गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

पिछले कई दिन से  अखबार की एक खबर स्थायी कॉलम का रूप ले चुकी है.……  वो खबर है किसानों के मरने की …बस …… संख्या घटती बढ़ती रहती है.… इस बार के मौसम की  ने हज़ारों साल से  चली आ रही किसानों की बदहाली को चरम पर पहुंचा दिया …… और उतना ही चरम पर पहुँच गया किसानों के साथ चल रहा आज़ाद भारत की आज़ाद सरकारों का मज़ाक …… जो बड़ी निर्ममता और क्रूरता के साथ चल रहा है ……साथ साथ घड़ियाली आंसू भी कम  नहीं बहाये जा रहे हैं  
इस बार तो प्राकृतिaक विपदा के नाम पर सरकार अपना दामन बचा ले जाएगी …… लोेकिन आगे क्या होने जा रहा है........  इस बारे में सामाजिक संगठन … शासन-प्रशासन … और मीडिया कुछ सोच रहे हैं क्या .......... पिछले पंद्रह वर्षों में करीब डेढ़ करोड़ किसान खेती और घर-बार छोड़ शहरों में रिक्शा चला रहे हैं  मज़दूरी कर रहे हैं.…
इन हालात में अब जैसी सरकारें शासन कर रही हैं तो आप  समझ लीजिये कि आपकी थाली में परोसे गए भोजन का हर अंश बाहर से मंगाना पडेगा जो हर किसी की जेब पर बेहद भारी पडेगा …खेत और कृषि अब किसान  नहीं रह गए
ऐसा होने देने के लिए बाकायदा सदियों से साज़िश चल रही है क्योंकि किसान को इंसान समझना हमने हज़ारों साल से भुला दिया है तभी तो आज  उसके  पास आज न तो न तो गाय है न बछड़ा न बैल है न हल …… हाँ सरकार ने उसकी भलाई के लिए मनरेगा नाम का एक उद्योग ज़रूर खड़ा कर  दिया है जिसने उसको अपनी ही बस्ती में मज़दूर बना  दिया है

4/16/15 
ज्ञान जी से अपनापा बहुत रहा  लेकिन जान-पहचान शून्य …… अड़तालीस साल पहले खुर्जा में चाचा प्रभात मित्तल की शादी में ज्ञान जी सुभाष परिहार के साथ आये थे … तो जनवासे में खुसुर-पुसुर होने लगी....कौन आये हैं ये देखने हम भी उस छोटी सी भीड़ में शामिल हो गए … काली दाढ़ी और बड़े बाल वाले ज्ञान जी काफी हंसमुख लगे …… बस, अगले   कई साल इस परिचित नाम के गुजर  गए … पहल ने ज्ञान जी को कभी भूलने ही नहीं दिया … जबकि पढ़े या देखे दो-चार अंक ही होंगे....

फिर 1995 में ज्ञान जी  और परिहार जी से मेरठ में मुलाकात …दोनों अपने स्वर्गीय मित्र  की शादी में आये थे … अगली सुबह दिल्ली तक का साथ और  समय एक छोटी सी नमस्ते.... अगली दो मुलाकातें जैसे आपस में टकराना जाना …

फिर तो दस साल गुजर गए....अब अपना मक़ाम था मुजफ्फरपुर .... अखबार जम कर लेखन हो रहा था … तभी रश्मि रेखा ने राग छेड़ा कि आप पहल  नहीं लिखते …… उसी दिन छपा कुछ भी ज्ञान जी को भेज दिया …साथ में उन मुलाकातों का जिक्र भी … कुछ ही दिन में ज्ञान का जवाब … पिछला कुछ याद नहीं....प्रभात की याद है....तुम्हारा लेखन काफी अलग हट कर है....  पहल के लिए शहरनामा लिख कर भेजो … भेज दिया और पहल में छप  भी गया....फिर क्या …  मैं  विषय बताता और वो पहल में  छापने का ऐलान …सुयोग से जबलपुर ने अपने पास  बुला लिया …वहां पहुँचते ही ज्ञान जी  खोजा … पता चला अपनी बेटी के पास यूएस गए हुए हैं … मायूस हो गया … एक दिन किन्ही पंकज स्वामी का फ़ोन आया की ज्ञान जी आपको तलाश रहे हैं आप उन्हें फ़ोन कर लीजिये …फ़ोन पर उन्होंने बेहद खुशी जताई और घर आने को कहा … तुरंत किसी को पकड़ उनके घर गया....खूब सारी बातें हुईं .... अगली बार घर गया तो अपना एक लेख भी ले गया ....देख कर बोले कि पिछली बार लेकर क्यों नहीं आये इस अंक में छाप जाता....कुछ दिन बाद उनका फ़ोन आया ये लेख तो  भयंकर है दंगा हो जाएगा....…  ज्ञान जी से मुलाक़ात होती रही  .... अचानक जबलपुर छूट गया … तीन  साल बाद  जबलपुर जाने और ज्ञान जी  का सिलसिला शुरू हो गया … पर  यही कहूँगा कि  अपनापा तो बहुत है पर जान-पहचान बहुत कम  

6/24/15
इश्किया गठबंधन में ससुरा धर्म ......लानत है

एक अखबार में खबर दिखी कि कई सालों से इश्क कर रहे मुसलिम युवक और हिन्दू युवती ने घरवालों को राजी कर शादी कर ली ...... बजरंगदलियों से पूछो तो उनकी छाती पे सांप लोट गया होगा ... मामला कर्नाटक के मांड्या जिले का है ...... दोनों निचली कक्षा से साथ साथ पढ़ते हुए एम बी ए भी साथ साथ किये ..... रोजगार से लग गए तो शादी करने का फैसला किया ....... यहां तक तो सब कुछ सहज और सुंदर है .... 

बात दोनों के मां-बाप तक पहुँची ...  काफी समझाया लेकिन दोनों अड़े रहे ... अंत में दोनों पक्ष तैयार .... पर, लड़के के पिता ने रिश्तेदारों और समाज का हवाला देते हुए अपनी बात कह दी कि विवाह से पहले लड़की अपना धर्म बदले .... अपनी जान देने जा रही लड़की के माता-पिता इसके लिए भी  तैयार हो गए और दोनों का निकाह हो गया .... कितना अच्छा होता अगर दोनों अपने आप को बदले बिना अपनी  गृहस्थी बसाते .... 

दोस्तों सही बात तो ये है कि  ऐसे किसी भी मामले में धर्म को बीच में लाना इंसानियत का अपमान है..........        


4/29/16
सरकारी नौकरी के जायके

तांगे  से आयी कि रिक्शा  से या उड़ कर ...  घर में घुसी और  बोली .....  नाकारा इंसान कुछ करेगा भी या यूं ही ज़िंदगी भर बाप की रोटी तोड़ेगा ..... ये थी सरकारी नौकरी  .... बराए मेहरबानी ठाकुरप्रसाद सिंह .......

सम्भावना प्रकाशन के काम से या यूं ही मिलने को अशोक जी जब भी लखनऊ आते किसी ना किसी साहित्यिक हस्ती से ज़रूर मिलवाते ..... निरालानगर वाले घर  में रवींद्र वर्मा, उनकी लेखिका पत्नी, बटलर पैलेस में श्रीलाल शुक्ल और सूचना विभाग में उप निदेशक और "वंशी और मादल" के रचयिता ठाकुर प्रसाद सिंह, उत्तरप्रदेश  मासिक के राजेश शर्मा आदि आदि ...... ... 

कुछ साल बाद साथ  निभाने आ गए महान कवि  अनिल जनविजय .... बहुत मौज के दिन कट रहे...एक  शाम ठाकुर साहब किताबें देखने (उन दिनों सम्भावना प्रकाशन की किताबें लखनऊ में बिकवाने का काम अपन को सौंपा गया था.... तो हम भी कुछ हैं ये दिखाने को अपनी मित्र से मिलने पायनियर के सामने वाले बैंक ऑफ़ पटियाला में किताबों वाला बोझा ले कर अक्सर जा धमकता)..... घर आये......  किताबें देखते देखते अचानक पूछ बैठे ... तुमने क्या किया है ..... एम ए ! तो इतने दिन से क्या कर रहे हो ...  इतनी सारी जगह निकली हैं तुमने देखा भी नहीं ....कल ऑफिस आ कर पिछली डेट की एप्लिकेशन दो ....  और कल से ही दिहाड़ी पे लग जाओ दस रुपये मिलेंगे .... दो महीने बाद टेस्ट और फिर नौकरी पक्की .....


