुम...लेजर बुक में आंखें गढ़ाए..हौले से सामने जा खड़ा हुआ ....तुमने देखा.....चहक उठीं एक दम......तुम.. लखनऊ से चंडीगढ़ में!!!! हां .....जनसत्ता में आ गया हूं......कुछ पल दोनों खामोश .....कई सारी बात कर डालने का अनोखा लेकिन आजमाया हुआ तरीका....चाय तो पियोगे न......ज्वायन करो....तो हमारे यहां आ जाना......अभी तो एक साल अकेले ही रहना है...देखता हूं....अच्छा हमारा पता लिखो.....

चलो प्रीत से मिलवाऊं...पास ही में उसी बैंक की दूसरी ब्रांच.....मिल के खुश हुए ....आप हमारे घर ही ठहरना.....वहां से निकल ऑफिस ...लेटर लेकर बस से दिल्ली....फिर उसी रात लखनऊ......दस दिन बाद फिर चंडीगढ़......अपने आने का बताया फोन पर......तुम कल आ जाओ.....खाना साथ खाएंगे.....नॉनवेज! नहीं...ठीक है...कल शाम को वेट करेंगे....दूसरे दिन शाम को सुशील को पकड़ा....यार जरा पहुंचा दे.....चल जल्दी कर....शाम गहराते ही डबल सवारी पर रोक लग जाती है यहां....सही नम्बर के सामने रुका स्कूटर...बस दो मिनट ठहर...फिर चले जाना...मकान में घुसा...किसी और का निकला....यार नम्बर तो यही है.....चल ए बी सी.. सब में देख लेते हैं.... अभी समय है...

एक घंटे की तलाश के बाद भी सड़क पर ही.....अब चल यार...पुलिस वाले परेशान करेंगे.....वापस ऑफिस .....दूसरे दिन फोन मिलाया...तुम बम की तरह फटीं....पहली बार इतनी नाराज...कल तुम्हारे लिये कितना कुछ बनाया....प्रीत भी लगे रहे.....तुम थे कहां...सारा फ्रिज में पड़ा है ....क्या मैं इतना खाता हूँ ...इससे क्या तुमको ....मैं फलाने सेक्टर में तुम्हारा घर तलाशता रहा.....मैने तुमको वो नहीं वो सेक्टर लिखवाया था.....मारे गये....कागज निकाला.....बेवकूफ अपनी राइटिंग सुधार....36 को 33 समझ तलाशता रहा कल सारी शाम......भूखे पेट सोना पड़ा.......

पांच साल में कुल जमा चार मुलाकात....यह पांचवी.....अगर हुई तो....

जलंधर आ गया लगता है.....हां......उतर कर पता किया तो नजदीक ही थी वो जगह...पैदल ही पहुंच गया....नीचे पता किया पहली मंजिल पर फ्लैट.......ग्यारह बज चुके थे....धूप गरम.....इन दिनों तुम बैंक नहीं जा रहीं.....तुम दोनों ही का ट्रांसफर हो गया है न....जाने की तैयारी.....बाहर खिड़की से देखा.. तुम किचन में थीं...आवाज दी.....नजरें उठायीं.....अरे तुम.......आओ अंदर...बैठो आराम से....हां जी......तो क्या चल रहा है.....लिखना-पढ़ना...संगीत सब उसी तरह..कैसा है चंड़ीगढ़.....लखनऊ जा रहे हो......आज.....मेरे को तो बहुत दिन हो गए!......तुम एक दिन तो रुको ..इतने दिनों बाद मिले हो.....पहले कुछ खिलाओ...भूख लगी है...चाय भी ....अभी लो.....

प्रीत बम्बई जा चुके थे.....तभी बेटा स्कूल से आ गया.....पिछली मुलाकात में शतरंज खेली थी....आज क्रिकेट खेलने को नीचे पकड़ ले गया.....तुमने आवाज़ दी...ऊपर आए तो दोनों को डांट पड़ी......खाना लग चुका था.....टीवी पर कोई वनडे....पता नहीं तुम कब उठ कर चलीं गयीं......देखा॥ तुम नहीं हो.....तलाशा...सोती मिलीं तुम.....यह कोई बात होती है.....उठो........कुछ नया सुनाओ न...बहुत दिन हो गये.....उस समय अपने ऊपर हबीब वली मोहम्मद सवार था......फिर खामोशी ....अच्छा ...एक और...फिर चाय.....चलो तुमको अपनी फ्रेंड से मिलवाऊं........पैदल चलते रास्ते में बेटे ने जिद की.....आज रुक जाइये.....मम्मी रोको न इन्हें......बेटा हमारी तो सुन नहीं रहे......तुम्हीं रोको.....इतना कह रहा है तो रुक क्यों नहीं जाते......

अंधेरा हो चला था..काफी चलना पड़ा......फ्रेंड का घर......इनसे मिलो....ओहो...तो आप हैं.......कॉफी चलेगी न....बहुत प्यारी बेटी.....काबुली वाले की तरह झोली में डाल भागने का इरादा.....सोच कर मजे ले रहा..........ड्राइंगरूम में हल्का अंधेरा.......अब इनसे सुन लो जो सुनना हो..... दोपहर वाली गजलें.....लम्बा सन्नाटा......धीरे से कहा तुमसे ...ट्रेन देर रात को है.....स्टेशन तुम्हारे घर से दूर है.....कैसे जाऊंगा....गहरी सांस ले कर बोलीं तुम......तुम नहीं रुकोगे न....ठीक है....इसको को मनाओ . कार है...वो भी साथ में घर चली चलेगी.....खाना खा कर हम दोनों तुम्हें छोड़ आएंगे.....फ्रेंड सुन कर हंसी..रात्रि जागरण का इरादा है ...तो फिर एक गाना और.....ड्राइंगरूम से बाहर निकलने का रास्ता भूल दूसरे कमरे में घुस गया....जोरदार ठहाका...फ्रेंड बोली...तुम भी बिल्कुल ऐसा ही करती हो....

कार से घर.....सब चहक रहे....पहली बार तुम्हारे सामने इतना सहज.....खाना खाकर बैठे......एक बार फिर सुना दो न....जा कहियो उनसे नसीम-ए-सहर........ग्यारह बज गये.....अब चला जाए.....दोनों बच्चे घर में ही.....कार में .....तुम दोनों आगे....नहीं...तुम इनके बगल में बगल में बैठो...मैं पीछे बैठती हूं.....रात का सन्नाटा.....तेज ठंडी हवा.....तुम कोई ऐसा गाना सुनाओ...जिसे हम सब मिल कर गाएं......गाना गाते....खिलखिलाते-हंसते आ गया...जलंधर स्टेशन......फिर वोही खामोशी .......तुम्हारी तरफ देखा....बहुत उदास.....तुम्हारी फ्रेंड कुछ बोली.....हाथ हिलाया....और स्टेशन की तरफ मुड़ गया........

एक घंटे इंतजार करना था रेलगाड़ी का.....क्या करता....चलो यही सही.....

कोई हिसाब-किताब लगा कर तो नहीं चला था लेकिन हिसाब बारह घंटों का ही है लम्बी दूरी तय की थी तुम तक पहुंचने को समय की नाप-जोख हो तो बरसों की दूरी ठीक बारह घंटे बाद की रात जहां तुम मुझे छोड़ गयीं सब कुछ था चोंधियाने वाली रोशनी लोगबाग बेहिसाब शोर बेसलीका आवाजाही इन सबके बीच..मैं वीराने में गुम काठ सा मार गया था दिमाग में चल रहा उन बारह घंटों का हिसाब-किताब पहले चार घंटों का दूसरे चार घंटों का और हथेली से फिसल गये अंतिम चार घंटों का सबको अलग-अलग करता रहा कुरेद-कुरेद कर घंटों को मिनटों में मिनटों को पलों में सोचा...कुछ तो पता चलेगा क्या खोया क्या पाया हिसाब यही निकला लेकिन मैं जी चुका था उन बारह घंटों को

लखनऊ में तीसरे दिन तुम्हारा खत....विदा होते समय तुमने मेरी आंखों में झांका होगा.....उस बियाबान में गुम होने से पहले ही तुम चली गयीं....ऐसा ही कुछ था तुम्हारी कविता में.........

बुधवार, 27 अप्रैल 2011


रातें थीं चांदनी...मौसम पे थी बहार

राजीव मित्तल

मेरे पीछे घर में इतना सामान भर दिया गया कि प्रवेश करते ही दिल चीत्कार कर उठा......नीचे नहीं....अब पलंग पर सोना......यह काम वाली......यह खाना बनाने वाली........यह दूध वाला...अगले दिन दरवाजे पर ताला.....ऑफिस जाने को बोल दिया था......लेकिन कल! ......कल की कल देखी जाएगी.....दस बजे ही नर्मदा दर्शन को भेज बाइक पर ऑफिस ..रास्ते में फोन आया...तुम्हारा क्या करूं.....डांट खाना डॉ. साहब से....

ऑफिस में घुसते ही कुर्सी पर धड़ाम...जख्म कसकने लगा.....सबकी निगाहों में हाय वाला भाव.....अखबार की फाइल में किसी तरह दो घंटे निकाले.....मेल वगैरह देख वापस घर......तनावपूर्ण शांति......शाम तक सब ठीक....अगले दिन की तैयारी अभी से.....कल मीटिंग है कुछ देर के लिये जाना है.... जो मन में आए करो.......फोन पर पाठक जी......क्या यार....किसी के भी कंट्रोल में नहीं हो! मना किया था दस दिन बाइक मत चलाना.......

आॅफिस के खेल बदस्तूर.....सेंट्रल डेस्क इंचार्ज नीनी भी सस और धध के साथ .....हालांकि तीनों में ऑफिस के बाहर कुत्ता-बिल्ली वाले रिलेशन....नीनी ने पेज दिखाया....लीड......तेजी बच्चन का निधन.....किसी तरह दस तक गिनती गिनी....फट पड़ने से रोकने का फिल्मी फार्मूला....सस को बुलावा....सर, वो मुझे समाचार सम्पादक ही नहीं मानता..... आपके पास लेटर तो है ना....जी हां....उसे पीठ पर चिपका लीजिये.....

पता चला...मेरे पीछे लठ तक निकल आए थे....अब फैसला करने का वक्त....नईदुनिया ग्रुप के लिये ऐतिहासिक.......किसी को हटाना...वो भी समाचार सम्पादक और सिटी इंचार्ज को.....इंदौर फोन लगाया...दोनों कोर्ट चले जाएंगे.....हम ट्रांसफर करेंगे.....ठीक है.....एक सुबह विनीत जी कमरे में....हमेशा खुला रहने वाला दरवाजा बंद किया......मैं सिर्फ आपके लिये आया हूं.....जो करना है कर डालिये........दोनों को तबादलापत्र ......सोनी जी को जम कर झाड़...समाचार सम्पादक के लिये रांची से चंद्र प्रकाश श्रीवास्तव...अब उप समाचार सम्पादक को वापस बुलाना है, जो तनाव के चलते मेरठ चला गया था..

चौबीस घंटे में ही....नयी रंगत....नया माहौल.....कोई बंदिश नहीं.....बस.. अखबार ताजगी से भरपूर हो...न्यूज से कोई खिलवाड़ नहीं....सब काम समय पर ...मेट्रो डेस्क तो कमाल दिखा ही रही थी......अब धमाल भी...कार्टून को खासा महत्व .....कई महत्वपूर्ण खबरों के साथ फोटो की जगह.......इंदौर से आ गये चार कैमरे....रिपोर्टिंग कर रही वीरांगनाओं के लिये .....वैसे हर खबरची को इस्तेमाल की छूट....चारों फोटोग्राफरों का भी भरपूर योगदान....सुगम जाट का कलाकार रंग में आ गया और राजेश मालवीय का प्रोफेशनल टच....नेमा और दूसरा मेट्रो पर...

