मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

कैसे झेल लिया अपन को... उस्ताद!


हरियाली में ऐसे पौधों की भरमार होती है..जिन पर छोटी-छोटी काली फलियां लटक रही होती हैं.... उन्हें तोड़ कर पानी में डाल दो तो सब चटक-पट्ट की आवाज के साथ फटती हैं....चुनाव आयुक्त कृष्णमूर्ति के ऐलान ने अपने दिमाग के पट भी कुछ इसी तरह खोल दिये। कुछ ऐसी लिखने की सूझी कि छपे तो ठीक, अन्यथा अकेले में पढ़ कर ही मजा लिया जा सके। जोशी जी को लखनऊ फोन कर अपना इरादा बताया, भाई ने तुरंत उसका नामकरण तक कर डाला---------उलटबांसी--------अपने वालों से बात की तो पान भरे मुंह वाली मुंडी ऊपर से नीचे कर दी....किसी काम से पटना फोन लगाया तो आॅपरेटर ने लाख टके की सलाह दे डाली...सर जी...नये सम्पादक से दुआा-सलाम तो कर लीजिये....उसने लाइन मिला दी.....दुआ-सलाम तो हुई ही, अपने लेखन का पाटलिपुत्रीय भविष्य भी तय हो गया।

राजीव मित्तल


धंधे का नामकरण तो कर लिया...अब धंधा शुरू कैसे किया जाए....चुनावी लेखन में ऐसा कौन सा मसाला डाला जाए, जो रोज-रोज परोसे जान के बाद भी तान यही उठे......दिल मांगे मोर। यह तो शर्तिया था कि खाल ही उधेड़नी थी नेताओं की.....अपने से उधेड़ी तो मुकदमेबाजी तय है, जो संस्थान बर्दाश्त नहीं करेगा.....न ही वो यह बर्दाश्त करेगा कि राज्य सरकार करोड़ों के चुनावी विज्ञापन रोक दे। और अपन ये बर्दाश्त नहीं करेंगे कि दिल्ली से फोन आए कि क्या बकवास लिख रहे हो....किसने कहा था यह सब लिखने को....दिमाग के पट तो खुल ही गये थे.....मंटो की तरह 786 टांक शुरुआत कर डाली....महाभारत युद्ध को अपनी दैवीय आांखों से देख रहा संजय और उससे आंखों देखा हाल सुन रहे धृतराष्टÑ.....इस दिल की भड़ास निकालने को काफी थे.......दिल थाम कर की-बोर्ड पर टक टिक की और दे दिया अपने यहां....इंटरनल आईडी पर सब संस्करणों को भी भेज दिया.....नया सवेरा लेकर आया 2004 का पांच मार्च.....सब जगह चुनाव पेज पर उलटबांसी टंगी थी। अगले दिन मामला आगे बढ़ाया...लेकिन तीसरे दिन बेवजह धृतराष्टÑ और संजय को रथयात्रा पर निकले आडवाणी जी के साथ कर दिया।

महाभारत के सभी चरित्र याद कर डाले.......दिमाग के खुले पटों में उनमें से एक घुस गया------बर्बरीक-----भीम का ग्रैंड सन और घटोत्कच का बेटा.....पर, इसका तो धड़ ही गायब था अपने कृ ष्ण जी की कारस्तानी के चलते......एक पेड़ की डाल तलाशी गयी....जहां उसका थोबड़ा टिकाना था.....लेकिन अकेले बर्बरीक से क्या भला होना था अपना......जमाना बरखा दत्त का है तो क्यों न किसी चैनल की बाला को बर्बरीक से भिड़ाया दिया जाए......वाह सर जी, क्या आइडिया है..........इन दोनों ने मिल कर सभी नेताओं की जम कर फजीहत की और भारतीय राजनीति के धुर्रे उड़ाए.....तो अगले 60 दिन तक चली उलटबांसी।

केन्द्र में सरकार बन जाने पर फिर खाली हो गया.....अब क्या किया जाए....किसी ने सलाह दी कि दमे के रोग में सुबह की ताजी ताड़ी बड़ा फायदा देती है......साथ देने के लिये मिल गये प्रोडक्शन मैनेजर त्रिपाठी जी, जो साथ में रात काली करने के आदी थे। जनसत्ता, चंडीगढ़ से ही तूतू-मैंमैं....बस एक ही ऐब था....जल्दी पेज दो-जल्दी पेज दो की चिल्लाहट ..... जिसे दबाने के लिये सुर को अ ौर ऊपर ले जाना पड़ता था, जो अपने को वरदान में मिला ही हुआ है।

हम दोनों अपने-अपने घोड़े पर सवार उस जंगली इलाके में ताड़ के पेड़ पर लटकी हंडिया तलाशते। जान जोखिम में डाल कई बार खुद ही पेड़ पर चढ़ कर हंडिया मुंह से लगायी.....एक दिन पकड़े गये तो 20 रुपये देकर छूटे। फिर उसी पकड़ने वाले की झोपड़ी में ताड़ी सेवन चला... दो-चार दिन तो ताजी ताड़ी मिली....लेकिन एक दिन सुबह सात बजे के आकाश में जब चांद-तारे नजर आने लगे तो दमे को लानत भेजते हुए लौट आए होम्योपैथी पर।