रोज दस रुपये यानी रोज एक पिक्चर विथ कॉफी ......  रंजना में.....  दो महीने बाद सूचना विभाग ने हरकारा भेज दिया कि हो जा शुरू..... हैय्या रे हैय्या ...  हैय्या हो 

आगे पढ़ने की इच्छा हो तो बता देना .......जारी .......     

4/30/16
सरकारी इमारत में छपाक छई छई

31 दिसंबर की रात फुफेरे भाई की क्लिनिक में ओल्डमौंक और  कैपिटल के सामने ठेले पर बिरयानी भकोस मेफेयर में सिनेमा देख अगली सुबह कुड़कुड़ाते हुए आठवीं क्लास के बच्चे की मानिंद सूचनाविभाग में घुस ठाकुर साहब के हीटर से गर्माए कमरे में एक कुर्सी पे पसर पूछ डाला  .. अब क्या करूँ..... वही करो जो मैं कर रहा हूँ .... मेरा चपरासी और सूचना निदेशक कर रहे हैं ...... सरकारी नौकरी ...  
पढ़ते  तो खूब हो .....  कुछ लिखते विखते हो या नहीं ? जी, लिखने को तो ख़त भी लिखना नहीं आता.... हाँ, अनिल जनविजय ने कविता लिखना सिखा दिया है..... भन्ना कर बोले ... लानत है ...  कवि  तो यहां बहुत सारे हैं .... जाओ हज़रतगंज का चक्कर लगा आओ  तब तक कुछ सोचता हूँ .......            


बाहर निकल एक अफसर के कमरे के बाहर खड़े चपरासी से बीड़ी माँगी ... वो पता नहीं किस तुफैल में बाहर ले  गया चाय पिलाने .... उस से पूछा कि मेरे बैच के  कितने लोग आ गए ... अजी लगते तो नई बहार के आप ही पहले हो .... गंज सामने ही था यहां वहां टूल, न्यू ईयर के कार्ड खरीद वापस हो लिया.... ठाकुर साहब बोले .... कल देखते हैं.... तभी बगल वाले कमरे से कुछ आवाज सुनी तो हिम्मत कर धंस लिया .... नानी की नाव के कई सामान वहां मौजूद थे..... कुछ चीं चीं चूँ चूँ के बाद सात-आठ भेड़ों का रेवड़ फिर गंज की ओर चल पड़ा .... 

लौटते में चार बज गए .... तब तक मन कई फैसले कर चुका था .... ससुरी इस सरकारी नौकरी को अपने माफिक बनाना है और चार बजे के बाद ऑफिस में नहीं रुकना है.... और जो रुकता है वो धंधेबाज होता है या बीवी  का मारा होता है ....(ये बाद के अनुभवों  से पता चला)   ..... 

तो ये था सरकारी दमादी का पहला दिन .....            

5/1/16
बाल बाल बचना बाबूगीरी से 


दूसरे दिन उस इमारत में अपने बैच का एक और लखेरा दिनेश दीनू मिल गया .... गंजिंग का माकूल साथी... दोनों को उत्तरप्रदेश मासिक के सम्पादक राजेश शर्मा के साथ लगा दिया गया .... उनको पहले से जानता था ... एक समय फोटोग्राफी का शौक चर्राया तो निकल पड़ता  भरी लू में साइकिल पर दूर दराज जहां तहां .... उस समय के खींचे फोटो राजेश जी को पसंद भी खूब आये .... अब उनसे खूब गपशप होती .... हालांकि ठाकुर साहब जैसे अड्डेबाज नहीं थे.... अपने साथ ज़्यादा रहते .... सबसे बड़ी बात कि उनका साथ "सरकारी" होने से बचाता .....   

अगले दिन पैरों के नीचे से ज़मीन सरक गयी ..... किसी चपरासी ने दीनू और मुझे कॉरिडोर में रोका और कहा साहब बुला रहे हैं .... कमरे के दरवाजे के ऊपर सहायक निदेशक  फलाने मिश्रा के नीम की तख्ती.... अंदर घुसे....  उनको देखते ही बायीं आँख फडफडाई .... लगा कि अब कलर्क बनने से ब्र्ह्मा भी नहीं रोक सकते क्योंकि वो सहायक निदेशक अंग अंग से सरकारी महकमे के बाबू लग रहे थे              
 


5/13/16
सरकारी नौकरी के दूसरे दिन ही हंगामा  


दूसरे दिन उस इमारत में अपने बैच का एक और लखेरा दिनेश दीनू मिल गया .... गंजिंग का माकूल साथी... दोनों को उत्तरप्रदेश मासिक के सम्पादक राजेश शर्मा के साथ लगा दिया गया .... उनको पहले से जानता था ... एक समय फोटोग्राफी का शौक चर्राया तो निकल पड़ता  भरी लू में साइकिल पर दूर दराज जहां तहां .... उस समय के खींचे फोटो राजेश जी को पसंद भी खूब आये .... अब उनसे खूब गपशप होती .... हालांकि ठाकुर साहब जैसे अड्डेबाज नहीं थे.... खुद के  साथ ज़्यादा रहते .... लेकिन  उनका साथ "सरकारी" होने से बचाता .....   

अगले दिन पैरों के नीचे से ज़मीन सरक गयी ..... किसी चपरासी ने दीनू और मुझे कॉरिडोर में रोका और कहा साहब बुला रहे हैं .... कमरे के दरवाजे के ऊपर सहायक निदेशक  फलाने मिश्रा के नीम की तख्ती.... अंदर घुसे....  उनको देखते ही बायीं आँख फडफडाई .... लगा कि अब कलर्क बनने से ब्र्ह्मा भी नहीं रोक सकता  क्योंकि वो सहायक निदेशक अंग अंग से सरकारी महकमे के बाबू लग रहे थे........ देर तक चली चिक चिक बूम बूम के बाद मामला ठाकुर साहब के पास ले जाया गया ......


लेकिन ठाकुर साहब ही क्या उखाड़ लेते मिश्रा ए सरकार का ...... हम दोनों से बोले कर लो भाई इनके साथ कुछ दिन  काम .....हम दोनों  ने दो दिन उसको सूरत ही नहीं दिखाई ...... आखिर कार राजेश शर्मा का सहारा लिया..... उन्होंने तिकड़म भिड़ाई और हम दोनों उत्तर परदेश मासिक में .....        




5/20/16
"टीपू सुल्तान बर्बर हत्यारा था" उसके कार्यक्रम में मुझे न बुलाये - अनंत कुमार हेगड़े, केंद्रीय मंत्री !
..........................
अँग्रेजी सत्ता के खिलाफ क्रांति की लड़ाई लड़ने वाले मेरे सबसे प्रिय शासक टीपू सुल्तान हि है, और दंगाई गैंग ने टीपू का विरोध करके साबित कर दिया की वो वाकई अच्छे थे और मेरा चुनाव गलत नहीँ है !
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टीपू सुलतान के बारे में इतना जानना काफी है की -
वो अकबर के बाद हिंदुस्तान में साम्प्रदायिक सदभाव के सबसे बड़े चेहरे थे !
वो मुसलिम होते हुऐ भी राम नाम की अँगूठी पहनते थे, ये अंगूठी उनके मृत शरीर से तब निकाली गई, जब वे 1799 में श्रीरंगापट्टनम की लड़ाई में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के हाथों मारे गए थे !
लंदन स्तिथ क्रिस्टीज़ नीलामीघर ने सोने की इस अंगूठी को मई 2014 में 1 लाख 45 हजार पाउंड में बेचा !
(इस दंगाई गैंग को साम्प्रदायिक सौहार्द से हि नफरत है, तो स्वभाविक है, टीपू से भी नफरत होगी )
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भारत के मिसाइल कार्यक्रम के जनक एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी किताब 'विंग्स ऑफ़ फ़ायर' में लिखा है कि उन्होंने नासा के एक सेंटर में टीपू की सेना की रॉकेट वाली पेंटिग देखी थी उसीसे मिसाइल बनाने की प्रेरणा मिली !
(इस गैंग के वैज्ञानिक गोबर से कोहिनूर और गौमूत्र से सोना तलाशते है, फिर रॉकेट साईंस की जानकारी रखने वाले को गाली देना तो संघ धर्म हुआ )
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टीपू ने 18 वर्ष की उम्र में अंग्रेजों के विरुद्ध पहला युद्ध जीता था ! और 1799 में अंग्रेजों के खिलाफ चौथे युद्ध में मैसूर की रक्षा करते हुए टीपू सुल्तान की मौत हुई थी !
(अंग्रेजों के तलवे चाटने वाले संघी कैसे बर्दाश्त कर लेंगे की मैसूर का ये शेर छाती ठोककर उनके मालिकों के खिलाफ लड़ता रहा )
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और सबसे बढ़कर -
टीपू सुल्तान ने एक दिन में 5 करोड़ पौधे लगाये !
जोगी ने 2 लाख दीपक जलाएं !
(ये फर्क होता है एक शिक्षित में और एक गँवार में ! और शिक्षितो से इनकी नफरत जग जाहिर है, पानेसर, डाभोलकर, कलिबुर्गी , गौरी लंकेश को नहीँ छोड़ा फिर टीपू को कैसे छोड़ देंगे )

Girraj Ved
10/22/17
सेक्टर 7 में काबुलीवाला

बहुत मायूसी में दिन गुज़र रहे थे इस बियाबान सेक्टर में..सब कुछ अनजान..रास्ते भी, लोग भी, मकान भी, मोड़ भी, चेहरे भी..और कल की घटना तो अब तक टोहके मार रही थी..