बारह फरवरी.....दिन में किसी समय दिल्ली से फोन....जितनी जल्दी हो सके आ जाओ...चंडीगढ़ प्रोजेक्ट की तैयारी जोरों पर....तुम्हारा नाम फाइनल...दिल कलाबाजी खा रहा...दिमाग ने धिक्कारा....और नईदुनिया का क्या होगा....ऐसे में चले जाओगे छोड़ कर...अहसान-फरामोश! दिल और दिमाग को साधा....नहीं जाना हिन्दुस्तान-विन्दुस्तान में......नाराज तो हुए......चलता है सब....

इस बीच ऑफिस के सामने ही चर्च कॉलोनी में नया घर...शानदार जगह.....अब बेटा साथ में इसलिये बंजारा जिंदगी खत्म....अकेले बाहर रहते पहली बार ढंग से गृहस्थी.....टीवी से लेकर तवा तक सब घर में......संगीत...योग...किताबें....अपूर्व संसार....

..जून लगते ही इंदौर.....मीटिंग से पहली रात रायपुर जीएम के साथ उज्जैन में महाकाल के दर्शन....इस नामाकूल को आस्था से जोड़ने में जी-जान से लगे हुए हैं....रात को इंदौर के होटल सया जी में डेरा.......तीन दिन की मीटिंग....लौटते में बॉस के साथ भोपाल.......साथ में एक सम्पादक और.....गाड़ी भाग रही....आगे बैठे बॉस ने पीछे मुड़ कर कहा..हर रोज आपका कोई न कोई नया रहस्य सामने आ रहा है....अमेज़िंग ...नईदुनिया में पहली बार................

बाबर..तुम्हें समरकंद नहीं जाना चाहिये था

भोपाल में तीन-चार घंटे रुक जबलपुर रवाना.....अगले सुबह ऑफिस .....अब सारे स्टाफ को उसकी मेहनत का फल देने का वक्त ......रात भर बैठ कर तैयार की अप्रेज़ल रिपोर्ट ..........एकाएक फिर वही फोन.....दिल्ली आ कर कम से कम मिल तो लो.....कुछ दिन में लखनऊ जा रहा हूं...वहीं से आऊंगा.....जल्दी प्रोग्राम बनाओ.....

चलते समय बॉस को दो लाइन...चंडीगढ़ का इनकार उनकी जानकारी में था......इस बार लखनऊ से दिल्ली भी जाऊंगा...सब बहुत याद कर रहे हैं....चिन्ता न करें...एक हफ्ते में लौट आऊंगा......लेकिन अपनी नींद..भूख-प्यास गायब....हिन्दुस्तान का शानदार पैकेज.....बड़ा नाम... अंतरंग माहौल...लेकिन उन सब भारी पड़ रहा नईदुनिया का अपन पर जबरदस्त विश्वास.....स्टाफ का लगाव.....और फिर जबलपुर.....!

लखनऊ पहुंच कर भी कोई चैन नहीं....दो दिन बाद कस्तूरबा गांधी मार्ग.....प्रमोद जी फौरन मृणाल जी के पास ले गये.....बहुत खुश.....अब मेरठ का प्रोजेक्ट आपके हवाले...पिछली बार का तो हम समझ सकते हैं....नया-नया अखबार था...अब नहीं जाने देंगे...जल्द आ जाइये...मेरठ में बहुत कुछ करना है आपको....मैं ऐसे छोड़ कर नहीं आऊंगा नईदुनिया.....जब तक सब तैयार न हो जाएं..आप अगस्त तक तो आ जाएंगे न!

लखनऊ से दिल्ली जाते समय मुरादाबाद में दो मिनट को ट्रेन रुकी..पूर्णिमा आ गयी थी स्टेशन....लखनऊ जाते समय भी रुकी...तब भी आयी वो....उन दो मिनिटों में फैसला कर लिया....मुरादाबाद के काम के लिये उसे मेरी बेहद जरूरत है.....मेरठ आना ही पड़ेगा...फैसले के बाद मन इतना भारी कि शाहजहांपुर निकलते ही बुखार आ गया.....

घर पहुंचते बुखार पूरी तरह सवार....सुबह बेहद कमजोरी...उसी में विनीत जी को सब लिख कर भेज दिया....विनय जी विदेश में थे.....अब जबलपुर के लिये.....स्टेशन पर ही विनीत जी का फोन...आपकी रजिस्ट्री मिली.....तीन बार पढ़ चुका...कुछ समझ में नहीं आ रहा..जबलपुर पहुंच रहा हूं.....रास्ते में तबियत और खराब.....राजीव उपाध्याय के साथ विक्टोरिया हॉस्पिटल.....न्यूमोनिया बताया......

फिर फोन.....राजीव जी, कुछ समझ में नहीं आ रहा.....अपना विकल्प बताएं.....मेरा कोई विकल्प नहीं....लेकिन जाना तो है ही....अभी स्टाफ में किसी को न बताएं....ठीक है...पर, आंखें-चेहरा सब उगल रहे....फिर भड़ास ने भी दे दिया...अब बताना ही होगा.....एक सुबह प्रधानसम्पादक आलोक जी का फोन....नाराज हैं क्या...मेरे ज्वायन करते ही छोड़ रहे हैं आप....क्या कहता......

जाने के दिन नजदीक आ रहे....इंदौर बिल्कुल खामोश.....स्टाफ के चेहरे पर दिन ब दिन बढ़ती मायूसी....कोई क्या पूछता.....मैं भी क्या बताता.......संदीप बहुत कम दिखता...कैबिन में भी नहीं आता ...कइयों की आंखें सूजी हुई.....इंदौर से ग्रुप एडिटर का आगमन कि सभी के सालाना इंक्रीमेंट में इतना इजाफा कैसे....स्पष्ट कह दिया...एक पैसा कम न हो....वे सबसे मिले..क्या टीम है आपकी....कह कर वापस इंदौर...

अपनी विदायी 17 जुलायी तय कर दी.....मीटिंग करना लाजिमी......लौट कर आऊंगा...कब...कह नहीं सकता.....यही बात विनीत जी को भी बता दी.. आखिरी रात 12 बजे एक होटल में सब इकट्ठा हुए.....आखिरी दिन सुबह 11 बजे से रात आठ बजे तक का समय कब बीत गया पता ही नहीं चला.....पांचों कब बाहर गयीं....कुछ लेने...एक नोटबुक भी....उसमें सभी ने कुछ कुछ लिखा..पूरा केबिन फूलों और उपहारों से भर गया...सभी के साथ कई फोटो.....दोपहर में घर.... अपने साथ ले जाने वाला सामान अलग किया...बेटे को कुछ दिन और रहना था....बाकी सामान वो ट्रक से भिजवाएगा.....कितना सामान जोड़ लिया था इस बार.......

शाम को अंतिम बार आॅफिस में.....ज्योति और शेली नहीं दिखीं....संदीप भी नहीं.....अपनी तीनों वीरांगनाओं से विदा ली...स्टेशन पर लगभग सभी.....कार्तिक नई-नवेली दुल्हन के साथ ..गाड़ी चलने को...तभी फोन.. सर. किस प्लेटफार्म पर हैं आप...तुम तीनों क्यों आ गयीं....देखा सीढ़ियां फलांदती आ रहीं..ट्रेन ने खिसकना शुरू कर दिया....बस....हवा में रहे गये हिलते हाथ......

नईदुनिया और जबलपुर को अलविदा....कैसे रहूं पाऊंगा मेरठ में...नागरथ चौक.....ऑफिस ...शहर.....घर ...बेतरह यादें......सड़क के पार गेट..अंदर.....बजरी......फिर सड़क, जो बाएं घूम कर फिर आगे से दाएं घूमती....आखिरी मकान की तीसरी मंजिल....पहला कमरा....जिसमें मंडला से मंगाए किसी जंगली लता के कुर्सी-सोफा-मेज.....उससे लगा कॉमन रूम...उसका एक दरवाजा बेटे के और दूसरा मेरे कमरे की तरफ....रात 11 बजे कई बार ऑफिस जाते समय यहां-वहां लेटे श्वानों को लखनऊ से मंगाये आटे के बिस्कुट खिलाना...फिर तीन-चार की टोली में उनका दूर तक साथ-साथ चलना......पांचों वीरांगनाएं तुमको कितना मानती हैं.....महीनों से तुम्हें खिलाने को कुछ न कुछ लातीं ....एक बजते ही कोई न कोई झांक लेता.......तुम नखरा दिखाते.. फिर सबको बुलाते....घंटी बजाते...सुदामा या प्रदीप या विकास.....प्लेट लगाओ...पानी लाओ....सबके टिफिन खुलते.....सबका कुछ न कुछ प्लेट में तुम्हारे सामने...कई बार मनोज या स्वदेश भी साथ में....कभी बाहर होते तो फोन...सर..आप कहां हैं...आपके लिये कुछ स्पेशल है आज .....हर हफ्ते चना और रामदाने के लड्डू संदीप के हवाले.....आधार ताल.....पहल....ज्ञान जी....पंकज स्वामी.....और फुरसत मिलते ही डॉ. पाठक पकड़ ले जाते मोका पिलाने कैफे कॉफी डे......और म्यूजिक इंडिया ऑनलाइन की स्वर लहरियां केबिन की दरारों से निकल पूरे हॉल में छा जातीं......याद करने को एक ही साल में इत्ता सारा ........

छह दिन बाद दिल्ली होते हुए मेरठ....रात नौ बजे ऑफिस ....फिर होटल टिम्बक टू....जहां न जाने कितनी रातें प्रोजेक्टर की रील चलती रही.......पूरी रात.......
सुबह जैसे ही चप्पलें पहनता... याद दिलाना शुरू कर देतीं जबलपुर की.......वहां पहुंचने के तीन दिन बाद ही अमित दास के साथ गया था खरीदने.......मोची से कई बार टंकवा कर अब भी चला रहा हूं.......

बाबर.... तुमने अंदीजान की छोटी रियासत छोड़ सेंट्रल एशिया की सबसे बड़ी सल्तनत समरकंद की सत्ता संभाली.....सात महीने बाद शैबानी खान की घेरेबंदी ने तुम्हें अंदीजान जाने लायक भी नहीं छोड़ा....तुम्हारा ही खासुलखास बेग उस पर कब्जा कर बैठ गया ...आखिर में समरंकद से जान बचा कर भागना पड़ा था तुम्हें भूखे पेट...फिर कहां-कहां नहीं भटके तुम...........

रविवार, 24 अप्रैल 2011

अखबार शुरू...साजिशें शुरू




बीस साल पुरानी दोस्ती पर चला कुल्हाड़ा

राजीव मित्तल

अखबार निकलते ही अपना हाल मदारी जैसा......हर समय...डुग...डुग....डुग....डुग.. ......पांच दिन बाद अपनी ही डुगडुगी पिट गयी......एक रात नर्मदा जैक्सन में खाना खाया जा रहा था.....फोन बोल उठा.......सर जी....आप इनसान तो भले हैं......पर सम्पादक दो कौड़ी के...पता नहीं और क्या-क्या..फोन पर ही दारू के भभके....भले आदमी की आवाज़ पहचान ली......सर जी, ज्यादा दिन टिक नहीं पाओगे जबलपुर में......शाम को किसी बात पर ऊंचा बोल दिया था जनाब को......