लखनऊ से लौट कर बिहार को ऊपर से नीचे दो-चार बार देखा और वहां सदियों से चल रहे खेल .....राजनीतिक और प्रशासनिक लूटमार.....बिहार वासियों की दुर्दशा, उसके बावजूद उनकी जीजीविशा पर कलम चल पड़ी खुला खेल फर्रुखाबादी वाले अंदाज में.......एक सुबह जब पानवाले ने कहा.....सर जी मजा आ गया तो दिल पान-पान कर उठा। नजरिया नाम देकर बिहार-विशेषकर उत्तर बिहार पर लेखन शुरू हुआ, जो महीने में सात-आठ पीस तक पहुंच गया।

चकवर्ती राजगोपालाचार्य की रामायण के दो राक्षसी चरित्र पकड़ कर दंडकारण्य की डायरी के नाम से एक और कॉलम शुरू कर दिया। फिर उत्तर बिहार में भीषण बाढ़ ......सुकान्त जी ने प्रस्ताव रखा-जब तक चाहूं बाढ़ पर लिखूं........बाढ़नामा के नाम से आठ दिन लिखा उसके बाद हाथ खड़े कर दिये। दिसम्बर शुरू होते ही बिहार में विधानसभा चुनाव के ढोल बजने लगे। चुनाव-चुनाव का नाम दे एक नया कॉलम शुरू किया, जो 25 फरवरी 2005 तक जारी रहा। इसमें काक भुषुन्डि और गरुड के जरिये जम कर निकाली भड़ास..... दरभंगा सीतामढ़ी व शिवहर में जा कर चुनावी प्रहसन की रपट भी लिख मारी.......

2005 की बरसात में पहल के सम्पादक ज्ञानरंजन जी को एक पत्र के साथ नजरिया में ताजा-ताजा छपा कुछ भेज दिया। फौरन जवाब आया कि शहरनामा के लिये लिखूं.......दिल्ली या लखनऊ पर......अपनी इच्छा मुजफ्फरपुर पर जोर मार रही थी.....बोले.. तीन साल में इतना समझ लिया कि मुजफ्फरपुर को चुन रहे हो! क्या कहता कि मैंने नहीं..इस शहर ने मुझको समझ लिया.....खैर किसी तरह मनाया उन्हें ....... एक महीने तक नेट पर मुजफ्फरपुर का इतिहास छाना......गजेटियर भी पलटे....... अपने चिकित्सक दोस्त डा. निशीन्द्र किंजल्क और एमडीडीएम कालेज की प्रोफेसर मैडम विनोदिनी शर्मा के कई घंटे बरबाद किये। फिर जैसे-तैसे लिख कर जबलपुर भेज दिया, जो पहल के 83 वें अंक में छप भी गया। गजब.....!!!! .....अपन तो लेखक सही मायने में अब बने.......

इसी दौरान ज्ञान जी से 1857 की गदर पर चर्चा की थी। शहरनामा छप कर आया तो परिचय के साथ यह सूचना भी थी कि अगले अंक में 1857....... अब हिन्दुस्तान के सम्पादकीय पृष्ठ पर भी छपने लगा। लेखों के अलावा नक्कारखाना कॉलम में करीब करीब हर सप्ताह। एक-डेढ़ महीने में 1857 पर लेख तैयार कर जबलपुर भेज दिया। अग्रिम सूचना साथ में कि अब कालाजार पर काम करने जा रहा हूं। यही जानकारी देते हुए ज्ञान जी ने पहल 84 में 1857 छाप दिया। कालाजार पर लिखने के लिये डा. निशीन्द्र किंजल्क के पास जम कर बैठकी लगायी। पहल के लगातार तीसरे अंक में अपनी मौजूदगी थी।

इस बीच दो किताबों की समीक्षा भी। रश्मि रेखा के सम्पादन में मदन वात्स्यायन की कविताएं शुक्रतारा के नाम से प्रकाशित हुई थीं। प्रति हाथ लगते ही एक सांस में सारी कविताएं पढ़ गया.......तुरंत ही लिख भी मारा। अपने अखबार की साप्ताहिकी में छपने के बाद रश्मि रेखा से पता लिया और दोबारा लिख कर दस्तावेज के लिये गोरखपुर भेज दिया। मैडम विनोदिनी शर्मा के परिवार से काफी जुड़ाव था.......उसी परिवार के पंकज राग ने 65 साल के हिन्दी सिनेमा के संगीत पर अद्भुत किताब लिखी- धुनों की यात्रा। अपना प्रिय विषय था। किताब के एक हजार पन्ने खत्म करने में एक सप्ताह लग गये। इसे तद्भव के लिये लिखा।

अब मुजफ्फरपुर से विदाई का समय आ गया था। चलते-चलाते हरिमोहन झा की खट्टर काका हाथ लग गयी। उसे पढ़ फिर लिखने को मन करने लगा। लिखते-लिखते मुजफ्फरपुर से निकल जबलपुर पहुंच गया नई दुनिया अखबार में। वहां ज्ञान जी से बात की। उन्हें लेख पसंद आ गया इस टिप्पड़ी के साथ कि अबकी दंगा कराओगे..... और वह पहल 88 में प्रकाशित हुआ।

लिखने और पढ़ने का असली मजा मुजफ्फरपुर में ही मिला क्योंकि वहां सामाजिक सरोकार नगण्य थे.... और कुछ मिट्टी का भी असर। न खाने का होश....न सोने का.....कई बार घर की साज-सफाई करने वाली अपने गांव से आते वक्त कोई न कोई फल तोड़ लाती....उसने खूब बेल, अमरूद, लीची और आम खिलाए। उसकी समझ के बाहर था कि यह शख्स बगैर खाये जिंदा कैसे है। फिर आखिर वो दिन आ ही गया..............

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