शनिवार, 30 अप्रैल 2011
लखनऊ टु चंडीगढ़ वाया जलंधर
राजीव मित्तल
चंडीगढ़....मार्च शुरू हो चुका था.....ठंड से सुरसुराता......17 सेक्टर के बस अड्डे पर अम्बाला की बस का इंतजार....वहां से नीलगिरी एक्सप्रेस से शाम तक......लखनऊ से बुलऊआ जो आया है....तभी एक बस आयी.....
करीब सौ साल पहले रेलगाड़ी के एक कोच से किसी स्टेशन का नाम सुन वो उतर पड़ा था......
यह बस जलंधर जा रही थी.......चलो चला जाए.....कंधे पर बैग ....टिकट लिया....बैठ गया.....बस चल पड़ी.....और अम्बाला!! तुमको तो लखनऊ जाना है न......रात को जलंधर से पकड़ लेंगे....
बस के अंदर गर्माहट मिलते ही पलकें भारी........तुम......हां तुमसे तो मिलने को ही तो बैठा हूं जलंधर जाने वाली बस में.....नये साल पर तुम्हारा कार्ड मिला था......कि तुम चंड़ीगढ़ से जलंधर चली गयीं....नीचे एक लाइन.....आना जरूर.....इतने साल चंडीगढ़ में रहने पर तुमसे कितनी बार मिलना हुआ......बताओ तो.....तुम कब चली गयीं इसका भी चार महीने बाद पता चला......
पांच साल पहले जनसत्ता में इंटरव्यू देते रात हो गयी तो एक्सप्रेस प्रबंधन ने हम चार को पंचायत भवन ठहरा दिया....कि अब लेटर लेकर ही जाएं......सुबह उठे तो सामने ही 17 सेक्टर...तभी दिमाग में कुछ ठुनका...तुम्हारा बैंक भी तो यहीं-कहीं है....साथियों को ऑफिस में मिलने की कह तुम्हारी तलाश में निकल पड़ा....बहुत आसानी से मिल गयी स्टेट बैंक ऑफ पटियाला की वो ब्रांच....तुमसे.... मिलना..... हर बार की तरह धड़कनें तेज.....अंदर पूछा... ...जिस तरफ इशारा..नजर आ गयीं तुम...लेजर बुक में आंखें गढ़ाए..हौले से सामने जा खड़ा हुआ ....तुमने देखा.....चहक उठीं एक दम......तुम.. लखनऊ से चंडीगढ़ में!!!! हां .....जनसत्ता में आ गया हूं......कुछ पल दोनों खामोश .....कई सारी बात कर डालने का अनोखा लेकिन आजमाया हुआ तरीका....चाय तो पियोगे न......ज्वायन करो....तो हमारे यहां आ जाना......अभी तो एक साल अकेले ही रहना है...देखता हूं....अच्छा हमारा पता लिखो.....
चलो प्रीत से मिलवाऊं...पास ही में उसी बैंक की दूसरी ब्रांच.....मिल के खुश हुए ....आप हमारे घर ही ठहरना.....वहां से निकल ऑफिस ...लेटर लेकर बस से दिल्ली....फिर उसी रात लखनऊ......दस दिन बाद फिर चंडीगढ़......अपने आने का बताया फोन पर......तुम कल आ जाओ.....खाना साथ खाएंगे.....नॉनवेज! नहीं...ठीक है...कल शाम को वेट करेंगे....दूसरे दिन शाम को सुशील को पकड़ा....यार जरा पहुंचा दे.....चल जल्दी कर....शाम गहराते ही डबल सवारी पर रोक लग जाती है यहां....सही नम्बर के सामने रुका स्कूटर...बस दो मिनट ठहर...फिर चले जाना...मकान में घुसा...किसी और का निकला....यार नम्बर तो यही है.....चल ए बी सी.. सब में देख लेते हैं.... अभी समय है...
एक घंटे की तलाश के बाद भी सड़क पर ही.....अब चल यार...पुलिस वाले परेशान करेंगे.....वापस ऑफिस .....दूसरे दिन फोन मिलाया...तुम बम की तरह फटीं....पहली बार इतनी नाराज...कल तुम्हारे लिये कितना कुछ बनाया....प्रीत भी लगे रहे.....तुम थे कहां...सारा फ्रिज में पड़ा है ....क्या मैं इतना खाता हूँ ...इससे क्या तुमको ....मैं फलाने सेक्टर में तुम्हारा घर तलाशता रहा.....मैने तुमको वो नहीं वो सेक्टर लिखवाया था.....मारे गये....कागज निकाला.....बेवकूफ अपनी राइटिंग सुधार....36 को 33 समझ तलाशता रहा कल सारी शाम......भूखे पेट सोना पड़ा.......
पांच साल में कुल जमा चार मुलाकात....यह पांचवी.....अगर हुई तो....