भाई ने इंदौर भी कई जगह फोन कर दिये.....दूसरे दिन विनीत जी ने तुरंत बाहर करने को कहा......कैबिन में बुलाया......रुआंसा चेहरा....आँखें झुकी हुईं ....शरीफ था....इस्तीफा देकर चला गया.....सारा खेल पता चला.....सिटी इंचार्ज ने पिला कर चढ़ा दिया था....विनीत जी को बोला.....मुझे इसकी जरूरत है...भले ही इसने मुझे क्या क्या बका.......आखिर वो मान गये और तीन दिन बाद रखने को बोला.....तो इस तरह खेला शुरू हो चुका था......किसी बाहर वाले को.... ऐसे सम्पादक को, जो किसी की न सुने......पानी को भी न पूछे...तुरंत शहर से विदा किया जाए......जबलपुर के कुछ और पत्रकार भी शामिल......लॉंचिंग वाली रात तीन बजे टीम में न रखे गये एक सज्जन का फोन था.....निकाल लिया अखबार......कहीं नहीं दिख रहा.....ऐसे ही निकालते रहना.......

कुछ ही दिन के अंदर सिटी इंचार्ज-समाचार सम्पादक (सस) की जोड़ी सम्पादकीय विभाग का वो भैंसा बन चुकी थी.......जिनके दूध में खीर सोनी जी के यहां पक रही थी। कारण..........सिटी चीफ को वो खबरें लगाने पर सख्त पाबंदी, जो सिर्फ उन्हें फायदा पहुंचा रहीं....और सस से यह कि..........आप अखबार के लिये रखे गये हैं न कि सम्पादक के लिये घर से खाना लाने या उसे घर से लाने और छोड़ने के लिये.......... अब दोनों खर-दूषण वाले रोल में..सोनी जी के मुंह से हरदम गिली..गिली..गिली की ध्वनि....सम्पादक तनावग्रस्त....पर... बाकी स्टाफ मुग्ध हुआ पड़ा उसकी बेपरवाह स्टाइल पर...इंदौर का पहला या फीचर पेज आते ही कचरे में डालने का आदेश.....अपना बनाओ....चाहे जैसा हो.....

मौसम बदलते ही सांसों की रफ्तार ऊलजलूल...अस्पताल के चक्कर ..दीवाली पर लखनऊ.....लौट कर चार महीने से बेवजह किराया खा रहे ग्वारीघाट वाले बंगलेनुमा मकान में प्रवेश......जिसमें एक हादसे के बाद कुछ दिन से चार सम्पादकीय साथी पनाह लिये हुए थे...एक कमरे में अपना डेरा.....हॉल इतना बड़ा कि रात को डेढ़ बजे काम खत्म कर हम पांचों तीन बजे तक क्रिकेट खेलते...एक शौक और पाल लिया.....घर से नागरथ चौक साढ़े चार किलोमीटर पैदल.....कैबिन में रोजाना मंत्री-सांसद-नेता-अफसर की चौगड्डी का एक न एक पत्ता मौजूद....इंदौर का विनम्र आग्रह.....प्लीज.. सबसे बना कर चलिये.....

दिसम्बर शुरू ....इंदौर में बैठक...ऐसा-वैसा- कैसा भी कोई लोहा पल्ले में नहीं.....फिर भी मनवा रहा.....इंदौर में ही अपनी अतड़ियां इतनी नीचे खिसक आयीं कि ऊपर जाने का नाम न लें.... फिर जबलपुर... दिन तो किसी तरह कट जाए .....रात को अतड़ियों की अठखेलियां शुरू......दस दिन झेला.....रात की नींद ऑफिस में......कई अस्त्रधारकों को दिखाया...सब तुरंत चीर-फाड़ को तैयार....होम्योपैथ कहे....मैं किस दिन काम आऊंगा......लेकिन किसी रात काम नहीं आया ससुरा...

एक गोधूलि वेला को सस और कार्टूनिस्ट टांग कर ले गये डॅक्टर डीयू पाठक के यहां.....भाई कुछ इस अंदाज में मुस्कुरा कर गले मिले...जैसे....बरसों का दोस्ताना .....जांच-पड़ताल की....कब आंख लड़ी थी हार्निया से....चंड़ीगढ़ 1987.....इस बीस साल पुराने दोस्त से छुटकारा पाने का वक्त आ गया है....नहीं तो.... दोनों साथ ही जाओगे...... ऑपरेशन .....अपने सारे स्वर्गवासी याद आ गये ...हां...अभी...इसी वक्त....जबलपुर हॉस्पिटल फोन कर रहा हूं.......आप भर्ती हो जाइये...सुबह चलाता हूं छुरी.....जबलपुर में कोई रिश्तेदार!..साइन करने होंगे न......न हो तो चला लेंगे काम....सस मिनमिनाया...भाभी जी को तो आने दें लखनऊ से ...एक दिन बाद कर दीजियेगा...ठीक है बुला लीजिये...वैसे कोई नहीं होगा तो सारा जबलपुर तो है ही......चलते समय अपनी लिखी किताब दी-यह कैसी विदाई-भ्रूण हत्या पर.....

सारे टेस्ट के बाद कमरे में.....एक घंटा बतिया कर सस और काटूर्निस्ट विदा......अनिल को छोड़ गये...हार्निया को अपने कटने का पता चला तो शुरू कर दिया कहर ढाना.....सब सोये पड़े...किसको जगाऊं...किताब हाथ में ली......लाजवाब......डेढ़ घंटे में हाहाकार मचाते खत्म कर दी......अभी बस दो ही बजे हैं...जोर-जोर से कराहने लगा..अनिल उठा....नर्स को बुलाऊं सर....सो जाओ....... अतड़ियों को ऊपर करने का प्रयास....पर...जैसे आमरण अनशन पर बैठी हों....हाय हाय करते छह बज गये... पाठक जी को फोन लगाया...जल्दी आइये ....मर जाऊंगा....डांट शुरू...रात को ही क्यों नहीं जगाया.....ओटी को बोलता हूं..कल तक नहीं रुकना....बहुत खराब स्थिति है....आठ बजे नर्स ने हरा लबादा चढ़ा दिया......स्ट्रेचर पर लद ....कर चले हम फिदा.......नींद के मारे बुरा हाल.....नीचे दिख गये डॉक्टर......उलाहना...क्यों झेला इतना दर्द......आइये....लेटिये.....चारों तरफ घेरे कई सारे भूत-प्रेत....मुंह पर पट्टी बांधे......या मेरे मौला.....तभी घुसी घप से सुईं........एक मिनट बाद सब दर्द गायब....आँखों की नींद सारे वजूद पर छा गयी....दस दिन की नींद पूरी करो बस......नश्तरों का ठंडा...ठंडा अहसास....आरी भी चल रही...तलवार भी...फिर ठोकापीटी....कुछ फुसफुसहाटें......कितना समय निकल गया....कुछ पता नहीं चला...

उठ जाइये...बहुत सो लिये.....देखिये मेज पर रखा है अपका हार्निया...गैंगरीन हो चला था.....बगैर अतड़ियों के काम चलाना पड़ता........एक प्लेट में हरा-लाल-नीला.....फिर स्ट्रेचर पर डाल बाहर....भीड़ खड़ी थी.....जाने-पहचाने चेहरे.....फिर नींद का झोंका....कमरे में बिस्तर पर........उस दिन जैसी सकून की नींद.....वल्लाह .....दवाई का असर खत्म होते ही दर्द की लहर...डॉक्टर ने ड्रिप में ही कई इन्जेक्शन ठूंस दिये......पिछली रात घर फोन कर ही दिया था....पूर्णिमा अगली सुबह पधार रही थी छोटे बेटे के साथ.....भोर में उठ तरोताजा हो लिया.......तुमको हमारा इंतजार करना चाहिये था न....ऑपरेशन करा लिया!!!!!!!!!.....हार्निया नहीं माना.... क्या करता....मंदिर चलो अनिल....वहां क्यों...ऑपरेशन डॉ.पाठक ने किया है या तुम्हारे देवी-देवताओं ने....चोप्प....चुपचाप पड़े रहो..प्रसाद खाना पड़ेगा...दिन के ग्यारह बजते
सा रे के सा रे ग म को ले क र गा ते च ले..वाला हाल.....जमघट ....कमरा फूलों से भर गया....(मरने के बाद चौथाई भी नसीब नहीं होंगे)......शाम को डॉक्टर पाठक से सामना.......आप दिन भर कहां रहे......क्या बताऊं....जितनी बार आया....मैडम ने ऐसे घूरा...जैसे मैंने हार्निया निकाल कर कोई अपराध किया हो......फिर मीठी हंसी.....दो दिन बाद घर जाइये...बहुत डिस्टर्ब हो रहा है अस्पताल का स्टाफ...दो दिन हॉस्पिटल से ही अखबार चलाया ..घर आ गया 20 साल पुराने दोस्त को खो कर.......तभी जबरदस्त हलचल....मंत्री महोदय पधार रहे हैं.....बब्बू......बिठाने को कुर्सी नहीं......शर्मदार थे.......चटाई पर भी नहीं बैठे...खड़े-खड़े दो-चार साधु वचन..................
बोले तो उस घर में रहने वाला कौन................................

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

जबलपुर में जमाया सम्पादकी का सुर और ताल

पत्रकारिता में कदम धरने वालो सावधान......यह कोई गुणगान नहीं.......कृपया इस राह पे कतई न चलें

जो इन्सान हमेशा सुर-ताल में काम करे.....हर पल इतना हो-हल्ला कि चैनल हेड चुपचाप कहीं सटक ले ....एकाएक किसी की आवाज सुनायी दे....ओये ...सम्पादक जी चले गये......शुरू हो जाओ......जिसकी अक्सर जनरल मैनेजर के सामने इसलिये पेशी हो कि पिछले दिन लाइट जाने पर बाकायदा कीर्तन चला था सम्पादकीय विभाग में........(स्पाइक्स बजाने में आज के कुछ बड़े-बड़े सम्पादक शामिल थे)......या सम्पादक के दरवाजे के बाहर लगे लाल बल्ब का कांच अगले दिन सुबह जमीन पर बिखरा हो.....उससे भी बड़ी बात यह कि अब तक करीब 12 सम्पादकों में से एकाध को छोड़ कर किसी को इस अराजकता पर ऐतराज कभी नहीं हुआ...क्योंकि काम पुख्ता और झटपट.....गेंद अपने पाले में रखने की आदत कभी पाली नहीं......धड़ाधड़ नौकरियां बदलना...पर चलना अपने अंदाज में ही......रात की इंचार्जी में साथ काम करने को ढेरों लालायित........

लखनऊ में इतवार को दिन में सम्पादक जी दफ्तर इसलिये नहीं आते थे कि आज पता नहीं कौन सा नजारा देखने को मिले...उनके बाद वाले आ गये (गल्ती से).....दरवाजे से ही लौट रहे थे कि दिख गये...किसी तरह मनाया...कानपुर में बाकायदा ढोलक और तबले के साथ.......चीफ रिपोर्टर कई बार मुख्य सम्पादक घनश्याम पंकज को लखनऊ फोन लगा कर गायन सुनवाता.....चंडीगढ़ में जनसत्ता से ज्यादा इंडियन एक्सप्रेस वालों की डिमांड में रहता...बीआईटीवी में इन गुणों में जबरदस्त इजाफा .......इसलिये सुबह का हर बुलेटिन यादगार........अंग्रेजी और हिन्दी ...दोनों बुलेटिनों के कई-कई रंग होते..

