सोमवार, 4 अप्रैल 2011

अबे इतना क्यों याद आता है

जिस दिल्ली में जन्म लिया वही दिल्ली खुद तो सात बार उजड़ी ही, उतनी ही बार ही उसने उजाड़ा भी। अच्छा खासा पालते-पोसते अचानक कह बैठती--अब कट ले यहां से....ठेका ले रखा है तेरा!................ खुद तो वह फिर-फिर बस जाती, लेकिन अपन को कहीं का नहीं छोड़ा। शहर-शहर दौड़ाया, पर कहीं भी बसने नहीं दिया। चंडीगढ़ के बाद हर शहर में रात को कितने भी बजे घर पहुंचा हूं तो ताला ही लगा मिला...हां चाभी जरूर अपनी जेब में रहती थी। आखिरी बार सात साल दिल्ली में सांस रोके पड़ा रहा, लगा कि अबकी शान्त बैठेगी.....लेकिन नहीं जी...ऐसे कैसे.......एक दोपहर लम्बी सांस लेकर बोली....... कहां जाएगा, बता....! मैं क्या बताऊं....अभी तो नौकरी तलाश रहा हूं....तो, जा कस्तूरबा गांधी मार्ग.....पता चल जाएगा। आपको हम मुजफ्फरपुर भेज रहे हैं.........
सिर पीट लिया......खुदीराम बोस की शहादत वाला शहर......आम्रपाली से कोई रब्त-जब्त कभी रही नहीं.......हां विदेश जा बसी सहारा टीवी की मित्र पंखुड़ी जरूर याद आ गयी....अपने शहर के बहुत गुणगान करती। कई साल पहले नवभारत टाइम्स में मुकेश अलख कुछ-कुछ बताता रहता। फिर इमर्जेंसी के हीरो जॉर्ज फर्नाडीस मुजफ्फरपुर के सांसद.....और उजड़े हुए शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का इस शहर में उजाड़ सा आगमन....और हां.....लखनऊ से हो कर गुजरती वैशाली एक्सप्रेस.....कानपुर में बड़ी मुश्किल से चढ़ने देती थी ससुरी। .... इतने भर से इतना ही मालूम था कि मुजफ्फरपुर किस दिशा में है। चलिये, फिर चला जाए मुजफ्फरपुर..... दिशा अ ौर दशा दोनों को जानने के बाद बहुत याद आता है।



राजीव मित्तल

एमडीडीएम कॉलेज परिसर में ही पंखुड़ी की जननी विनोदिनी शर्मा का आवास.... कृष्णा अपार्टमेंट में नवीन जी की दो दिन की सोहबताई के बाद पटना आफिस की गाड़ी ने सीधे उनके दरवज्जे पर ला खड़ा किया। जमीन पर पहला कदम धरा तो अपनी बांह पर चिकोटी काटी.....सब ठीक है न! तुरंत तैयार हो इस अनजान शहर को रिक्शे पर बैठ टटोलना चालू किया। बंका बाजार...हिन्दुस्तान का सिटी आॅफिस..... दुकानें ही दुकानें...भीड़ से लबालब..... किसी तरह रास्ता बना कर सीढ़ियां चढ़ झपाके से कमरे में.....सम्पादक सुकांत नागार्जुन और रिपोर्टर इस जीव के इंतजार में कुर्सियों पर जमे थे। जामा तलाशी देने के बाद समाचार सम्पादक का काम समझना शुरू किया....पद नया-नवेला था न! रजिस्टर में दो नामों पर आंखें ठहर गयीं......प्रगति.....कोमल.......सरसता का अनुभव हुआा, पर मात्र आठ घंटे बाद सब उड़न-छू हो गया......अब और क्या बताऊं.......

फिर किसी का साथ पकड़ वहां से निकल भारत भंडार में रस माधुरी से मुलाकात.......हाथ में वेटर के, लेकिन जैसे खुद चल कर वारमाला डालने आ रही हो...चाल में द्रोपदी का बांकपन। और जब सामने मेज पर आ गयी तो समझ में नहीं आ रहा कि शुरू कहां से करूं। तन मन अघा गये तो पान की दुकान। वहां पान की गिलौरी जब केले के पत्ते पर रख कर पेश की गयी धन्य धन्य कर उठा मन। शाम को मेन आफिस। किसी के स्कूटर पर टंग कर मंजिल की ओर प्रस्थान।

आबादी खत्म.......मंजिल का कोई अतापता नहीं....ढलती शाम.... खेत शुरू हो गये...बगल में रेलवे लाइन..... लीची के बाग भी दिखने लगे.......नेशनल हाईवे पगडंडी सरीखा.....हलक सूखने लगा....केले के पत्ते पर पान अ ौर रस माधुरी का स्वाद गायब.....वीराने में बुक्का फाड़ कर रोने का मन करे। विभूति बाबू के आरण्यक के नायक जैसा हाल....वो बेरोजगार कलकत्ता से पूर्णिया के वनों में धकेला गया था.. यहां बारोजगार होने के लिये दिल्ली से इस मोतिहारी रोड पर....जिस पर एकाध जीव ऐसा भी दिखा जिसे सियार कहा जा सकता है...... जब पेड़ों की कतार के उस पार धरती और आकाश मिलने लगे तो सड़क के किनारे एक बड़े से बंगलानुमा भवन पर अखबार का बोर्ड दिखा। अंदर घुस कर जान में जान आयी कि.... अखबार बांस की बनी झोपड़ी से नहीं निकल रहा।