तीन बजे 26 सेक्टर के लिए उस उदास सड़क पर उससे भी ज़्यादा उदासी से कदम बढ़ा रहा था कि एक कार धड़ाक से बगल में रुकी..ओये चील कित्थे है..आवाज़ मारू, तो कार में फंसे सरदार जी का अंदाज़ जानमारू..दिल में बगोले उठ रहे..बरसात की गर्मी में भी बहुत कम पसीने वाला शरीर जैसे नहा उठा..
ओ भाई बोलता क्यों नहीं.. कित्थे है चील..अब मैं क्या बताऊँ कि चील कित्थे है..नीले आकाश पे कुछ उड़ता नज़र आया तो जान में जान आई..ओ जी वो रही..ओ खोत्ते वो नहीं..चील भई चील..

अचानक मंटो का आगा हश्र कश्मीरी के बारे में लिखा याद आ गया..कि उनके नाटक की रिहर्सल में हीरोइन को एक शब्द बोलना नहीं आ रहा था तो गालियों की बौछार करते हुए आगा ने उसी शब्द के आकार का दूसरा शब्द जैसे ही मुहँ से निकाला, मोहतरमा तोते की तरह बोलने लगीं..अपन ने भी चील से मिलता जुलता शब्द याद करने की कोशिश की तो याद आया ..अबे चुगद सेक्टर 7 सुखना लेक से लगा हुआ है..और लेक की हिंदी होती है झील..सरदार जी आप झील का रास्ता पूछ रहे हो क्या..हां भई हां..चील चील चील..तो जी आप ऐसे जा के वैसे निकल जाओ..

कहां 20 सेक्टर की रौनक वाली जगह कहाँ ये खौफनाक इलाका..आफिस तक बस भी सीधे नहीं जाती..26 की मंडी तक पैदल.. वहां से इंडस्ट्रियल एरिया से बस पकड़ना..रात दो बजे तो आफिस का वाहन होता, लेकिन सारी तकलीफ जाने की...उस छह किलोमीटर के रास्ते पर कई बार पैदली भी हुआ..

अगस्त आते आते स्कूटर का विचार दौड़ने लगा..और वैसे भी चंडीगढ़ पसंद ही लड़कियों को बाइक चलाते देख कर आया था..तो साब, यहाँ वहां स्कूटर की चर्चा शुरू..एक ऑफ डे वाली शाम गेट के पास खड़ा आकाश को निहार रहा था तो देखा श्रीमती पूर्णिमा देवी किसी के साथ चली आ रही हैं...पंजाबन !..नहीं .. बोली तो हरियाणवीं.. ये ये हैं और ये वो हैं वाला सवा मिनट का परिचय..

हमारी कंपनी इंडियन एक्सप्रेस ने ईश्वर की सुनी और हमें किस्तों पर LML वेस्पा दिलवा दिया..अब चंडीगढ़ की सड़क पर सौ से कम की स्पीड में स्कूटर चलाया तो डूब मरना चाहिये न सुखना लेक में..तो कई बार आफिस की गाड़ी से रात दो बजे लौट कर स्कूटर उठाता और 50 किलोमीटर धुँआधार दौड़ाता..

कुछ दिन बाद पता चला कि उस रात मिली महिला हरियाणा की ही है और सेंट्रल स्कूल में पढ़ाती है..पति सरकारी हेल्थ इंस्ट्रक्टर.. चार साल का बेटा.. एक और के जन्म की तैयारी...
खास बात कि अब मिसेज मित्तल की सहेली..

तीन महीने की जच्चा छुट्टियों में एक बच्ची को जन्म.. छुट्टियां खत्म हुईं तो बच्ची के पालन के लिए बच्चाघर की तलाश.. साथ में होती पूर्णिमा...एक बच्चाघर के पालने में उसे डाल जैसे ही दोनों सहेलियां भरे मन से बाहर निकल रहीं कि दो महीने की बच्ची ने चिंघाड़ना शुरू कर दिया..मां पर तो जो भी बीत रही हो, पूर्णिमा ने दौड़ लगाई और लपक कर बच्ची को छाती से चिपटा लिया और वहीं का वहीं ऐतिहासिक फैसला सुना दिया.. इंदु..इस बच्ची को मैं पालूंगी.. 

11/15/17
सेक्टर-7 में मिनी भी...

जिस मां के दो शावक हों, उसने दूधमुहीं को पालने का निर्णय खुद ब खुद कर लिया...उसके ऐसे न जाने कितने फैसलों पर आज तलक ताना दिया जाता है कि असली नारीवादी तो तुम हो, जो कभी विरोध नहीं किया अपनी बीवी का...

अब क्या कहूँ..ये अपन का इकतरफा फैसला था कि वो मेरी ईश्वरहीन सोच में दखल नहीं देगी और न साथ में मंदिर मंदिर घुमाएगी...और न मैं उसकी जय जय गणेश की आरती या साल के 110 व्रतों में चूँ करूंगा..बाकी दोनों का कुछ भी किया धरा हम दोनों का..तो जी हमने भी मिनी के चक्कर में सुबह की बेहद थकान वाली नींद पर माटी डाल दी..यानी मिनी को पालने में अपन को कोई गुरेज नहीं...खैर..ये थोड़ी देर में..

सितंबर में पूर्णिमा के पिता गोलोकवासी हुए तो पूर्णिमा के रुदन में मैडम भी शामिल..फिर काफी समय अपने को अकेले रहना पड़ा...उस परिवार से अपना देखा देखी का भी संबंध नहीं था.. पड़ोस वाली सामाजिकता से अपना कोई लगाव कभी रहा ही नहीं..कई अच्छे बुरे मौकों पर ही पड़ोसियों को पता चल पाता कि यह इंसान भी इसी दुनिया में है...

दहिया परिवार में बेटी ने जनम ले लिया है ..पूर्णिमा से ही पता चला..उस दौरान विश्व भर में जितनी पैदाइश हुई होंगी, उसी खाते में पड़ोस का मामला डाल भूल गया..

अकेले रहने पर अपने को सब मंज़ूर था लेकिन रसोई में घुसना बिल्कुल मंजूर नहीं था.. दिन में जैसे तैसे ..रात के लिए आफिस में कैंटीन...या एक्सप्रेस-जनसत्ता वालों का टिफिनबॉक्स...
एक दिन दरवाज़ा खड़का.. मेरे साथ दरवाज़ा भी चौंक गया.. देखा तो दहिया साहब भोजन की थाली लिए खड़े हैं..पूर्णिमा की सामाजिकता को नमन कर हरियाणवी भोजन ग्रहण किया...

लेकिन रोज रोज की बंदिश या डिस्टरबेंस अपने को रास नहीं आता था, तो जनाब को कई बार खटखटा कर लौट जाना पड़ा...उस दिन ऑफ था तो टीचर जी ने बुलावा भेजा कि यहां आ कर खाना खा लीजिये..संदेसिया जो भी रहा हो, आग्रह जोरदार था...सकुचाते हुए वहां कदम धरा..पड़ोसियों वाले अंदाज़ में बातचीत..बच्ची पालने में..टीचर जी रसोई में, बीच बीच में ..खाना ठीक बना है न..जैसा कुछ भी..पूर्णिमा कह रही थी आप बहुत कम बोलते हो..अब आप यहीं आ कर खा जाया करो..उन दो चार दिन में ही पता चल गया कि दहिया साहब बहुत भले इंसान ही नहीं, बाकायदा गऊ हैं...तो मैडम तड़क...भड़क...कड़क..