सहारा टीवी में चैनल हेड उदयन शर्मा को ये तौर-तरीके इतने भाये कि अपने पास एक घंटा जरूर बैठाते....फिर अपने ही साथ अमर उजाला ले गये.....बाद में मुजफ्फरपुर में न्यूज एडिटरी करते हुए प्रशासक वाले गुण भी सीख लिये....वहां रात दो बजे के बाद गाना-बजाना चलता.. और शाम शुरू होते ही दहाड़...तो इन दो छोर वाले गुणों को एक बोतल में डाल कर खूब हिलाया और दो घूंट लगा कर पहुंच गया सम्पादकी करने जबलपुर......एक साल बाद जब मेरठ में कुर्सी मिली तो प्रधान सम्पादक ने अपन का परिचय यही दिया---खुराफाती और जुनूनी.............

राजीव मित्तल

वही चित्रकूट......जिसने तीन साल तक न जाने कितनी बार ढोया....बिलकुल घरवाली के अंदाज में.......रस्ते भर भोपाल वाली से एसएमएस बाजी होती रही...बाकी समय सम्पादक किस तरह का बनना है इस पर गहन चिन्तन..............एकेडमिक...दुकानदारी...एय्याश.....दुनियादार...प्रोफेशनल...फर्जीगिरी.....क्लर्कनुमा......

मिशनरी....गरिमा प्रधान.....या .....फिर अपनी ही कैमेस्ट्री को थामे रखा जाए...

सुबह दीदार हुए जबलपुर के....स्टेशन पर प्रबंधक (महा) संजय सोनी मौजूद......भंवरताल में गेस्टहाउस.....नागरथ चौक से लगा अपना कार्यालय...दफ्तर में सोनी के कमरे में फूलों के गुलदस्ते से स्वागत....फिलहाल तो एक दड़बे में......चाय-पानी के बाद जबलपुर के दर्शन......अमित दास की मोटरसाइकिल पर.....रांझी...मालवीय चौक....कैन्ट.....और पता नहीं कहां कहां....

चलो...अब इस शहर से पान की दोस्ती की जाए....शानदार दुकान.....मुंह में रखते ही पान उगल दिया....अमां ये पान है कि सौंफ का अचार......सर इस पान को खाने के लिये कलकत्ता से लोग आते हैं......कौन सी गाली निकालता......अपना पान बताया तो पूरा शहर अनजान......या खुदा....इस शहर में कैसे निभेगी......मुजफ्फरपुर....पान....केले का पत्ता.... बेतरह याद आने लगे........दफ्तर लौट गम में डूब गया....पहले ही दिन ये हाल.......शाम को गेस्टहाउस पहुंचा तो सरकुलेशन के सूबेदार दिखे...दुआ-सलाम के बाद पुड़िया दिखायी तो उसमें उठती सुगंध से जान में जान आयी...मुंह में डाला तो दिल ने चैन की सांस ली.......अब अपनी दिहाड़ी शुरू...इंटरव्यू में पूछा गया था कि आप अपनी टीम लेकर आएंगे...जी नहीं.....टीम लेकर नहीं चलता....बनाता हूं......तो सम्पादक की दुम..... बना अब अपनी टीम.....

फोन लगाया विनीत जी को .....आपसे फौरन मिलना चाहता हूं.....जीएम को बोलता हूं...आपको लेकर कल पहुंच जाएं...इंदौर पहुंच सामान पटक तैयार होकर भागा नईदुनिया....आपके पीसी में एपेक्स डाल दिया है.....(कुछ पल्ले नहीं पड़ा) .....लीजिये यह फाइल....जिसको रखना हो.....लिस्ट बना लें....खोली तो पांच सौ प्रोफाइल........उनमें एक दर्जन सम्पादक पद के उम्मीदवार.......विदा लेकर सबसे मेल-मुलाकात......रात को चला तो पेट में चाय हिल रही थी और गले तक पोहा ठुंसा था......

होटल में देर रात लैपटाप भी पहुंच गया....... दूसरे दिन वापसी.....जबलपुर में वो बोरा टाइप फाइल खोली ही थी तभी एक युवक कमरे में घुसा.......संदीप चंसौरिया.......पांच मिनट में ही लग गया कि जिसकी तलाश थी मिल गया...... जिला डेस्क की इंचार्जी......अगर आप कहें तो कुछ और साथियों को भी बुलवा लूं....अगले दिन गेस्टहाउस में दस जन सोफे पर...दो-दो मिनट की बातचीत में पूरी जिला डेस्क तैयार....सर, कल कुछ रिपोर्टरों से.......हां बिल्कुल......अगले दिन छह रिपोर्टर भी शामिल......

अब मेट्रो डेस्क......किसी पत्रकार संस्थान को फोन लगवाया कि फौरन 50 लड़के-लड़कियां भिजवाएं.......दो घंटे बाद बाहर जमावड़ा.......उनके साथ तोता-मैना का जोड़ा यानी दो टीचर भी......डेढ़ घंटे में पंद्रह छात्र-छात्राओं का चयन...तोता-मैना जब अपनी पत्री भी थमाने लगे तो साफ इनकार......सीखे-सिखायों को नहीं रखना..अब काटूर्निस्ट.......मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव राजेश दुबे......वहीं कुछ बनवाया....वो भी शामिल....

इधर जीएम और उनके लंडूरे परेशान कि उनकी सिफारिशों का क्या होगा.....जबलपुर संजय सोनी की ससुराल....तो पूरे महाकोशल का दामाद बनने की फिराक में....इसके लिये सम्पादकीय में अपने लोग घुसेड़ने से बढ़िया क्या हो सकता है......लेकिन यहीं आकर उनकी दामादी दम तोड़ गयी...एक दिन ठन्ना के बोले-....आपने तो एक आदमी के कहने पर दस को रख लिया.......जवाब तैयार था....कहिये, पूरे घर को नहीं रख लिया..पहली भरती संदीप की बाकी सब अगस्त में.....उसने जिला प्रोजेक्ट पर यहां-वहां बैठ काम शुरू कर दिया......

एक भरी दोपहरिया में हांपती-कांपती सृष्टि ने अपना लिखा दिखाया.....अगस्त में मिलो.....फिर चश्माधारी दीपिका हाजिर....बला का आत्मविश्वास.....एक सुबह जैसे घर से भागे हों......दो लड़के हाजिर.....सर, मैं आलोक यह प्रवीन.... इलाहाबाद से सीधे यहां....कालेज की पत्रिका निकाली है..पेज बना लेते हैं...डन.....अब डेस्कों के इंचार्ज.....संदीप ने कुछ नाम सुझाये....शिव शर्मा डेपुटी न्यूज एडिटर और संजय पांडे मेट्रो इंचार्ज...सतना से ज्योति....सब भास्कर या जागरण से जुड़े थे....लोकलिया नवभारत या स्वतंत्र मत से...

दो-चार ज्योतिषी भी चक्कर लगा रहे...कई ने अपन की कुंडली भी बना दी...सही बनायी थी इसलिये किसी को नहीं रखा.......

विनीत जी के साथ अगस्त भी आ गया....दो दिन देखा अपन सिर्फ चाय-पानी पर...फिर हर दोपहर इस भूखे पेट को पकड़ ले जाते मालवीय चौक काफी हाउस में.....दस दिन संजय सोनी के साथ कई जिलों का ताबड़तोड़ दौरा......एक दिन नजर पड़ी पटना की एक लड़की के प्रोफाइल पर...फौरन फोन कर जबलपुर बुलाया.....पता चला कि शैली मुजफ्फरपुर भी रह चुकी है...कुछ ज्यादा ही अजीज हो गयी......दो सम्पादक मित्रों की सिफारिश मान कार्तिक...अनिल भी.......अब बचे न्यूज एडिटर और सिटी इंचार्ज......यहीं मात खा गया (क्यों...वो बाद में)...... शहर के कुछ बड़े पत्रकारों ने सीधे इंदौर की दौड़ लगायी....फोन करवाए.......एक सज्जन ने बड़ा हंगामा किया कि उनमें क्या कमी है........कमी यही थी कि वो वाया इंदौर थे.....

अखबार शुरू होने में बस एक महीना......आखिरी दौरा शहडोल का....

सर्कुलेशन हेड संतोष सोलंकी के चलते अपनी फोटो वहां के रेस्टहाउस में लगते लगते रह गयी.... भाई ने बरसते पानी में पांच पैग लगा कर रात तीन बजे एक सौ बीस की स्पीड पर दौड़ा दी क्वालिस......अपन कबिरा गा रहे थे......अचानक किसी पुलिया से टकरायी और गाड़ी लुढ़कने लगी खाई की तरफ......माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोये.....यह क्या कर डाला सोलंकी जी...अरे ठीक से......तू क्या रौंदे ....संभालो....माटी कहे.......बचिये...माटी...बचिये...माटी....जब लगा कि .....अंतिम बार शीशे में देख लो अपने को.......तभी गाड़ी जोर से किसी दीवार से टकरायी.....पता नही किसने खाई के मुहाने पर कंक्रीट का बंगला बना रखा था....गाड़ी का भुरकस निकल गया..... अपनी हाथ की घड़ी.....जान से प्यारे चार कैसेट बाहर अंधेरे में दफन.......जब इंजन का धुआं छटा तो हमें होश आया और गाड़ी भी हिली.....सड़क तक चढ़ आयी और दस किलोमीटर दूर रेस्टहाउस के अंदर घुस कर खड़ी हो गयी......हम तीन ने एक-दूसरे को छू कर देखा कि कहीं ......दो गज जमीं के नीचे ......वाला हाल तो नहीं .....

क्वालिस विनीत जी की थी....सोलंकी का चेहरा जर्द...सुबह उठ कर बाहर आए तो क्वालिस के प्राण पखेरू उड़ चुके थे..... जीएम को फोन किया.....ट्रालर पर लाद दो लाश को......आए थे एसी वाली गाड़ी में...वापसी ट्रेन की भभकती बोगी से........

सितम्बर .....काउंट डाउन शुरू......सारे ब्यूरो बन गये....बस नरसिंहपुर को लेकर मन परेशान...वहां विधानसभाध्यक्ष रुहाणी जी का कोई चेला प्रबंधन ने पहले ही तय कर दिया था....एक दिन मिलने आया...पत्रकार के अलावा सब कुछ......उसे हटाने में विनीत जी ने मदद की...तो कई सांसदों के पत्र आ गये....ये आपने अच्छा नहीं किया एक वरिष्ठ पत्रकार के साथ...हम दिल्ली में....संसद में....इंदौर में.....मामला उठाएंगे.......

इस रूह का उत्साह बढ़ाने को ग्वालियर सम्पादक राकेश पाठक आ गये...चार-पांच दिन अच्छे कटे....पाठक जी के सौजन्य से स्वदेश ढिमोले......डमी निकलनी शुरू.....न्यूज एडिटर ने दरवाजा खोल अंदर झांका.... आपका मूड ठीक हो तो एक बात कहूं सर....जो इत्तेफाक से ठीक ही था.....सर....एक जानपहचान की लड़की है...आप मिलना चाहेंगे......भेजिये......सामने शालू अग्रवाल.....एई स्साला बनिया....पर प्रोफेशनलिज्म ने जोर मारा...थोड़ी बात की तो लगा दम है....ठीक है आ जाओ........इस तरह पंद्रह बिल्कुल नये-नवेलों की भरती......उनके लिये एक राशि तय करवाई....जबकि जबलपुर में ऐसा कोई रिवाज नहीं था.....

अब घनघोर ट्रेनिंग शुरू........चक दे इंडिया के अंदाज में.......दो-चार को छोड़ दें तो 50 की टीम अपने मन की बना ली.......अचानक बम फटा......24 सितंबर से प्रकाशन शुरू करना है.........फाइनल की पूर्व संध्या....सबके चेहरों पर घबराहट की जगह जबरदस्त उमंग.....हालत सिर्फ अपनी खराब.....हर अंखियां दिलासा दे रही....सर...हम हैं न.....