एक बड़े से हॉल में कुछ जन कम्प्यूटर पर जमे अहसास दिला रहे कि अखबार यहीं बनता है.... सबसे हे हे कर अपनी सीट पर जम गया। सुकान्त जी ने फिर मीटिंग बुला कर डेस्क वालों से परिचय कराया। पल्ले कुछ पड़ नहीं रहा था कि कौन क्या है। बैग से डायरी निकाली, जिसमें सुकान्त जी ने सारे संस्करणों की जन्मपत्री बना कर दी थी....सबके नाम धाम और उनका काम भी। एक के बाद एक पेज चेक करते 10बज गये...भूख लगने लगी तो देखा कई के टिफिन खुल गये हैं। कुछ बाहर जा रहे हैं। हो लिया उन्हीं के साथ......बाहर घुप्प अंधेरा...पहले ही दिन कोई हादसा न हो जाए....संभलते हुए उस टोली के पीछे चलता रहा। कुछ दूर चलने पर मुंशी जी का ढाबा। किसी तरह पेट भरा....लौट कर आठवें सिटी एडिशन की तैयारी। रात दो बजे राम नाम सत्त की ध्वनि निकलने को। जब पता चला कि मैडम का आवास शहर के दूसरे कोने में और शहर यहां से पांच किलोमीटर दूर.... तो मन हर हर महादेव करने लगा । बगल की रेलवे लाइन याद आयी..(कट मरने को नहीं )..सोचा एमएसटी बनवा लू....पर कमबख्त ट्रेन तो नहीं रुकती न।

ढाई बजे सात-आठ के साथ टुटही जीप पर अखबार के बंडलों पर लद लिया। गेट से खिसकी और एक गांव में ले गयी। घुप्प अंधेरे में कोई उतरा तो वापस शहर की ओर। रात के सन्नाटे में शहर के गली मोहल्लों के दीदार हुए। सब लुंजपुंज। पुराने रजाई गद्दों को जैसे चूहा उधेड़ गया हो वाला सड़कों का हाल। स्ट्रीट लाइट जल रही तो नाला, बिजली गुल तो नहर। साढेÞ तीन बजे मैडम का दरवाजा पूरी हया के साथ खटखटाया......दरवाजा खुलते ही उनकी तर्जनी बिस्तर की तरफ और अपन गिरते ही ढेर।

तीन दिन ऐसे ही गुजरे...जीवन में न कोई रस न भस्म। रहने का अलग इंतजाम तो करना ही था..... वो मैडम के हवाले। अनाड़ी की गृहस्थी भी जुगाड़ दी उन्होंने। सड़क पार उनका आवास......किताबों की फरमायश की तो लायब्रेरी ले गयीं......वहां से बोरा भर लाकर कमरे में पटक दीं .....अपने संगीत प्रेम को तीन फुट की जगह देकर स्वर लहरी का भी इन्तजाम किया। लेकिन भोजन के लाले...कब तक छेने के रसगुल्लों और रसमाधुरी से काम चलाता.....चने ला कर रख लिये.....घर से दफ्तर की दूरी तबाह किये पड़ी थी......तुरंत सबको बोला...शर्त..दफ्तर पांव की रेंज में हो....4 किलोमीटर!......... चलेगा............एक घर तलाश कर दिखाया गया........वाह क्या बात है.....दो कमरे....रसोई लापता.....चलेगा....कमरों के बाहर खासा बड़ा मरमरी टैरेस....तीन तरफ से खुला......पड़ौस के हर घर में पेड़-पौधों की बहार....बेहिचक और बेझझिक ताक-झांक (उनकी तरफ से क्योंकि खुले में हम थे और उनके लिये उजबक भी)। किराया.... मकान मालिक 1200-1500 के बीच कुछ बोलता कि अपने मुंह से निकल गया 1800 सौ। साथ वालों ने घूरा --चुप नहीं बैठा जा सकता था! ......मकान मालिक की बांछे खिल गयीं......तुरंत सामान निकाल अपने हवाले कर दिया।
उन ससुरों को क्या बताता कि मैं उस घर के 2000 भी देने को तैयार था।

तीन महीने बाद ही रांची भेज दिया गया.... पर उस घर ने वापस बुला लिया यही कहूंगा.....हालांकि सुकांत जी ने भी दिल्ली-पटना एक कर रखा था।