कुछ दिन बाद हम फिर परिवारी हो गए..उधर मैडम के स्कूल शुरू..बच्ची का हमारे यहां रहने का हो ही चुका था..टीचर जी सुबह सात बजे स्कूल के लिए निकल जातीं क्योंकि स्कूल पहुंचने के लिए कई बसों की सवारी करनी होती...

राजीव मित्तल को रात दो बजे घर पहुंच कर पढ़ना ज़रूर होता..तो नींद आती चार बजे.. तीन घंटे बाद ही नींद तोड़ दी जाती..मिनी की मां पूर्णिमा का इशारा पा कर अपने कलेजे के टुकड़े को मेरे बगल में डाल जाती, तो चेहरे पर ज़रूर मुस्कान होती होगी..हम्म बड़े पत्रकार बने फिरते हैं..और फिर बच्ची की अठखेलियाँ शुरू..और मैं उसको सिर्फ निहारता रहता दोबारा नींद में जाने तक..(जो पता नहीं अब कब नसीब होनी थी)...हां..मुझे  मिनी जो मिल गई थी...

11/16/17
गुजरात चुनाव के मौके पर ...

बंदरों की सभा में नेताजी का भाषण चालू था-मैं आपकी आवाज को राष्ट्र की आवाज बनाऊंगा। बाग-बगीचे उजाड़ने को कानूनी जामा पहनाऊंगा। आप हमारे हनुमान हैं। आप को किसी घर में घुसने की कोई रोक-टोक नहीं होगी। 

हनुमान का नाम सुनते ही कैमरा थामे असुर सहोदरों इल्वल और पावति को चक्कर आने लगा। इधर, बंदरों में भी हलचल मच गयी। एक ने तो चुनाव सभा कवर करने आई केबल बाला का हाथ ही पकड़ लिया। किसी तरह वे तीनों वहां से भागे और पुष्पक को दौड़ा कर स्टार्ट किया और उड़ लिये। अब उन्हें मतदाताओं की तलाश थी। 

करीब एक घंटे की उड़ान के बाद उन्हें ढोल-ताशों की आवाज सुनायी दी। इल्वल ने पुष्पक उधर ही मोड़ लिया। नीचे देखा तो कई लोग बरगद के पेड़ के चारों तरफ नाच रहे थे। एक तालाब के किनारे पुष्पक उतारा गया। जैसे ही नीचे उतरे, उन्हें सबने घेर लिया। 

तुरंत केबल बाला ने कहा-हम आपसे यह जानने आए हैं कि आप अपना कीमती वोट पार्टी के आधार पर देते हैं या काम देख कर। 

एक बुजुर्ग ने हाथ से इशारा किया कि पीछे आओ। वह उन तीनों को बरगद के पेड़ के पास ले गया और किसी उल्लू की प्रतिमा दिखा कर कहा कि यह हमारे कुलदेवता हैं। हम इन्हीं के सामने अपनी बस्ती के वोट रख देते हैं और रात भर नाचते गाते हैं। सुबह वोटों पर वो ठप्पा मार देते हैं। हमारे कुल देवता के नाखूनों का ताबीज पहनने वाले गनपत राय का चुनाव निशान भी ताबीज ही है। 

गनपत राय अब तक तीन बार पार्षद, पांच बार विधायक और दो बार सांसद रह चुके हैं। दो बार से हम उसके बेटे को वोट डाल रहे हैं। गनपत राय ने आपकी भलाई के लिये क्या किया है? भीड़ में सब एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे। एक ने पूछ ही लिया-वोट का भलाई से क्या संबंध? उन पर हमारे कुलदेवता की कृपा है। 

केबल बाला का अगला सवाल..बिजली-पानी का क्या हाल है? देखो बिटिया, हमें बिजली की जरूरत ही नहीं। हम पेड़ों के नीचे रहते हैं, जुगनुओं से काम चल जाता है। सांसद जी के महल के बाहर गेट पर लगे बल्ब की रोशनी तो फ्री में मिलती ही है। 

और पानी ? बिटिया..उनके घोड़े, गाय-बैल और हम ढाई योजन दूर के तालाब पर जाते हैं। वहीं हम दिशा मैदान से निपट कर नहा धो लेते हैं और पीने का पानी भर लाते हैं..

आप लोगों की बेहतरी के लिये कोई योजना वगैरह? हां, कभी-कभी मशीन वाली फिल्म दिखा देते हैं, जिसमें अंसल के बनाये मकानों की कतार, बंसल की मिठाई, अरोड़ा की कुल्फी, उपाध्याय के चकाचक कमरों वाले स्कूल और चमचमाती सड़कों के दर्शन हो जाते हैं। उस दिन सांसद जी के नौकर हमसे चिरौंजी जरूर लेते हैं दो-चार टोकरे।

11/21/17
हां, कभी हुआ करता था देवानंद..


कई व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके न होने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। पंडित जवाहर लाल नेहरू के बाद ये मुकाम देवानन्द ने ही पाया ...इसे हम बटवृक्ष वाली खसूसियत भी कह सकते हैं, कि हम उस पेड़ की जगह पर खड़ी की जा रही कोई आलीशान बिल्डिंग बर्दाश्त न कर पाएं.. 

सदाबहार यही दो शख्स निकले, जिन्होंने अपना जमाना क्रिएट किया। भले ही 86 या 87 साल के हो गए देवानन्द पिछले तीन दशक से दर्शक रहित फिल्में बना रहे थे...या वो गले में लिपटे अपने स्कार्फ से...ब्राउन जैकेट से...रंग-बिरंगी कैप से....तिरछी चाल से....या अपनी साठ-सत्तर के दशक वाली इमेज से पीछा छुड़ाने के मूड में कतई नहीं थे......लेकिन उनकी सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वह अपनी पुरानी सफलताओं की याद में खोए जाम छलकाते हुए आहें नहीं भर रहे थे...न ही भगवान दादा और सी रामचन्द्र की तरह बेचारे कहला रहे थे.....न ही देवानन्द अपने समय की मशहूर तिकड़ी से जुड़े राजकपूर की तरह समय से पहले चले गए और न ही दिलीप कुमार की तरह बरसों की गुमनामी में जाने को मजबूर हुए.. 

देवानन्द कल तक हर उस जगह मौजूद थे...जहां नयी पीढ़ी का दबदबा कायम हो चुका था....उन्होंने रिटायर्ड हर्ट के रूप में क्रीज नहीं छोड़ी..

जनसत्ता, चंडीगढ़ में काम करते हुए, कई साल पहले लोकसभा चुनाव की रिपोर्टिंग के सिलसिले में होशियारपुर जाना हुआ...वहां से निकले तो और जगह होते हुए वापस चंड़ीगढ़....रास्ते में हम गुरदासपुर से भी गुजरे थे....देवानंद को जन्म देने वाला स्थान...तब भी उनकी फिल्में एक के बाद एक पिटती जा रही थीं...लेकिन देवानन्द बहुत याद आ रहे थे...यादों में चेतन आनन्द और विजयआनन्द भी छाए थे। अपने इन्हीं दोनों भाइयों की बदौलत देवानन्द ने समय को झकझोर देने वाला दर्जा हासिल किया था...

चेतन आनन्द ने उनके लिये जगह बनाई तो विजय आनन्द ने फिल्म गाइड में देवानन्द को उनकी इमेज से बाहर निकाल कर अभिनय के चरम पर पहुंचा दिया..देवानन्द को शुरुआत में ही गुरुदत्त का साथ मिल गया, जो देव के अभिनय की हर नस और उसकी रेंज से वाकिफ थे.....उनकी निर्देशित दो फिल्मों -बाजी और जाल ने ही देवानन्द को उनकी पहचान दी..