चौबीस सितम्बर भी गया........इंदौर का सत्ता केन्द्र जबलपुर में मौजूद......हर संस्करण के जीएम और सम्पादक भी.......सबने इस अजूबे को पचा लिया खुशी-खुशी.....अब तक जिससे दूरी बना कर रखी थी....शाम को उस भरी-पूरी जमात से आमना-सामना.....दिल्ली-मध्यप्रदेश के कई बड़े मंत्री-नेता.....विभिन्न प्रकार के अफसर .....सौ से ऊपर जबलपुर का गर्व......किसको देखूं....किसको मुस्कराऊं...किसके गले मिलू......किसको गले लगाऊं.......फिर सबको धता बता कर टीम समेट अखबार निकाला......और निकल गया जी 25 की सुबह....नईदुनिया का जबलपुर संस्करण.....बोले तो सम्पादक कौन........

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

गुलमोहर

राजीव मित्तल

कील पे लटके कैलेंडर में
अगर मेरी आंखें तलाशती हैं
तो भरपूर गर्मियों के
उन दिनों को
जब गुलमोहर फूलों से
लद जाता है
लाल अंगारों की तरह
दहकते फूल
जब चारो ओर वीरानी हो
तो अपने पे मुग्ध
गुलमोहर से पूछने का मन
करता है
कितनी कलियां हैं तुम्हारे पास
जो रोज चटकेंगी और फूल बनेंगी
और तुमको इसी तरह
अपने पे मुग्ध
बनाए रखेंगी
यह भी पूछूं
कि रोज शाम
जब सूरज डूब रहा होगा
कितने फूल तुमसे
नाता तोड़
नीचे पड़े कुम्भला रहे होंगे
और यह भी कि
जब भरपूर गर्मियों के ये दिन
गुजर जाएंगे
केवल पेड़ बन कर रह जाओगे
तब
पर, सब सवाल फिजूल हैं
गुलमोहर को मालूम है
मैं हर बार नए साल के
कैलेंडर में फिर
भरपूर गर्मियों के
उन महीनों को तलाशूंगा
जब गुलमोहर
दहकता है

दुमकटे ने कटाया जबलपुर का टिकट

राजीव मित्तल

वही कुर्सी-मेज...वही दफ्तर....वही एन-एच 28 .....वही पेड़.....मौसम की वही रंगत...वही कमरा.....वही संगीत......वही कम्प्यूटर पर टिकटिक.....पर.. खालीपन है कि आता ही जा रहा था....कुछ छोड़ कर जा चुके थे.....तो कई जाने की तैयारी कर रहे थे.....मुजफ्फरपुर की कशिश छूट रही थी..2007 का वर्ल्डकप बोदा जा रहा था.... उस उदास रात 12 बजे मोबाइल टुनटुनाया.....शिफ्ट करना चाहते हो......हां..प्रदीप जी.....जबलपुर से नईदुनिया निकलने जा रहा है.......तुम अपना प्रोफाइल वहां भेज दो......और इस नम्बर पर बात कर लो........विश्व कप खात्मे पर था....तब तक दो लोग और चिटक लिये......

काफी दिनों से छुट्टी नहीं ली थी......तो चल पड़ा लखनऊ की ओर.......7-8 दिन डट कर आराम.... वापसी की तैयारी......ट्रेन रात की.....दिन में अमीनाबाद.....लौटने पर पता चला कि इंदौर से फोन था.....कुछ देर बाद फिर आया....आप कहां हैं.....लखनऊ में...रात को ट्रेन है मुजफ्फरपुर की.....मैं विनीत सेठिया बोल रहा हूं.....आप हर हाल में दो दिन के अंदर इंदौर पहुंच जाएं........

अगली रात भोपाल रवाना....फिर टैक्सी से इन्दौर....शाम को इंटरव्यू.....लेकिन ट्रेन लेट होने के कारण एक की बजाये चार बजे इंदौर की सूरत दिखी..... सब कुछ पहली बार....इंदौर भी....भोपाल भी.....और नईदुनिया भी......चिलचिलाती धूप ने छक्के छुड़ा दिये...फोन किया....आप श्रीमाया होटल पहुंचें..कमरा बुक है.....तैयार हों....गाड़ी भेजता हूं.....

जब हो गये तैयार तो फोन आया.....रात को बातचीत हो तो चलेगा!....रात को दो बजे भी हो तो कोई बात नहीं.....फिर फोन....कल दिन में रख लें तो.....कल शाम की ट्रेन है.....और आज की शाम कैसे काटूं......उसकी आप चिंता न करें.....हम भेज रहे हैं आपके पास.....उनके साथ इंदौर घूमिये....जितना घूम सकता था घूमा...सुबह गाड़ी आ गयी....

नईदुनिया......ऊपर चैम्बर का दरवाजा खोला तो सामने 30-32 साल का युवक...हंसमुख चेहरा....आइये....मैं विनीत....नीचे ही पता चल गया था कि सेठिया जी मालिकों में एक हैं.....जिन्हें दो दिन से मैनेजर समझ ट्रीट कर रहा था.....जिस नई दुनिया के बारे में बरसों से सुनता आ रहा था.....आज सामने थी...उनसे बातचीत चल ही रही थी कि विनय छजलानी भी आ गये....सीनियर पार्टनर......बेहद खुशनुमा माहौल में इस सम्भावित एÞिडटर की परख होती रही......जिसको मुजफ्फरपुर ने पूरी दुनिया से मुकाबला करने लायक बना दिया था.......ठीक है..... आप हमारी पहली पसंद हैं...आपको भोपाल भी निकलना है....जल्द ही आपको बताते हैं.......टैक्सी से फिर भोपाल...

स्टेशन पर ही मित्र की कार आ गयी...74 बंगले के उस फ्लैट में गुजारने को मात्र एक घंटा....पंकज जी ने जितने गानों की सीडी बना सकते थे...बना दी....वंदना ने रास्ते के लिये खाना पैक कर दिया.....अब प्रोग्राम बना स्टेशन जाने तक आधा शहर घुमा देने का.......सुबह फिर लखनऊ में......तुरंत मुजफ्फरपुर पहुंचना था......सारी जोर-आजमायश के बाद भी स्टेशन पर रात काली कर घर लौटना पड़ा....गोरखपुर से सुबह सप्तक्रांति में रिजर्वेशन.....रात को कोमल ने गोरखपुर स्टेशन स्टेशन पर कमरा बुका दिया....वहीं महफिल जमी....

मुजफ्फरपुर पहुंचते ही मीठा-मीठा अवसाद....हल्का सुरूर.....और ढेर सारी खुशी......हर नई नौकरी में जाने से पहले का आभास....ताजा ताजा गर्भधारिणी का सा अहसास........दिन तेजी से गुजर रहे.....इंदौर से कोई खबर नहीं........इस बीच पहल 86 आ गयी...उसमें सन् 1857 ....और नर्मदा पर अमृतलाल वेगड़ जी का लेख .....अपना लेख भूल नर्मदा में डूब गया.....सोते-जागते बस नर्मदा ही नर्मदा........पर इंदौर खामोश......जून आ गया.....आधे में पहुंचने को.....

एक सुबह उठते ही ब्रह्मपुरा की मंडी से कई किलो अमिया ला कर अमरस बना रहा था और गुठलियां दूर से ताक ताक कर कूड़ेदान की तरफ उछाल रहा था.....एकाएक प्लास्टिक के उस डिब्बे में खड़खड़ शुरू......एक और गुठली उछलती उसमें गिरी तो फिर खड़खड़.......झांक कर देखा तो यहां-वहां दौड़ लगा रहा छिपकली का बच्चा....दुम कटी होने से चढ़ नहीं पा रहा था.......डब्बे को लिटाया तो फौरन बाहर आ गया.....कुछ पल रुक कर सांस लेता रहा....फिर रेंगना शुरू.....फिर रुका.....घूम कर मेरी तरफ देखा.......थैंक यू.......और फिर सरपट दौड़ लगा दी......पांच मिनट बाद ही इंदौर से विनीत जी का फोन था.....

बधाई हो.....आप कब ज्वायन कर रहे हैं हमें........15 दिन का समय चाहिये....ठीक है... लेटर आपकी आई डी पर डाल दिया है....सैलरी देख लें.....दफ्तर पहुंच कम्प्यूटर पर लेटर वगैरह देखा......उसी रात फोन कर सैलरी बढ़वा ली....दसरे दिन नया लेटर आ गया......अब छोड़ने की तैयारी......सम्पादक जी को इस्तीफा.....15 दिन का समय.....फिर दिल्ली...लखनऊ...पटना.....सबको बता देने का पहला चरण पूरा......सम्पादकीय साथी हक्का-बक्का....अगले 15 दिन लड़की की विदायी जैसे कटे.....अब स्कूटर पर शहर की हर सड़क नाप रहा....जहां-जहां पांच साल में गया था.....उस जगह को एक बार छूकर जरूर आता...राह चलता हर इनसान अपना लग रहा.......हर पेड़...फूल....पत्ती अपनी तरफ खींच रहे.....पहले लखनऊ जाना था......वहां से जबलपुर......पूर्णिमा मित्तल के चलते सामान में काफी बढ़ोतरी हो गयी थी.......बांटना शुरू किया......लखनऊ में जब डांट पड़ने लगी तो ख्याल आया कि कई जरूरी चीजें भी बांट दीं......उनमें नयी नवेली सफेद रेशमी साड़ी......इन्वर्टर....गर्म कपड़े......पंखे....बर्तन......और पता नहीं क्या-क्या......सबको यह राहत जरूर थी कि स्कूटर बच गया.......

और एक जुलाई को हल्के बरसते पानी में ट्रेन की बर्थ पर.....सारा कम्पार्टमेंट मुजफ्फरपुरी साथियों से भरा था....अंदर-बाहर पानी की बूंदें.......रास्ते में मोतिहारी....नरकटियागंज......बेतिया...बगहा...हर स्टेशन पर मिलने आते रहे.....और गोरखपुर में सामने वही कोमल...लखनऊ दो दिन रुक कर चित्रकूट से जबलपुर......ट्रेन चली तो भोपाल से एसएमएस----यायावर...अब कहां...................

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

कैसे झेल लिया अपन को... उस्ताद!