जलंधर आ गया लगता है.....हां......उतर कर पता किया तो नजदीक ही थी वो जगह...पैदल ही पहुंच गया....नीचे पता किया पहली मंजिल पर फ्लैट.......ग्यारह बज चुके थे....धूप गरम.....इन दिनों तुम बैंक नहीं जा रहीं.....तुम दोनों ही का ट्रांसफर हो गया है न....जाने की तैयारी.....बाहर खिड़की से देखा.. तुम किचन में थीं...आवाज दी.....नजरें उठायीं.....अरे तुम.......आओ अंदर...बैठो आराम से....हां जी......तो क्या चल रहा है.....लिखना-पढ़ना...संगीत सब उसी तरह..कैसा है चंड़ीगढ़.....लखनऊ जा रहे हो......आज.....मेरे को तो बहुत दिन हो गए!......तुम एक दिन तो रुको ..इतने दिनों बाद मिले हो.....पहले कुछ खिलाओ...भूख लगी है...चाय भी ....अभी लो.....
प्रीत बम्बई जा चुके थे.....तभी बेटा स्कूल से आ गया.....पिछली मुलाकात में शतरंज खेली थी....आज क्रिकेट खेलने को नीचे पकड़ ले गया.....तुमने आवाज़ दी...ऊपर आए तो दोनों को डांट पड़ी......खाना लग चुका था.....टीवी पर कोई वनडे....पता नहीं तुम कब उठ कर चलीं गयीं......देखा॥ तुम नहीं हो.....तलाशा...सोती मिलीं तुम.....यह कोई बात होती है.....उठो........कुछ नया सुनाओ न...बहुत दिन हो गये.....उस समय अपने ऊपर हबीब वली मोहम्मद सवार था......फिर खामोशी ....अच्छा ...एक और...फिर चाय.....चलो तुमको अपनी फ्रेंड से मिलवाऊं........पैदल चलते रास्ते में बेटे ने जिद की.....आज रुक जाइये.....मम्मी रोको न इन्हें......बेटा हमारी तो सुन नहीं रहे......तुम्हीं रोको.....इतना कह रहा है तो रुक क्यों नहीं जाते......
अंधेरा हो चला था..काफी चलना पड़ा......फ्रेंड का घर......इनसे मिलो....ओहो...तो आप हैं.......कॉफी चलेगी न....बहुत प्यारी बेटी.....काबुली वाले की तरह झोली में डाल भागने का इरादा.....सोच कर मजे ले रहा..........ड्राइंगरूम में हल्का अंधेरा.......अब इनसे सुन लो जो सुनना हो..... दोपहर वाली गजलें.....लम्बा सन्नाटा......धीरे से कहा तुमसे ...ट्रेन देर रात को है.....स्टेशन तुम्हारे घर से दूर है.....कैसे जाऊंगा....गहरी सांस ले कर बोलीं तुम......तुम नहीं रुकोगे न....ठीक है....इसको को मनाओ . कार है...वो भी साथ में घर चली चलेगी.....खाना खा कर हम दोनों तुम्हें छोड़ आएंगे.....फ्रेंड सुन कर हंसी..रात्रि जागरण का इरादा है ...तो फिर एक गाना और.....ड्राइंगरूम से बाहर निकलने का रास्ता भूल दूसरे कमरे में घुस गया....जोरदार ठहाका...फ्रेंड बोली...तुम भी बिल्कुल ऐसा ही करती हो....
कार से घर.....सब चहक रहे....पहली बार तुम्हारे सामने इतना सहज.....खाना खाकर बैठे......एक बार फिर सुना दो न....जा कहियो उनसे नसीम-ए-सहर........ग्यारह बज गये.....अब चला जाए.....दोनों बच्चे घर में ही.....कार में .....तुम दोनों आगे....नहीं...तुम इनके बगल में बगल में बैठो...मैं पीछे बैठती हूं.....रात का सन्नाटा.....तेज ठंडी हवा.....तुम कोई ऐसा गाना सुनाओ...जिसे हम सब मिल कर गाएं......गाना गाते....खिलखिलाते-हंसते आ गया...जलंधर स्टेशन......फिर वोही खामोशी .......तुम्हारी तरफ देखा....बहुत उदास.....तुम्हारी फ्रेंड कुछ बोली.....हाथ हिलाया....और स्टेशन की तरफ मुड़ गया........
एक घंटे इंतजार करना था रेलगाड़ी का.....क्या करता....चलो यही सही.....
कोई हिसाब-किताब लगा कर तो नहीं चला था लेकिन हिसाब बारह घंटों का ही है लम्बी दूरी तय की थी तुम तक पहुंचने को समय की नाप-जोख हो तो बरसों की दूरी ठीक बारह घंटे बाद की रात जहां तुम मुझे छोड़ गयीं सब कुछ था चोंधियाने वाली रोशनी लोगबाग बेहिसाब शोर बेसलीका आवाजाही इन सबके बीच..मैं वीराने में गुम काठ सा मार गया था दिमाग में चल रहा उन बारह घंटों का हिसाब-किताब पहले चार घंटों का दूसरे चार घंटों का और हथेली से फिसल गये अंतिम चार घंटों का सबको अलग-अलग करता रहा कुरेद-कुरेद कर घंटों को मिनटों में मिनटों को पलों में सोचा...कुछ तो पता चलेगा क्या खोया क्या पाया हिसाब यही निकला लेकिन मैं जी चुका था उन बारह घंटों को
लखनऊ में तीसरे दिन तुम्हारा खत....विदा होते समय तुमने मेरी आंखों में झांका होगा.....उस बियाबान में गुम होने से पहले ही तुम चली गयीं....ऐसा ही कुछ था तुम्हारी कविता में.........