देवानन्द की फिल्मों को जब तक अपने इन दोनों भाइयों का निर्देशन मिला, वह हिन्दी फिल्मों की धुरी बने रहे....याद कीजिये... जब राजकपूर की राजपथ से हो कर आयी भारी भरकम फिल्म मेरा नाम जोकर हताशा को पहुंच चुकी थी, न जाने किस रास्ते से आयी जॉनी मेरा नाम की धमक चारों तरफ सुनायी दे रही थी...यह विजय आनन्द का कमाल था। 

अपनी फिल्मों का निर्देशन खुद करने के फैसले ने देवानन्द को न केवल समय से पहले दर्शकों के मन से उतार दिया, बल्कि देव को पर्दे पर देखने की उत्सुक्ता ही खत्म कर दी....उसके बाद से देव 14 रील बरबाद करने वाले से ज्यादा कुछ नहीं रह गये थे...लेकिन फ़िल्में बनाने का जुनून जारी था.. देवानन्द अपनी जिद में निर्देशक बन तो गए, पर निर्देशक के रूप में वह अपनी सीमाएं तय नहीं कर पाए....न पटकथा को लेकर....न अभिनय को लेकर...न डायलॉग डिलिवरी को लेकर.... तभी तो वह देस परदेस के बाद डिब्बा बंद फिल्मकार बन कर रह गये।

लेकिन सच यह भी है कि 1955 से लेकर 1970 के समय का एक बड़ा हिस्सा देवानन्द के खाते में जाएगा। उसमें ढेर सारा समय था नेहरु जी का, उनके समाजवादी आदर्शवाद का, जिस पर सबसे ज्यादा फिदा थे राजकपूर.. उनकी उस समय की कई फिल्में समाजवाद की चाशनी में डूबी हुई हैं..उस तिकड़ी की ही एक और धुरी दिलीप कुमार तब अपने अभिनय से हर ऐरे-गैरे को देवदास बनाने पर तुले हुए थे...तब रोमांस का बेहद दिलकश रूप पेश कर रहे थे देवानन्द.....

अपने इस अंदाज के जरिये देवानन्द का अपने चाहने वालों को यही संदेश था कि जीवन में कुछ भी जीवन में घट रहा हो.. प्रेम को मत भूलना क्योंकि प्रेम बहुत बड़ी राहत है...वह कैसी भी जीवन शैली का केन्द्र बिन्दु है..इनसान को संवेदनशील बनाने का एकमात्र जरिया...

उनकी फिल्में दर्शक को कितना सुकून देती थीं...कितनी उमंग भरती थीं...इसको समझा पाना बेहद मुश्किल है.. 



बहुत मामूली हैसियत वाला आवारा युवक कैसे एसडी बर्मन के संगीत से, अपनी अलमस्त अदाओं से, हर हाल में बेफिक्र बने रहने के अंदाज से, लापरवाह दिखने वाली लेकिन बेहद रोमांटिक शख्सियत से...वहीदा रहमान..साधना...कल्पना कार्तिक या नूतन की शोखियों और जॉनीवाकर की हल्की-फुल्की कॉमेडी से दर्शकों को पागल बनाता था, इसको जानने के लिये उनकी उस समय की कई सारी फिल्में देखना लाजिमी है। तभी तो हाईस्कूल के इम्तिहान में आखिरी पर्चा भी खराब जाने के बाद सीधे उस पिक्चर हॉल में घुसा, जिसमें मुनीम जी चल रही थी.... और जीवन का सफर कुछ समय के लिये आसान हो गया.......

12/5/17
प्राइम टाइम में बाबरी, आडवाणी और पत्रकारिता

आज सुबह फेसबुक की एक पोस्ट में पढ़ा कि बाबरी मस्जिद पर प्राइम टाइम में रवीश कुमार कह रहे हैं कि लालकृष्ण आडवाणी को मस्ज़िद ढहाए जाने का बहुत अफसोस हुआ था, और 19 साल बाद 2011 में उन्होंने इस मुताल्लिक़ अपने उद्गार प्रकट भी किये..आंसू बहाते हुए..इसी प्रोग्राम में बाबरी के सिलसिले में रवीश ने दो पत्रकारों का नाम भी लिया प्रशंसा के लहजे में..इत्तफ़ाक से दोनों के साथ अपना सहकर्म रहा है..

अब थोड़ चिग्गी लेने का मन कर रहा है..छह दिसंबर 1992 को कानपुर से चल कर अल्ल सुबह ही खचड़ा जीप से स्वतंत्र भारत के हम चार फैज़ाबाद पहुंच गए..शहर के एक बेहतरीन होटल में देश दुनिया के पत्रकार कई दिन से पसरे हुए थे..हमारे भी दो-चार बॉसेज टाइप लंगूरे वहीं कयाम किये हुए थे..

यहां एक सच उगल दूँ कि अपन अपने रिस्क पे सिर पे कफ़न बांधे उस दिन अयोध्या जा रहे थे, कुछ हो-हवा जाता तो थापर का पियोनियर संस्थान मूतने भी न आता..क्योंकि अपन बाकायदा प्रधान संपादक घनश्याम पंकज की हुक्मउदूली किये रहे..जिनका आदेश था कि हम कतई न हिलें कानपुर से..

होटल में घुसे थे कि कोई हम को चाय पिला देगा पर वहाँ मामला गर्म था एक महिला रिपोर्टर को लेकर हुई तक़रार का..आखिर में देर रात जो ज़्यादा मजबूत निकला, वही उन मोहतरमा को ले उड़ा.. नर मादा दोनों हमरे संस्थान के ही थे..अपन की आमद अवैध थी, इसलिए आंखें मिलाए बिना अयोध्या निकल लिए..

अयोध्या में एक सुनसान सड़क पर जीप खड़ी कर टीले खाई फांदते हुए कारसेवा स्थल पर पहुंच गए..सैंकड़ो पत्रकार-फोटोकार 
सांप-नेवले की लड़ाई का बेसब्री से इंतेज़ार कर रहे थे..मंच पर आडवाणी, जोशी, कटियार, सिंघल, उमा और ऋतम्भरा को एक हज़ार साल की गुलामी की जंज़ीरें टूटने की बेकरारी..

मरहूम सुरेंद्र प्रताप सिंह से दो चार बतियां कर यहां वहां टूलने लगा..बाकी जनों को उनका काम समझा दिया..दस बजते ही माहौल गर्माने लगा..विभिन्न उपकरणों से लैस कारसेवकों के एक जत्थे ने कारसेवा स्थल पर पहुंच तोड़फोड़ शुरू कर दी..वो जगह हल्दीघाटी में तब्दील हो चुकी थी..

वहां से सबसे पहले पत्रकार बिरादरी ने दौड़ लगाई और सब पास के एक भवन की छत पर चढ़ कर पतंग उड़ाने लगे नीचे मुख्य द्वार पर ताला मार कर..

राजीव मित्तल जैसे छोटे मोटे पत्रकार की पैंट एक बार तो गीली होने को हुई लेकिन फिर जुनून को सिर पर फिटफाट कर जंग ए मैदान में कूद पड़ा..मंच पर जयकारा मचा हुआ था..खुशी के मारे कोई न कोई किसी की गोद में कूद रहा..आडवाणी जी ने गुलामी की जंज़ीरें टूटने के उपलक्ष्य में प्रसाद खा कर जाने की मीठी सी अपील की..

इस बीच अपनी जान दो घंटे तक हलक में अटकी रही..मस्ज़िद परिसर के इंच इंच पर तोडताड़ी.. धूल गुबार का आलम, वहशी चीखें, शोरगुल..सिर पर भगवा पट्टा बांध और जय श्री राम के नारे लगा कर पूड़ी सब्जी का पैकेट हथियाया और उनमें शामिल हो घूम घूम कर, कंगूरों पर चढ़ कर पत्रकार का धर्म निभाया..मन में यह ठसक तो थी ही कि अपनी बिरादरी जैसा कायर नहीं निकला..

बाद में दो चार जगह पिटते पिटते बचा..फिर कानपुर कैसे पहुंचे.. मेस्टन रोड पर बने मिश्रा लॉज में 'पाकिस्तानी इलाके'  से आ रही गोलियों से कैसे बच पाए.. वो छोड़िए..आफिस में अपनी रिपोर्ट पंकज ने यह कह कर छापने से मना कर दी कि उनके मना करने के बावजूद अयोध्या क्यों गया था..

रिपोर्ट उन की छपी जिन्होंने महिला रिपोर्टर को अंकशायनी बनाने को लेकर उस होटल में सबके सामने एक दूसरे की मां बहन को विभिन्न तरीकों से उच्चारित किया था..और यह पूरा वाकया पंकज जी के संज्ञान में था..



12/7/17
सात जन्मों वाली सकीम


पिछले दिनों चित्रगुप्त ने ब्रह्माजी से
अनुरोध किया – प्रभो..'एक पति सात जनम' वाली स्कीम गंधाने लगी है अब इसपे ख़ाक डालिये...