हरियाली में ऐसे पौधों की भरमार होती है..जिन पर छोटी-छोटी काली फलियां लटक रही होती हैं.... उन्हें तोड़ कर पानी में डाल दो तो सब चटक-पट्ट की आवाज के साथ फटती हैं....चुनाव आयुक्त कृष्णमूर्ति के ऐलान ने अपने दिमाग के पट भी कुछ इसी तरह खोल दिये। कुछ ऐसी लिखने की सूझी कि छपे तो ठीक, अन्यथा अकेले में पढ़ कर ही मजा लिया जा सके। जोशी जी को लखनऊ फोन कर अपना इरादा बताया, भाई ने तुरंत उसका नामकरण तक कर डाला---------उलटबांसी--------अपने वालों से बात की तो पान भरे मुंह वाली मुंडी ऊपर से नीचे कर दी....किसी काम से पटना फोन लगाया तो आॅपरेटर ने लाख टके की सलाह दे डाली...सर जी...नये सम्पादक से दुआा-सलाम तो कर लीजिये....उसने लाइन मिला दी.....दुआ-सलाम तो हुई ही, अपने लेखन का पाटलिपुत्रीय भविष्य भी तय हो गया।

राजीव मित्तल


धंधे का नामकरण तो कर लिया...अब धंधा शुरू कैसे किया जाए....चुनावी लेखन में ऐसा कौन सा मसाला डाला जाए, जो रोज-रोज परोसे जान के बाद भी तान यही उठे......दिल मांगे मोर। यह तो शर्तिया था कि खाल ही उधेड़नी थी नेताओं की.....अपने से उधेड़ी तो मुकदमेबाजी तय है, जो संस्थान बर्दाश्त नहीं करेगा.....न ही वो यह बर्दाश्त करेगा कि राज्य सरकार करोड़ों के चुनावी विज्ञापन रोक दे। और अपन ये बर्दाश्त नहीं करेंगे कि दिल्ली से फोन आए कि क्या बकवास लिख रहे हो....किसने कहा था यह सब लिखने को....दिमाग के पट तो खुल ही गये थे.....मंटो की तरह 786 टांक शुरुआत कर डाली....महाभारत युद्ध को अपनी दैवीय आांखों से देख रहा संजय और उससे आंखों देखा हाल सुन रहे धृतराष्टÑ.....इस दिल की भड़ास निकालने को काफी थे.......दिल थाम कर की-बोर्ड पर टक टिक की और दे दिया अपने यहां....इंटरनल आईडी पर सब संस्करणों को भी भेज दिया.....नया सवेरा लेकर आया 2004 का पांच मार्च.....सब जगह चुनाव पेज पर उलटबांसी टंगी थी। अगले दिन मामला आगे बढ़ाया...लेकिन तीसरे दिन बेवजह धृतराष्टÑ और संजय को रथयात्रा पर निकले आडवाणी जी के साथ कर दिया।

महाभारत के सभी चरित्र याद कर डाले.......दिमाग के खुले पटों में उनमें से एक घुस गया------बर्बरीक-----भीम का ग्रैंड सन और घटोत्कच का बेटा.....पर, इसका तो धड़ ही गायब था अपने कृ ष्ण जी की कारस्तानी के चलते......एक पेड़ की डाल तलाशी गयी....जहां उसका थोबड़ा टिकाना था.....लेकिन अकेले बर्बरीक से क्या भला होना था अपना......जमाना बरखा दत्त का है तो क्यों न किसी चैनल की बाला को बर्बरीक से भिड़ाया दिया जाए......वाह सर जी, क्या आइडिया है..........इन दोनों ने मिल कर सभी नेताओं की जम कर फजीहत की और भारतीय राजनीति के धुर्रे उड़ाए.....तो अगले 60 दिन तक चली उलटबांसी।

केन्द्र में सरकार बन जाने पर फिर खाली हो गया.....अब क्या किया जाए....किसी ने सलाह दी कि दमे के रोग में सुबह की ताजी ताड़ी बड़ा फायदा देती है......साथ देने के लिये मिल गये प्रोडक्शन मैनेजर त्रिपाठी जी, जो साथ में रात काली करने के आदी थे। जनसत्ता, चंडीगढ़ से ही तूतू-मैंमैं....बस एक ही ऐब था....जल्दी पेज दो-जल्दी पेज दो की चिल्लाहट ..... जिसे दबाने के लिये सुर को अ ौर ऊपर ले जाना पड़ता था, जो अपने को वरदान में मिला ही हुआ है।

हम दोनों अपने-अपने घोड़े पर सवार उस जंगली इलाके में ताड़ के पेड़ पर लटकी हंडिया तलाशते। जान जोखिम में डाल कई बार खुद ही पेड़ पर चढ़ कर हंडिया मुंह से लगायी.....एक दिन पकड़े गये तो 20 रुपये देकर छूटे। फिर उसी पकड़ने वाले की झोपड़ी में ताड़ी सेवन चला... दो-चार दिन तो ताजी ताड़ी मिली....लेकिन एक दिन सुबह सात बजे के आकाश में जब चांद-तारे नजर आने लगे तो दमे को लानत भेजते हुए लौट आए होम्योपैथी पर।

लखनऊ से लौट कर बिहार को ऊपर से नीचे दो-चार बार देखा और वहां सदियों से चल रहे खेल .....राजनीतिक और प्रशासनिक लूटमार.....बिहार वासियों की दुर्दशा, उसके बावजूद उनकी जीजीविशा पर कलम चल पड़ी खुला खेल फर्रुखाबादी वाले अंदाज में.......एक सुबह जब पानवाले ने कहा.....सर जी मजा आ गया तो दिल पान-पान कर उठा। नजरिया नाम देकर बिहार-विशेषकर उत्तर बिहार पर लेखन शुरू हुआ, जो महीने में सात-आठ पीस तक पहुंच गया।

चकवर्ती राजगोपालाचार्य की रामायण के दो राक्षसी चरित्र पकड़ कर दंडकारण्य की डायरी के नाम से एक और कॉलम शुरू कर दिया। फिर उत्तर बिहार में भीषण बाढ़ ......सुकान्त जी ने प्रस्ताव रखा-जब तक चाहूं बाढ़ पर लिखूं........बाढ़नामा के नाम से आठ दिन लिखा उसके बाद हाथ खड़े कर दिये। दिसम्बर शुरू होते ही बिहार में विधानसभा चुनाव के ढोल बजने लगे। चुनाव-चुनाव का नाम दे एक नया कॉलम शुरू किया, जो 25 फरवरी 2005 तक जारी रहा। इसमें काक भुषुन्डि और गरुड के जरिये जम कर निकाली भड़ास..... दरभंगा सीतामढ़ी व शिवहर में जा कर चुनावी प्रहसन की रपट भी लिख मारी.......

2005 की बरसात में पहल के सम्पादक ज्ञानरंजन जी को एक पत्र के साथ नजरिया में ताजा-ताजा छपा कुछ भेज दिया। फौरन जवाब आया कि शहरनामा के लिये लिखूं.......दिल्ली या लखनऊ पर......अपनी इच्छा मुजफ्फरपुर पर जोर मार रही थी.....बोले.. तीन साल में इतना समझ लिया कि मुजफ्फरपुर को चुन रहे हो! क्या कहता कि मैंने नहीं..इस शहर ने मुझको समझ लिया.....खैर किसी तरह मनाया उन्हें ....... एक महीने तक नेट पर मुजफ्फरपुर का इतिहास छाना......गजेटियर भी पलटे....... अपने चिकित्सक दोस्त डा. निशीन्द्र किंजल्क और एमडीडीएम कालेज की प्रोफेसर मैडम विनोदिनी शर्मा के कई घंटे बरबाद किये। फिर जैसे-तैसे लिख कर जबलपुर भेज दिया, जो पहल के 83 वें अंक में छप भी गया। गजब.....!!!! .....अपन तो लेखक सही मायने में अब बने.......

इसी दौरान ज्ञान जी से 1857 की गदर पर चर्चा की थी। शहरनामा छप कर आया तो परिचय के साथ यह सूचना भी थी कि अगले अंक में 1857....... अब हिन्दुस्तान के सम्पादकीय पृष्ठ पर भी छपने लगा। लेखों के अलावा नक्कारखाना कॉलम में करीब करीब हर सप्ताह। एक-डेढ़ महीने में 1857 पर लेख तैयार कर जबलपुर भेज दिया। अग्रिम सूचना साथ में कि अब कालाजार पर काम करने जा रहा हूं। यही जानकारी देते हुए ज्ञान जी ने पहल 84 में 1857 छाप दिया। कालाजार पर लिखने के लिये डा. निशीन्द्र किंजल्क के पास जम कर बैठकी लगायी। पहल के लगातार तीसरे अंक में अपनी मौजूदगी थी।

इस बीच दो किताबों की समीक्षा भी। रश्मि रेखा के सम्पादन में मदन वात्स्यायन की कविताएं शुक्रतारा के नाम से प्रकाशित हुई थीं। प्रति हाथ लगते ही एक सांस में सारी कविताएं पढ़ गया.......तुरंत ही लिख भी मारा। अपने अखबार की साप्ताहिकी में छपने के बाद रश्मि रेखा से पता लिया और दोबारा लिख कर दस्तावेज के लिये गोरखपुर भेज दिया। मैडम विनोदिनी शर्मा के परिवार से काफी जुड़ाव था.......उसी परिवार के पंकज राग ने 65 साल के हिन्दी सिनेमा के संगीत पर अद्भुत किताब लिखी- धुनों की यात्रा। अपना प्रिय विषय था। किताब के एक हजार पन्ने खत्म करने में एक सप्ताह लग गये। इसे तद्भव के लिये लिखा।

अब मुजफ्फरपुर से विदाई का समय आ गया था। चलते-चलाते हरिमोहन झा की खट्टर काका हाथ लग गयी। उसे पढ़ फिर लिखने को मन करने लगा। लिखते-लिखते मुजफ्फरपुर से निकल जबलपुर पहुंच गया नई दुनिया अखबार में। वहां ज्ञान जी से बात की। उन्हें लेख पसंद आ गया इस टिप्पड़ी के साथ कि अबकी दंगा कराओगे..... और वह पहल 88 में प्रकाशित हुआ।

लिखने और पढ़ने का असली मजा मुजफ्फरपुर में ही मिला क्योंकि वहां सामाजिक सरोकार नगण्य थे.... और कुछ मिट्टी का भी असर। न खाने का होश....न सोने का.....कई बार घर की साज-सफाई करने वाली अपने गांव से आते वक्त कोई न कोई फल तोड़ लाती....उसने खूब बेल, अमरूद, लीची और आम खिलाए। उसकी समझ के बाहर था कि यह शख्स बगैर खाये जिंदा कैसे है। फिर आखिर वो दिन आ ही गया..............

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

अबे इतना क्यों याद आता है

जिस दिल्ली में जन्म लिया वही दिल्ली खुद तो सात बार उजड़ी ही, उतनी ही बार ही उसने उजाड़ा भी। अच्छा खासा पालते-पोसते अचानक कह बैठती--अब कट ले यहां से....ठेका ले रखा है तेरा!................ खुद तो वह फिर-फिर बस जाती, लेकिन अपन को कहीं का नहीं छोड़ा। शहर-शहर दौड़ाया, पर कहीं भी बसने नहीं दिया। चंडीगढ़ के बाद हर शहर में रात को कितने भी बजे घर पहुंचा हूं तो ताला ही लगा मिला...हां चाभी जरूर अपनी जेब में रहती थी। आखिरी बार सात साल दिल्ली में सांस रोके पड़ा रहा, लगा कि अबकी शान्त बैठेगी.....लेकिन नहीं जी...ऐसे कैसे.......एक दोपहर लम्बी सांस लेकर बोली....... कहां जाएगा, बता....! मैं क्या बताऊं....अभी तो नौकरी तलाश रहा हूं....तो, जा कस्तूरबा गांधी मार्ग.....पता चल जाएगा। आपको हम मुजफ्फरपुर भेज रहे हैं.........
सिर पीट लिया......खुदीराम बोस की शहादत वाला शहर......आम्रपाली से कोई रब्त-जब्त कभी रही नहीं.......हां विदेश जा बसी सहारा टीवी की मित्र पंखुड़ी जरूर याद आ गयी....अपने शहर के बहुत गुणगान करती। कई साल पहले नवभारत टाइम्स में मुकेश अलख कुछ-कुछ बताता रहता। फिर इमर्जेंसी के हीरो जॉर्ज फर्नाडीस मुजफ्फरपुर के सांसद.....और उजड़े हुए शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का इस शहर में उजाड़ सा आगमन....और हां.....लखनऊ से हो कर गुजरती वैशाली एक्सप्रेस.....कानपुर में बड़ी मुश्किल से चढ़ने देती थी ससुरी। .... इतने भर से इतना ही मालूम था कि मुजफ्फरपुर किस दिशा में है। चलिये, फिर चला जाए मुजफ्फरपुर..... दिशा अ ौर दशा दोनों को जानने के बाद बहुत याद आता है।



राजीव मित्तल

एमडीडीएम कॉलेज परिसर में ही पंखुड़ी की जननी विनोदिनी शर्मा का आवास.... कृष्णा अपार्टमेंट में नवीन जी की दो दिन की सोहबताई के बाद पटना आफिस की गाड़ी ने सीधे उनके दरवज्जे पर ला खड़ा किया। जमीन पर पहला कदम धरा तो अपनी बांह पर चिकोटी काटी.....सब ठीक है न! तुरंत तैयार हो इस अनजान शहर को रिक्शे पर बैठ टटोलना चालू किया। बंका बाजार...हिन्दुस्तान का सिटी आॅफिस..... दुकानें ही दुकानें...भीड़ से लबालब..... किसी तरह रास्ता बना कर सीढ़ियां चढ़ झपाके से कमरे में.....सम्पादक सुकांत नागार्जुन और रिपोर्टर इस जीव के इंतजार में कुर्सियों पर जमे थे। जामा तलाशी देने के बाद समाचार सम्पादक का काम समझना शुरू किया....पद नया-नवेला था न! रजिस्टर में दो नामों पर आंखें ठहर गयीं......प्रगति.....कोमल.......सरसता का अनुभव हुआा, पर मात्र आठ घंटे बाद सब उड़न-छू हो गया......अब और क्या बताऊं.......