मुजफ्फरपुर से दिल कब लगा बैठा, पता ही नहीं चला....जबकि न पानी....न बिजली.....बगल के खाली प्लॉट पर अक्सर सांप टहलते दिखायी दे जाते। चूहे-छिपकली कब साथ लेट जाते.....रात को तीन बजे स्कूटर अपने आप खाई-खड्ड तलाशने लगता (जीप छोड़ दी क्योंकि उसमें यमराज बगल में ही बैठता था)....तराई के चलते भड़कते दमे पर अंकुश लगाने को विभिन्न पैथियों के डॉक्टरों की तलाश.... इन सबका तोड़ निकाला कि पानी उबाल कर पिया जाए, खाना एक वक्त और रात का सोना ऑफिस में। फ्रेंचाइजी मारवाड़ी.. तो बनिया कार्ड खेल कर उनका दिल पिघलाया....अब हाथ साफ करने को उन्हीं की पेंट्री में निर्मित भोज्य पदार्थ। रात दो बजे के बाद सोने के लिये अपने क्यूबिकिल में साइड में लगी लम्बी दराज पर बिछावन।

एक साल के अंदर ये हाल कि न दिल्ली भाए न लखनऊ.....हर छुट्टी में दो दिन पहले मुजफ्फरपुर जाने वाली गाड़ी पर सवार। महीने में एक बार पटना जरूर। सुबह तड़ से उस फ्लैट की घंटी बजाता....दरवाजा खुलते ही टकराता जोशीआना स्वर.....हां जी...आ गए! पूरी तरह तरो-ताजा होने को पूरे 24 घंटे.....अगली शाम फिर धचकेदार एनएच 24......

पता नहीं किसके फजल से उत्तर बिहार के सभी ब्यूरो की बिहारी भाषा में लखनवी हींग का छौंका लगाने का मौका हाथ लगा......मोतिहारी, दरभंगा, सीतामढ़ी, बेतिया, समस्तीपुर, बेगूसराय, मधुबनी के गली-कूचों के दर्शन...
सीतामढ़ी में ब्यूरो इंचार्ज रविकांत सीता जन्मस्थली दिखाने को घसीट ले गये। उस तालाब में सुअर भी घुसने से घबरा रहे। यह हाल देख लौट कर आडवाणी जी को खुला पत्र जारी किया....... श्री राम पर इतनी हाय-तौबा कि देश भर में आाग लगवा दी और उनकी घरवाली की जन्मस्थली कूड़ेदान बनी हुई है, उसकी कोई फिक्र नहीं.. वो जवाब देते भी क्या...सीता के नाम पर तो वोट मिलने से रहे।

एक अखबारी छुट्टी पर वैशाली भी। बुद्ध लेटे पड़े थे, महावीर बैठे हुए......आाम्रपाली पेड़ पर लटक रही।
हर कोई यहां-वहां बिखरे ईंट-पत्थरों को ऐसे दिखा रहा......जैसे ढाई हजार वर्ष पहले लिच्छवि गणतंत्र ने मगध सम्राट अजातशत्रु की सेना को इन्हीं की मार से दौड़ाया हो।

हरहरा कर चौड़े से बह रही नारायणी को देख मन प्रसन्न हो गया। उस किनारे पर छपरा.....पुल पार कर दूसरे जिले में चाय पी....साथ में निमकी भी..... और लौट पड़े तीन टांग की कार पर, क्योंकि चौथे पहिये के लिये सड़क ही नहीं थी।

एक और छुट्टी पर मोतिहारी से रक्सौल.....और घुस गये वीरगंज में.....सही बोला था ज्योतिषि ने कि...विदेश यात्रा का योग है....
तीसरी छुट्टी पर नेपाल में ही जनकपुरी के दर्शन । असली मिथिला। सुना, वहां भी है सीता जी की जन्मस्थली। अयोध्या से हर साल श्री राम की बारात वहीं जाती है, लाखों की भीड़ होती है। जबरन श्रद्धाभाव पैदा कर मंदिर में घुसे तो गाय, बैल और सांड़ ...एक साथ तीनों के दर्शन। वहीं पेट हल्का कर आराम फरमा रहे थे। उनकी झाड़ू लगाती पूंछ श्वान जाति के कई छोनों को रास नहीं आ रही थी, इसलिये तुमुल संग्राम छिड़ा था।

इस बीच कांटी भी हो लिये, जहां थर्मल पॉवर स्टेशन तो राख की ढेरियों के बीच खड़ा था, पर बिजली नहीं दे रहा था। सड़े कोयले की खरीद में जम कर दलाली खायी गयी और लगा दिया गया अरबों का चूना। थोड़ा अंदर जाकर मुस्लिमों का कोई धार्मिक स्थल...बेहद भव्य और खूबसूरत....चारों तरफ लीची के बाग। ऊपर चढ़ कर देखा...चारों तरफ अंगारे दहक रहे थे जैसे। माली को इस बात के पैसे दिये कि अपने से तोड़ कर खाएंगे लीची।

जोशी जी लखनऊ हो लिये तो पटना अपने लिये पराया हो गया। अगले दो-तीन महीने दिन में ब्रहमपुरा के अपने घर से थोड़ी दूर संजय सिनेमा हॉल में कैसी भी फिल्म देखना........ या घर में खूब तेज आवाज में संगीत सुनना या किताबों के ढेर के बीच दफन हो सो जाने का सिलसिला, जो टूटा लोकसभा चुनाव के ऐलान पर.........


यहीं मिलते हैं............फिर.................................................................