ब्रह्माजी – “क्यों ?

चित्रगुप्त – “प्रभु, मैनेज करना कठिन
होता जा रहा है … इस स्कीम के प्रति औरतों का मोह कम हो रहा है ... मर्दों का रुझान तो बहुत ही कम रह गया है..

ब्रह्माजी – आदिकाल से चली आ रही स्कीम को पलीता कैसे दिखा दूं चित्तू.. 
और फिर आर्यावर्त में स्कीम बंद हो गयी तो संघ वाले बवाल कर देंगे..और औरतों के उन दो निर्जला व्रतों का क्या होगा चित्ते, जिनमें चांद-तारों को देख पानी पिया जाता है..

तभी नारद मुनि आ गए..उन्होंने सुझाव
दिया कि पृथ्वी ग्रह पर जा कर उनसे सलाह लो, जो कुंवारे  शादीशुदा हैं...

चित्रगुप्त सीधे मोदी जी के पास गए...
 उन्होंने पल भर में समस्या का समाधान कर दिया – जो भी औरत सातों जनम के लिये एक ही पति की डिमांड करे तो शर्त लगा दो कि यदि पति वही चाहिये तो सास ननद भी वही मिलेंगी...स्कीम दो साल के अंदर दम तोड़ देगी...स्कीम बंद न हो जाए तो नाम बदल दूँगा..

12/10/17
अंधेर नगरी में चौपट राज के मजे


इस देश के सबल लोकतंत्र को गंदगी में लिथड़ी राजनीति, बेशर्म मीडिया, बेपेंदी की अफसरशाही और जनताऊ वोट बैंक ने इतने सारे प्रहसनों में बदल दिया है कि सालों तक रोज नौटंकी खेली जा सकती है.....और खिल भी रही है इत्तेफाक से.......

शुरुआत एक काल्पनिक प्रहसन से......

आजाद भारत के बिड़ला मंदिर में अनूप जलोटा ..... वैष्णव जन को तेरे कहिये जे.. सुना रहे हैं बापू को.. जलोटा जी ने जब पीर शब्द के पी अक्षर को पीपीपीपीपीपीपीईईईईई करते हुए ताना.... तभी अंग्रेजों के ज़माने के किसी आरोप में गिरफ्तार कर लिये गये बापू..

जंतरमंतर पर इन्क्लाब-जिन्दाबाद के नारे लगाते भगतसिंह को पुलिस की जीप में ठूंस दिया...और अमरमणि त्रिपाठी टाइप नेता को किसी लड़की का दैहिक शोषण और फिर उसकी हत्या कर लाश को ठिकाने लगाते पकड़ा गया..

 तीनों गिफ्तारियां एक साथ एक समय पर हुईं..बापू और भगत सिंह को तुरंत तिहाड़ पहुंचा दिया गया....लेकिन त्रिपाठी जी को तीन घंटे लगे......रास्ते भर समर्थकों और मीडिया का जमावड़ा....तिहाड़ तक पचास गाड़ियों में सवार समर्थक यही नारा लगा रहे थे-अमरमणि तुम आगे बढ़ो हम तुम्हारे साथ हैं..

बापू और भगत सिंह और मजिस्ट्रेट को उतनी देर इंतजार करना पड़ा.. फूलों से लदे त्रिपाठी के पहुँचते ही तीनों को एक ही सेल में बंद कर दिया गया.. 

त्रिपाठी जी का गला भारत माता की जय बोलते बोलते बैठ गया है....और अब किसी चैनल की किसी बाला को याद कर बेवजह हिलडुल रहे हैं..

बापू..... हे राम....वाली उस मुद्रा में पड़े हैं, जो 30 जनवरी 1948 को छाती पर गोडसे की गोली लगने के बाद विश्वविख्यात हुई थी..

भगत सिंह के मुंह से निकल रहा है गॉड सेव द किंग.... जिसने उन्हें ब्रिटिश ताज की गुलामी में फांसी पर चढ़ा कर उन पर कितना एहसान किया..

अब आइये कल्पना से निकल ठोस जमीं पर कदम धर चुके एक और प्रहसन पर निगाह डालें.....राष्ट्रपिता बनते बनते अन्ना हजारे अब अपने गांव में अपनी प्रतिमा बनवाने की हालत में पहुंच गए हैं.....

बाबा रामदेव ने जो तलवार कई साल पहले म्यान से निकाल कर विदेशी बैंकों में जमा देश का 400 लाख करोड़ वापस लाने नारा बुलंद किया था.....वो तलवार अब "विधर्मियों" को जिबह करने के काम आ रही है..

सुना है बाबा ने 400 करोड़ ले कर विदेशी बैंकों में जमा 400 लाख लाने की जिद छोड़ दी है..और वो अब काला धन रखने की बैंकिंग सुविधा देश में ही देने की पैरवी कर रहे हैं..

लेकिन उनका यह भी कहना है कि यह सुविधा केवल उन्हीं "राष्ट्रभक्तों" को मिले जो अपना मुहँ उनकी कंपनी के साबुन से धोते हैं..और उन्हीं की कंपनी में बनी वो राष्ट्रीय पोशाक पहनते हैं, जो पल में पायजामा और पल में सलवार बन जाती है..

बाबा ने यह पोशाक उस घटना की याद में बनवाई है, जिसमें वो लेडीज़ सलवार और कुर्ते में रामलीला मैदान से भागे थे..पकड़े जाने पर बाबा ने उसी सलवार कुर्ते में वो हिस्टोरिकल समझौता किया था और कहा था--अब मैं अनशन तो नहीं करूंगा....लेकिन नेताओं को लोम-लोम आसान जरूर सिखाऊँगा...ताकि उनकी रीढ़ की हड्डी पूरी तरह गायब हो जाये..

उसके बाद क्या हुआ यह हर खास-ओ-आम को मालूम है..बाबा को हरिद्वार उनके आश्रम पहुंचाया गया.....वो बाकायदा लाद कर ले जाए गए थे...इस चेतावनी के साथ कि चुप नहीं बैठे तो उनके च्यवनप्राश में मट्ठा मिला दिया जाएगा..



 बहरहाल, बाबा ..2014 में बनी नई सरकार में भगवा वालों को कुक्कुटासन सिखाने में व्यस्त हैं..

12/13/17
 मेरी दिल की  राहों से निकल कब फूल खिल गए
कब पत्तियां ओस से भीग गयीं 
और कब एक मधुमक्खी
 को मैं भा गया  
 सृष्टि में कब ये घटा
 कौन सा पहर था कौन सी घड़ी थी
 किसी को पता नहीं..चश्मदीद तो बहुतेरे थे 
 पर पात्र हमीं दोनों थे
 तभी तो मैं तुम्हारी गुंजन के
 इंतज़ार में खोया खोया सा बैठा रहता हूँ
 कि कब तुम आओ और मेरी किसी पंखुरी पर बैठ
 इज़हार करो प्यार का दुलार का 
 मुझे छू कर चूम कर ही तो किसी दिन
 किसी पेड़  के तने पर तुम बना लेती हो 
 हज़ारों लाखों रोम छिद्र का एक घर
 और हर रोम छिद्र को भर देती हो
 मीठे मीठे एहसास से
 तुम मुझे फूल से पराग और पराग से
 शहद बनाने के काम में जुटी रहती  हो
 लेकिन  जानती हो मैं क्या चाहता हूँ
 किसी दिन तुम मेरे छोटे छोटे हाथों पर बैठो
 और मैं मुट्ठी बंद कर लूँ
 न मैं पराग बनना चाहता हूँ न शहद
 तुम मेरी छोटी सी हथेली पर
 ही अपना बसेरा बना लो
 और मैं तुम्हें छू सकूँ जब चाहे

12/15/17
हमारे देश में न्याय व्यवस्था
सबसे लचर : प्रशांत भूषण

जानेमाने अधिवक्ता प्रशांत भूषण का कहना है कि जब तक देश में न्यायपालिका के काम की जवाबदेही तय नहीं होगी, हालात बद से बदतर होते जाएंगे..आज स्थिति ये है कि केवल एक फीसदी मुकदमों का ही फैसला होता है..

हमारे देश में जज की जवाबदेही क्यों नहीं है कि वो साल में कम से कम इतने मुकदमे निपटाएं.. क्यों 99 फीसदी मुकदमे बरसों से पेंडिंग पड़े हैं..एक गरीब आदमी को 20-बीस साल क्यों अदालत के चक्कर काटने पड़ते हैं..और तब भी उसे न्याय नहीं मिलता..