फिर किसी का साथ पकड़ वहां से निकल भारत भंडार में रस माधुरी से मुलाकात.......हाथ में वेटर के, लेकिन जैसे खुद चल कर वारमाला डालने आ रही हो...चाल में द्रोपदी का बांकपन। और जब सामने मेज पर आ गयी तो समझ में नहीं आ रहा कि शुरू कहां से करूं। तन मन अघा गये तो पान की दुकान। वहां पान की गिलौरी जब केले के पत्ते पर रख कर पेश की गयी धन्य धन्य कर उठा मन। शाम को मेन आफिस। किसी के स्कूटर पर टंग कर मंजिल की ओर प्रस्थान।

आबादी खत्म.......मंजिल का कोई अतापता नहीं....ढलती शाम.... खेत शुरू हो गये...बगल में रेलवे लाइन..... लीची के बाग भी दिखने लगे.......नेशनल हाईवे पगडंडी सरीखा.....हलक सूखने लगा....केले के पत्ते पर पान अ ौर रस माधुरी का स्वाद गायब.....वीराने में बुक्का फाड़ कर रोने का मन करे। विभूति बाबू के आरण्यक के नायक जैसा हाल....वो बेरोजगार कलकत्ता से पूर्णिया के वनों में धकेला गया था.. यहां बारोजगार होने के लिये दिल्ली से इस मोतिहारी रोड पर....जिस पर एकाध जीव ऐसा भी दिखा जिसे सियार कहा जा सकता है...... जब पेड़ों की कतार के उस पार धरती और आकाश मिलने लगे तो सड़क के किनारे एक बड़े से बंगलानुमा भवन पर अखबार का बोर्ड दिखा। अंदर घुस कर जान में जान आयी कि.... अखबार बांस की बनी झोपड़ी से नहीं निकल रहा।

एक बड़े से हॉल में कुछ जन कम्प्यूटर पर जमे अहसास दिला रहे कि अखबार यहीं बनता है.... सबसे हे हे कर अपनी सीट पर जम गया। सुकान्त जी ने फिर मीटिंग बुला कर डेस्क वालों से परिचय कराया। पल्ले कुछ पड़ नहीं रहा था कि कौन क्या है। बैग से डायरी निकाली, जिसमें सुकान्त जी ने सारे संस्करणों की जन्मपत्री बना कर दी थी....सबके नाम धाम और उनका काम भी। एक के बाद एक पेज चेक करते 10बज गये...भूख लगने लगी तो देखा कई के टिफिन खुल गये हैं। कुछ बाहर जा रहे हैं। हो लिया उन्हीं के साथ......बाहर घुप्प अंधेरा...पहले ही दिन कोई हादसा न हो जाए....संभलते हुए उस टोली के पीछे चलता रहा। कुछ दूर चलने पर मुंशी जी का ढाबा। किसी तरह पेट भरा....लौट कर आठवें सिटी एडिशन की तैयारी। रात दो बजे राम नाम सत्त की ध्वनि निकलने को। जब पता चला कि मैडम का आवास शहर के दूसरे कोने में और शहर यहां से पांच किलोमीटर दूर.... तो मन हर हर महादेव करने लगा । बगल की रेलवे लाइन याद आयी..(कट मरने को नहीं )..सोचा एमएसटी बनवा लू....पर कमबख्त ट्रेन तो नहीं रुकती न।

ढाई बजे सात-आठ के साथ टुटही जीप पर अखबार के बंडलों पर लद लिया। गेट से खिसकी और एक गांव में ले गयी। घुप्प अंधेरे में कोई उतरा तो वापस शहर की ओर। रात के सन्नाटे में शहर के गली मोहल्लों के दीदार हुए। सब लुंजपुंज। पुराने रजाई गद्दों को जैसे चूहा उधेड़ गया हो वाला सड़कों का हाल। स्ट्रीट लाइट जल रही तो नाला, बिजली गुल तो नहर। साढेÞ तीन बजे मैडम का दरवाजा पूरी हया के साथ खटखटाया......दरवाजा खुलते ही उनकी तर्जनी बिस्तर की तरफ और अपन गिरते ही ढेर।

तीन दिन ऐसे ही गुजरे...जीवन में न कोई रस न भस्म। रहने का अलग इंतजाम तो करना ही था..... वो मैडम के हवाले। अनाड़ी की गृहस्थी भी जुगाड़ दी उन्होंने। सड़क पार उनका आवास......किताबों की फरमायश की तो लायब्रेरी ले गयीं......वहां से बोरा भर लाकर कमरे में पटक दीं .....अपने संगीत प्रेम को तीन फुट की जगह देकर स्वर लहरी का भी इन्तजाम किया। लेकिन भोजन के लाले...कब तक छेने के रसगुल्लों और रसमाधुरी से काम चलाता.....चने ला कर रख लिये.....घर से दफ्तर की दूरी तबाह किये पड़ी थी......तुरंत सबको बोला...शर्त..दफ्तर पांव की रेंज में हो....4 किलोमीटर!......... चलेगा............एक घर तलाश कर दिखाया गया........वाह क्या बात है.....दो कमरे....रसोई लापता.....चलेगा....कमरों के बाहर खासा बड़ा मरमरी टैरेस....तीन तरफ से खुला......पड़ौस के हर घर में पेड़-पौधों की बहार....बेहिचक और बेझझिक ताक-झांक (उनकी तरफ से क्योंकि खुले में हम थे और उनके लिये उजबक भी)। किराया.... मकान मालिक 1200-1500 के बीच कुछ बोलता कि अपने मुंह से निकल गया 1800 सौ। साथ वालों ने घूरा --चुप नहीं बैठा जा सकता था! ......मकान मालिक की बांछे खिल गयीं......तुरंत सामान निकाल अपने हवाले कर दिया।
उन ससुरों को क्या बताता कि मैं उस घर के 2000 भी देने को तैयार था।

तीन महीने बाद ही रांची भेज दिया गया.... पर उस घर ने वापस बुला लिया यही कहूंगा.....हालांकि सुकांत जी ने भी दिल्ली-पटना एक कर रखा था।

मुजफ्फरपुर से दिल कब लगा बैठा, पता ही नहीं चला....जबकि न पानी....न बिजली.....बगल के खाली प्लॉट पर अक्सर सांप टहलते दिखायी दे जाते। चूहे-छिपकली कब साथ लेट जाते.....रात को तीन बजे स्कूटर अपने आप खाई-खड्ड तलाशने लगता (जीप छोड़ दी क्योंकि उसमें यमराज बगल में ही बैठता था)....तराई के चलते भड़कते दमे पर अंकुश लगाने को विभिन्न पैथियों के डॉक्टरों की तलाश.... इन सबका तोड़ निकाला कि पानी उबाल कर पिया जाए, खाना एक वक्त और रात का सोना ऑफिस में। फ्रेंचाइजी मारवाड़ी.. तो बनिया कार्ड खेल कर उनका दिल पिघलाया....अब हाथ साफ करने को उन्हीं की पेंट्री में निर्मित भोज्य पदार्थ। रात दो बजे के बाद सोने के लिये अपने क्यूबिकिल में साइड में लगी लम्बी दराज पर बिछावन।

एक साल के अंदर ये हाल कि न दिल्ली भाए न लखनऊ.....हर छुट्टी में दो दिन पहले मुजफ्फरपुर जाने वाली गाड़ी पर सवार। महीने में एक बार पटना जरूर। सुबह तड़ से उस फ्लैट की घंटी बजाता....दरवाजा खुलते ही टकराता जोशीआना स्वर.....हां जी...आ गए! पूरी तरह तरो-ताजा होने को पूरे 24 घंटे.....अगली शाम फिर धचकेदार एनएच 24......

पता नहीं किसके फजल से उत्तर बिहार के सभी ब्यूरो की बिहारी भाषा में लखनवी हींग का छौंका लगाने का मौका हाथ लगा......मोतिहारी, दरभंगा, सीतामढ़ी, बेतिया, समस्तीपुर, बेगूसराय, मधुबनी के गली-कूचों के दर्शन...
सीतामढ़ी में ब्यूरो इंचार्ज रविकांत सीता जन्मस्थली दिखाने को घसीट ले गये। उस तालाब में सुअर भी घुसने से घबरा रहे। यह हाल देख लौट कर आडवाणी जी को खुला पत्र जारी किया....... श्री राम पर इतनी हाय-तौबा कि देश भर में आाग लगवा दी और उनकी घरवाली की जन्मस्थली कूड़ेदान बनी हुई है, उसकी कोई फिक्र नहीं.. वो जवाब देते भी क्या...सीता के नाम पर तो वोट मिलने से रहे।

एक अखबारी छुट्टी पर वैशाली भी। बुद्ध लेटे पड़े थे, महावीर बैठे हुए......आाम्रपाली पेड़ पर लटक रही।
हर कोई यहां-वहां बिखरे ईंट-पत्थरों को ऐसे दिखा रहा......जैसे ढाई हजार वर्ष पहले लिच्छवि गणतंत्र ने मगध सम्राट अजातशत्रु की सेना को इन्हीं की मार से दौड़ाया हो।

हरहरा कर चौड़े से बह रही नारायणी को देख मन प्रसन्न हो गया। उस किनारे पर छपरा.....पुल पार कर दूसरे जिले में चाय पी....साथ में निमकी भी..... और लौट पड़े तीन टांग की कार पर, क्योंकि चौथे पहिये के लिये सड़क ही नहीं थी।

एक और छुट्टी पर मोतिहारी से रक्सौल.....और घुस गये वीरगंज में.....सही बोला था ज्योतिषि ने कि...विदेश यात्रा का योग है....
तीसरी छुट्टी पर नेपाल में ही जनकपुरी के दर्शन । असली मिथिला। सुना, वहां भी है सीता जी की जन्मस्थली। अयोध्या से हर साल श्री राम की बारात वहीं जाती है, लाखों की भीड़ होती है। जबरन श्रद्धाभाव पैदा कर मंदिर में घुसे तो गाय, बैल और सांड़ ...एक साथ तीनों के दर्शन। वहीं पेट हल्का कर आराम फरमा रहे थे। उनकी झाड़ू लगाती पूंछ श्वान जाति के कई छोनों को रास नहीं आ रही थी, इसलिये तुमुल संग्राम छिड़ा था।

इस बीच कांटी भी हो लिये, जहां थर्मल पॉवर स्टेशन तो राख की ढेरियों के बीच खड़ा था, पर बिजली नहीं दे रहा था। सड़े कोयले की खरीद में जम कर दलाली खायी गयी और लगा दिया गया अरबों का चूना। थोड़ा अंदर जाकर मुस्लिमों का कोई धार्मिक स्थल...बेहद भव्य और खूबसूरत....चारों तरफ लीची के बाग। ऊपर चढ़ कर देखा...चारों तरफ अंगारे दहक रहे थे जैसे। माली को इस बात के पैसे दिये कि अपने से तोड़ कर खाएंगे लीची।

जोशी जी लखनऊ हो लिये तो पटना अपने लिये पराया हो गया। अगले दो-तीन महीने दिन में ब्रहमपुरा के अपने घर से थोड़ी दूर संजय सिनेमा हॉल में कैसी भी फिल्म देखना........ या घर में खूब तेज आवाज में संगीत सुनना या किताबों के ढेर के बीच दफन हो सो जाने का सिलसिला, जो टूटा लोकसभा चुनाव के ऐलान पर.........