यहां प्रशांत अमेरिका में टीवी पर दिखाए जा रहे न्यायिक फैसलों का हवाला देते हैं, जिनमें जज को मुकदमा निपटाने में महज 20 मिनट लगते हैं..उसी श्रेणी के मुकदमे हमारे देश में दसियों साल से फैसले की बाट जोह रहे हैं..



प्रशांत भूषण के अनुसार देश पूरी तरह भ्रष्टाचार की गिरफ्त में है, लेकिन जिस तरह यह रोग न्यायपालिका में फैला है, वह बेहद चिंतनीय है..हम संस्थाओं की स्वतंत्रता की चाहे जितनी बात करें, लेकिन जब तक जवाबदेही तय नहीं होगी, हालात में कोई सुधार नहीं होगा..खास कर सर्वोच्च पदों पर बैठे हर व्यक्ति की जवाबदेही तय करने के लिए कोई तो फैसला करना ही पड़ेगा..और यह अब जनता के हाथ में है कि वो कितनी जल्दी इस मामले में दबाव बनाती है..लोकपाल बिल को पास हुए बरसों हो गए, लेकिन नियुक्ति अभी तक नहीं हुई.. और वो इसलिए कि नेतृत्व चाहता ही नहीं कि इस देश में कामकाज 

12/17/17
सुप्रीमकोर्ट के बारे में प्रशांत भूषण

जानेमाने अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत भूषण और सुप्रीम कोर्ट के मुख्यन्यायाधीश के बीच एक मेडिकल कॉलेज को ले कर हुई बहस काफी चर्चित रही थी..मामला क्या था.. 

प्रशांत भूषण के शब्दों में, " एक मेडिकल कॉलेज की गड़बड़ियों का मामला किसी पिटीशन के जरिये सुप्रीमकोर्ट में आया.. जांच के दौरान उस मेडिकल कॉलेज के कर्ताधर्ताओं के फोन टैप करने पर सीबीआई को पता चला कि मामले को सुलटाने के लिए जजों को देने को तीन करोड़ की राशि तय हुई है..सीबीआई ने उन जजों  की जांच के लिए मुख्यन्यायाधीश से अनुमति चाही..उनके व्यस्त कार्यक्रम के चलते जांच एजेंसी ने सुप्रीमकोर्ट में नम्बर दो की पोजिशन वाले जज को एप्रोच किया..उन्होंने पांच वरिष्ठ जजों की बेंच को संदिग्ध जजों की जांच का मामला सौंप दिया..लेकिन मुख्यन्यायाधीश के संज्ञान में जैसे ही यह मामला आया उन्होंने अपने से ठीक नीचे वाले जज के अधिकार कतरते हुए और उनका फैसला बदलते हुए अपने अंतर्गत नई बेंच बना दी, जिसमें बेहद कनिष्ठ जजों को रखा गया..और दो जज तो वो थे, जो इस मामले में सीबीआई की रिपोर्ट के मुताबिक संदेह के घेरे में हैं..प्रशांत भूषण का साफ कहना है, " खुद मुख्यन्यायाधीश भी इस रिश्वत कांड में पाकसाफ नहीं हैं "...

12/16/17
भारत में छात्र राजनीति

राजीव मित्तल

आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद व्यवस्था के खिलाफ ऐसे न जाने कितने आंदोलन हुए, जिनमें युवा और छात्रों का रोष उभरा और समय के साथ गायब हो गया...

छात्र आंदोलन का तेजस्वी रूप 1942 में तब देखने को मिला था, जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होते ही सभी बड़े बड़े नेता गिरफ्तार हो गए और आन्दोलन की बागडोर युवा हाथों में चली गई..आंदोलन बखूबी अपने मक़ाम तक पहुंचा और देश भर की जेलें 16 साल से लेकर 20 साल के युवाओं से भर गयीं..

लेकिन आज़ादी मिलते ही युवाओं को मिलने वाले प्रेरणा स्रोत सूखते चले गए और देश में घटिया सोच वाली राजनीति ने पाँव इस तरह जमा लिए कि देश के अंदर छात्रों की सामूहिक रचनात्मकता अराजक मुद्दों में भटक गई..

हमारे छात्र आंदोलन क्षेत्रीयवाद, भाषावाद, जातिवाद जैसी सोच के मोहताज हो गए..
मुझे कॉलेज के दिनों की याद है कि छात्र यूनियन के चुनाव कैसे राजनीतिक दलों के मुखौटे बनते चले गए..जो चुनाव प्रत्याशियों के कार्ड और उनके पोस्टरों तक सीमित होते थे, वही चुनाव बड़े बड़े जुलूसों, दारू के वितरण, गुंडागर्दी और अपने अपने वर्चस्व को कैसे भी स्थापित करने का जरिया बन गए..

हमारे देश में एक मौका आया था जब युवाओं को ठोस दिशा मिलती..वो मौका था इमरजेंसी के पहले का गुजरात और फिर बिहार युवा आंदोलन...लेकिन जयप्रकाश नारायण की अव्यवहारिक सोच के चलते ये आंदोलन राजनीति का अखाड़ा बन गए..और उन आंदोलनों की शुचिता पर काले धब्बे डाल दिये इमरजेंसी के बाद हुए हुए लोकसभा चुनावों में विपक्ष के विभिन्न दलों के असंगत जमावड़े के रूप बने जनता पार्टी के गठन और उसकी जीत ने..

तीन साल बाद भनुमति का कुनबा तो बिखर गया, उससे भी ज़्यादा खराब बात यह हुई कि उसमें शामिल जितने नौजवान थे, उन्होंने अपने सिरों पर विभिन्न राजनीतिक दलों की टोपियां सजा लीं, और बहती गंगा में हाथ धोने में जुट गए..और वही आज सड़ी गली राजनीति का व्यापार कर रहे हैं..

एक खास बात और कि आजादी से पहले जो समाजवादी युवा नेता देश के नौजवानों को रचनात्मक दिशा की ओर प्रेरित कर रहे थे, आज़ादी के बाद वही सब नेता प्रौढ़ हो कर वर्चस्व की संकीर्ण राजनीति के पहरुआ बन गए और देश का युवा तबका भटकाव के रास्ते पर चल पड़ा..

बहरहाल, कुल मिला कर स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि किसी भी विश्वविद्यालय का छात्रसंघ पाकसाफ नहीं है..छात्र नेतृत्व के पास कोई रचनात्मक सोच बची ही नहीं है..सब पर दलगत राजनीति हावी है..छात्र नेताओं के पास अपने अपने शॉर्टकट हैं राजनीति के जरिये अपनी दुकान सजाने के, अपना भविष्य उज्जवल करने के..उनकी सोच में न देश है न समाज..

12/18/17

भारत में छात्र राजनीति

राजीव मित्तल


सन 1925 में काकोरी में रेलगाड़ी रोककर अंग्रेजी हुकूमत का धन लूट लिया गया था। राशि 10-15 हजार के बीच रही होगी। राम प्रसाद बिस्मिल को छोड़ लूट में शामिल सभी क्रांतिकारी 18-20 साल के थे। 

काकोरी कांड में बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशन सिंह को फांसी पर लटका दिया गया था। 

इस घटना के 70 साल बाद एक बाप ने अपने 12 साल के बेटे और उसके दोस्तों के बीच किसी मनमुटाव को सुलझाना चाहा और इस चक्कर में उनमें से एक लड़के को चांटा मार दिया। नतीजे में रात को करीब 40 लड़कों ने घर पर हमला बोल दिया और तोड़फोड़ मचाई। बाप को पीछे की दीवार फलांद कर थाने भागना पड़ा, पुलिस आयी तब उसकी जान बची। 

और जब कुछ परीक्षार्थी एसी कोच से निकाले जाने के गुस्से में किसी स्टेशन के पास पटरी पर 25 फुटा पोल डाल दें ताकि जो भी ट्रेन वहां से गुजरे वह उलट जाए और उसके मरते और घायल हुए यात्रियों को पता चले कि ऐसा एक महान उद्देश्य से किया गया है..खैर, गुजरना था राजधानी एक्सप्रेस को, पर वह उलटी नहीं क्योंकि एक सिपाही ने अपनी जान पे खेल कर वह पोल किसी तरह से खिसका दिया। 

तोे यह है एक आंदोलनकारी सफर जो अपने मुकाम पर पहुंच गया है। यह तो इतिहास बताएगा कि देश को आजाद कराने में बिस्मिल और उनके युवा साथियों का कितना योगदान था, लेकिन आज़ादी के बाद के हज़ारों हज़ार छात्र आंदोलन और कर्ता धर्ताओं के कारनामे बिस्मिल और उनके तीन साथियों की शहादत को, उनके सपनों को चीथड़े-चीथड़े करने पर आमादा है.. 