यहीं मिलते हैं............फिर.................................................................

गौरेया के घोंसले में

राजीव मित्तल

सुबह सूरज की किरणें....चाय का कप....रबर बैंड में लिपटा अखबार और...........गौरेया.....चारों की शक्ल अक्सर ही एक साथ दिखायी पड़ जाया करती थी। चारों में आपस में कैसी भी नातेदारी नहीं ....लेकिन अपने मेजबान से मुकाबिल को चारों तैयार.....चाय का कप और अखबार दरवाजे से, तो सूरज और गौरेया की पहले तो ताकाझांकी और फिर कहीं से भी छम्म से कमरे में ......उसके बाद.....चाय खत्म प्याला रीता पड़ा.....अखबार कहीं किसी और के हवाले....खिड़की बंद कर सूरज का मुंह कहीं और मोड़ देना...बची गौरेया.....उस पर किसी का कोई जोर नहीं....सब उसकी मर्जी पर...लाख रोकिये...लेकिन उसके आने या जाने के हजार रास्ते.....झुंड में है तो आंगन में ....जोड़े में है तो कमरा पहली पसंद.....उसके बाद कई बार एक बार फिर लौट कर आना...लेकिन अकेले अकेले......चेहरे पर क्या करूं...क्या करूं का उलझनी भाव....अच्छा कल देखते हैं के साथ ही एक और फुर्र....लेकिन यह मत सोचियेगा कि चली गयी.....कई बार रात को भी किसी ताख पर दिख जाती......गौरेया........20 साल पहले घर आने वाला सबसे पहला मेहमान......और अब ...........

एक रात.....फेसबुक के होम पर अचानक बेस लाइन से एक डिब्बा तेजी से ऊपर......नया चेहरा नामुदार हुआ.....एक सवाल के साथ.....पहचाना? आयं....यह कौन है भाई...और कैसी घूरती आंखों से पूछ रही है......पहचाना? अमां जा रे...अपना काम कर.....अच्छा-खासा गाना तबाह कर दिया नेकबख्त ने.....चेहरा उसी तरह तना बैठा......तुरंत छानबीन की...पता चला कि अपनी ही मूर्खता से दोस्तों की सूची में शामिल कर बैठा हूं।

चेहरा तो कोई पता नहीं बता रहा था...लेकिन आंखें कहीं देखी हैं.....उधर...चैट पर हेलो..हेलो की चूं-चीं चीं जारी......थोड़ा बताओ अपने बारे में.....नईदुनिया के आफिस में आयी थी....नौकरी के लिये?........नहीं...कुछ लिख कर लायी थी....बच्चे का जन्म होने वाला था..... उन्हीं दिनों के अनुभवों पर.....

अब.... सब याद आ गया .....

बेटा या बेटी?....बेटा....आपसे मुलाकात के दो दिन बाद...बेटी होती तो ज्यादा खुशी होती सुन कर.....तभी दिमाग बौराने लगा.......तुम उस हाल में मेरे पास अपना लिखा दिखाने आयी थीं....हां.....और आपने कितनी अभद्रता दिखायी थी.....अभद्रता मतलब! यानी दो-चार शब्द बोल कर भगा दिया ....

हां, याद आया.....उस दिन स्क्रीन पर स्तालिन को पढ़ रहा था...केबिन का दरवाजा हमेशा की तरह खुला हुआ था.....विकास ने झांका...सर..कोई मिलने आया है....आंखें लैपटाप पर जमाए ही बोला...भेजो......सर....मैं आ सकती हूं.......बैठिये.....मई की गर्मी ... पसीने में लथपथ...चेहरा लाल भभूका..... हां बताइये....मैं नौकरी के लिये नहीं आई हूं....तो!!!!!!!!

लेनिन ने कितनी कोशिश की थी कि स्तालिन को ज्यादा भाव न मिले पार्टी में....लेकिन ट्राटस्की पलायन कर गया....नहीं तो इतिहास बदल गया होता सेवियत संघ का.....

!!!!!!!! सर..मैंने कुछ लिखा है....उफ...अभी तो इसको निपटाओ......हां...क्या लिखा है....दिखाओ.....अभी तो नहीं लायी.......तो क्या मेरा चेहरा देखना था (बोला नहीं) पर..वो समझ गयी कि मैं क्या कह रहा हूं......एकाएक उठी और बोली......मैं चलती हूं.....निगाहें स्क्रीन पर पहले ही जम चुकी थीं.......कुछ देर बाद आंखें उठायीं तो कुर्सी खाली थी.......अरे....इतनी गर्मी में आयी थी....तुमने पानी को भी नहीं पूछा...चाय या पेप्सी को तो छोड़ो.....छोड़ोे यार....घूर कैसे रही थी...औरंगाबाद की नक्सली लग रही थी बिल्कुल...आंध्र की या उड़ीसा की भी हो सकती है.....यहां की तो है नहीं.....बताइये....एक सम्पादक के पास आ रही है अपना लिखा दिखाने.....वो भी साथ नहीं लायी.....

अचानक चैट पर निगाह गयी .... लाइन दर लाइन भरता जा रहा था....साथ में हेलो..हेलो.....अरे रुको थोड़ा.....वास्तव में मैंने बहुत खराब व्यवहार किया था...वैसे इस बदतमीज और अभद्र इनसान को तलाश कर उससे चैटिंग किस खुशी में....बस... आप मुझे सबसे अलग लगे....जो सम्पादक किसी युवती को बैठने को भी न कहे....पानी को भी न पूछे....उस की तरफ देखे ही नहीं....वो इनसान कितना अजीब होगा.....इसलिये जैसे ही फेसबुक पर आपको देखा.. फ्रेंड

रिक्वेस्ट भेज दी और आपने दोस्त बना भी लिया.......सोचा.... ऐसे इनसान को फिर टटोला जाए.....

दोस्तों.....आप को यकीन नहीं आएगा कि हम दो घंटे चैट पर रहे....उसी दौरान खाना खाया..चार-चार फोन किये ....पांच एडीशन भी निपटा दिये...पता नहीं किन-किन विषयों पर बात हुई......जबलपुर....नर्मदा...चेखव...चे गुएरा....देवदास...सरगुजा...वेगड़ जी...शादी-ब्याह..पिछले अनुभव....और हां बिहार भी तो...........

तुम कहां की हो?....छपरा..बिहार.....क्या कह रही हो तुम....नारायणी के उधर छपरा...इधर मुजफ्फरपुर...तुम वहां की हो? जी हां.....तो उस दिन क्यों नहीं बताया कि तुम बिहार की हो....जबरदस्ती नौकरी थमाता......और तुरंत ही मैटरनिटी लीव देता.....उस दिन तो आप पता नहीं किस दुनिया में खोए हुए थे....कितनी देर दीवारों से बात करती इसलिये चल दी....मेरे पति को जानते हैं ..नाम बताया तो.......हां.....एकाध बार की मुलाकात है..मैं नर्मदा यात्रा पर जबलपुर आ रहा हूं...तब मिलूंगा....

अगले दिन चैट पर विनय भी......आप कब आ रहे हैं...बता दें और हमारे यहां ठहरें.....दिल ने फौरन ठेका लगाया....छड्ड यार....रेस्ट हाउस में कमरा बुक है...देख लीजिये..हमें अच्छा लगेगा...24 घंटे बाद....तुम्हारे पतिदेव न्योत रहे हैं...स्टूडियो.....हां...तो यहीं क्यों नहीं ठहरते...हम सब ठीक कर देंगे....आपको कोई परेशानी नहीं होगी.....लेकिन पता नहीं दिल नहीं मान रहा था....टाला किसी तरह....कई दिन तक टालता रहा.....नये-नये बहाने बना कर....

भोपाल पहुंच कर फोन किया....्िरफर वही सवाल...क्या सोचा आपने....जबलपुर की ट्रेन में बैठ कर बताऊंगा कि कहां ठहरना है......उफ्फ.....फिर वही भावबाजी.....जहां मन हो ठहरें.....जबलपुर चल दिया....पिपरिया निकला तो रवींद्र का फोन आया कि स्टेशन पर हूं....वहां से सीधे रेस्ट हाउस......अब तो पक्का करना ही पड़ेगा......रात 11 बजे तय करेगा बे लल्लू ......अभी बता....तभी कुरैशी जी का फोन आया...हम स्टेशन पर हैं.....फिर वो ही आवाज .....कहां हैं आप... स्टेशन पर मिलेंगे....कुछ तय किया कि नहीं.....मैं स्टूडियो आ रहा हूं......यह हुई न बात.....स्टेशन पर एक होटल की कार भी खड़ी थी....लेकिन अब नहीं डोलेगा मन.....उतरते ही विनय को पकड़ चुपचाप निकल लिया..... 11.30 बज चुके थे....स्टूडियो पहुंचे....तो गौरेया इतनी रात को भी तरोताजा..दिलोजान से स्वागत..चूजा नींद में मस्त..(जो पहली बार की मुलाकात में भी मां के ही संग था) .....

तो यह है वो, जिसे नईदुनिया में पानी भी नहीं पिलाया था.....खाना खाया....फिर सारा इन्तजाम कर दोनों अपने डेरे चले गये....और सुबह आते ही गौरेया सारथि बनी... मेरे सब ठिकानों पर यहां-वहां लिये घूमती..... अगले सात-आठ दिन ऐसा ही चला सब कुछ...हर समय मेरी फिक्र...अभिभूत कर देने वाला सब...विदायी तो और भी..

आगरा आ गया....फिर वो दोनों दिल्ली आए... बेटे के साथ.......दिल्ली आए तो आगरा तो जरूरी था ही.....आगरा में डेढ़ दिन का मुकाम..खूब घूमे....मस्ती की......

आखिरी घंटों में सब उलट-पुलट गया...ऐसे मौकों पर अपने में गुम हो जाने की पुरानी आदत......सब परेशान.....ट्रेन की बोगी से मैसेज आया....आप एक बार फिर नईदुनिया के सम्पादक बन गये..नहीं तलाशती तो अच्छा था......

सच फरमाया गौरेया......कभी अपनी कैमेस्ट्री से खिलवाड़ नहीं करना चाहिये....लेकिन मैं कर बैठा.....तो न मैं नईदुनिया का सम्पादक रह पाया, जिसने भरी धूप में आयी युवती को पानी के लिये भी नहीं पूछ कर एक यादगार काम किया था....और न तुम गौरेया.....जो चहकती आयी थी उस अजीब इनसान को तलाशने.....बचाओ अपने को गौरेया.......अब तो हवाएं भी तेजाबी हैं......