आजाद भारत की राजनीति का असर एड्स से भी ज्यादा भयानक होगा, इसका आभास महात्मा गांधी को था तो, पर वह अंतिम दिनों में अपने को उस चौराहे पर पा रहे थे, जहां से कोई रास्ता कहीं को नहीं जाता था।

एक देश के विकास में उसका नौजवान तबका सबसे महत्वपूर्ण तत्व होता है और इसी तबके को इस देश की राजनीति विध्वंस के रास्ते पर ले जा रही है। किसी भी सार्वजनिक स्थान पर, जहां चार-पांच युवकों का झुंड मौजूद हो, आप अपने घर की किसी युवती के साथ बेखौफ बैठ सकते हैं? 

दीपा मेहता की फिल्म फायर हो या ना बनी गंगाजल या हाल में प्रदर्शित गर्लफ्रेंड, उसके लिये हंगामा मचाने में सबसे आगे यही युवा वर्ग रहा, जिसको यही नहीं पता कि वह ऐसा क्यों कर रहा है। इस वर्ग के खालीपन, बेरोजगारी, समाज और परिवार की जिम्मेदारियों के प्रति उदासीनता का हर राजनैतिक दल बरसों से शानदार इस्तेमाल कर रहा है। और जो पैसों वालों के जिगर के टुकड़े हैं वे नशे में धुत हो बीएमडब्लयू में बैठ फुटपाथ पर रात गुजार रहे लोगों को टमाटर की तरह मसल रहे हैं या राह चलती लड़की को कार में घसीट अपने आंदोलनकारी दिलो-दिमाग को सकून पहुंचा रहे हैं। 

कई साल पहले  चीन के तियेनमेन चौक पर एक आदर्श के लिये जमा छात्रों को वहां की सरकार ने गोलियों से भून डाला था, जिसकी सारी दुनिया में निंदा हुई। लेकिन उसी के बाद चीनी सरकार ने अपने युवा वर्ग को देश के विकास के उस इन्फ्रास्ट्रक्चर का हिस्सा बना लिया, जो अमेरिका तक को हैरान किये हुए है। 
जेटली साहब देश की विकास गति छह फीसदी रखें या दस फीसदी, राजधानी ट्रेन के रास्ते पर पोल डालने से वह युवा आंदोलनकारियों को नहीं रोक सकते, क्योंकि इस विकास में उनकी कोई हिस्सदारी नहीं है। न लाभ में न हानि में..

जारी..

12/16/17 
ऑपरेशन टेबल पर...

इतनी ठंडी सुबह कि क्या बताऊँ.. जबलपुर का 19 दिसंबर..डॉक्टर पाठक ने ऑपरेशन की तैयारी का मुआयना किया..और किसी दूसरे डॉक्टर ने सर्दी से दांत किटकिटा रहे इस इंसान की रीढ़ की हड्डी में एनेस्थीसिया का इंजेक्शन लगाया..घबराहट के चलते यह भी ध्यान नहीं कि OT गर्म था या नहीं..

कानों में कुछ फुसफुसाहट, औजारों की खनक और हर्निया वाली जगह पर नश्तर का महसूस होना..बस इसके बाद इतनी गहरी और मीठी नींद कि आज दस साल बाद भी उसकी मिठास आंखों में तैरती दिखती है...

बीस साल पहले 21 सेक्टर के खूबसूरत बंगले के पीछे बने आउट हाउस में चंडीगढ़ की पहली बरसातों में रात के दो बजे पथरी के दर्द ने इतना ज़ोरदार हमला बोला था कि उसको झेलने के सारे उपाय कर डाले, पर अगले तीन घंटे चीत्कार करते बीते..उस रात साथ में जनसत्ता के दो ही साथी है..एक तो वही था, जिसने पनाह दी हुई थी, और दूसरा मेरी तरह, वहां डेरा डाले था..उस दर्द में क्या राहत दे पाते भूपेंद्र और हरजिंदर..

पौ फटते ही दोनों ने मेरा एक एक कंधा थामा और अपन ने दांत भींच कर आधा किलोमीटर की दौड़ लगाई..ट्रिब्यून वाले रमेश नैय्यर के घर की सीढ़ियां किसी तरह चढ़ीं और दरवाजा तब तक पीटा जब तक वो खुल नहीं गया..और फिर उनके सोफे पर गिर कर  मेरा दर्द पूरे जोम से चिल्लाया..वो तुरंत नीचे उस फ्लैट में ले गए, जहां डॉक्टर राणा नशे में टुन्न पड़े रहे होंगे..लेकिन उन्होंने थाप पड़ते ही दरवाज़ा खोल दिया..उनके सोफे पर ढेर होते ही मैंने चीत्कार मचानी शुरू कर दी..राणा ने एक छोटी सी शीशी अलमारी से निकाली और उसमें से दो बून्द मुहँ खुलवा कर जीभ पर टपका दीं.. उस दिन देखा होम्योपैथी का चमत्कार..दो सेकेण्ड में चार घण्टे से कहर ढा रहा मेरा दर्द गायब था और में नींद में..दो घंटे बाद उठा तो डॉक्टर राणा ने पथरी के साथ साथ हर्निया के पलने करने का एलान कर दिया..



पथरी के क्रिस्टल तो होम्योपैथी की कुछ खुराकों से खून बहाते हुए पेशाब के रास्ते निकल जाते लेकिन हार्निया को अपन ने गले से लगा लिया..और वो खूब घुमा मेरे साथ

12/19/17
बोलविया में चे के आखिरी दिन..

कास्त्रो का पूरा विश्वास पाने के बावजूद चे की स्थिति क्यूबा में असहज हो चली थी। यही असहजता वर्ष 1964 में अपनी परिणति पर पहुंच गई और चे ने फिदेल कास्त्रो से लम्बे विचार-विमर्श के बाद क्यूबा छोड़ने का फैसला किया...

अब उनके सामने थे अफ्रीका में कांगो तथा अल्जीयर्स और दक्षिण अमेरिका में खुद उनका अपना देश अर्जेन्टाइना, पेरू व बोलविया... जहां चे को सशस्त्र क्रान्ति के हालात माकूल लग रहे थे.. 

इस वक्त तक चे विश्व की महत्वपूर्ण हस्ती बन चुके थे। तीसरी दुनिया के देशों के एक तरह से वह प्रवक्ता ही बन गये थे। उनके भाषणों में या तो अमेरिकी साम्राज्यवाद की कटु आलोचना थी या तीसरी दुनिया के देशों की तकलीफें। 

1965 में तीन महीने बाहर रह कर क्यूबा लौटने के बाद उन्होंने अपने अगले रणस्थल का चुनाव कर लिया था और वह जल्द ही लापता हो गये। और ठीक उन्नीस महीने बाद 1966 के नवम्बर माह में बोलविया दिखे।

इस बीच वह कहां रहे, क्या किया, यह जानने के लिये अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने जमीन-आसमान एक कर दिया। अन्त में उसने यही निष्कर्ष निकाला कि क्यूबा के सत्ता संघर्ष में चे मारे जा चुके हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति लिण्डन बी जानसन को भी यही बताया गया। पर अमेरिका के लिये यह राहत कुछ महीनों की ही साबित हुई। 

चे गुएरा उरुगुवे के नकली पासपोर्ट पर बोलविया में घुसे। घने जंगलों, एण्डीज श्रृंखला के ऊंचे-ऊंचे पहाड़, बड़ी-बड़ी नदियों, गहरी खाइयों वाले इस देश में चे को काफी सम्भावनाएं नज़र आयीं, क्योंकि प्राकृतिक सम्पदा और खनिज से भरपूर इस देश का सदियों से दोहन हो रहा था। 

सबसे बड़ी बात उन्हें यह लगी कि पांच देशों से लगे बोलविया में क्रांति की सफलता पूरे दक्षिण अमेरिका को अपनी चपेट में ले लेगी।

वहां चे ने अपना ट्रेनिंग कैम्प नानसाहूआजू नदी की घाटी में बनाया, जहां से करीब थे तीन शहर कोचाबामा, सान्ताक्रूज और सुक्रे, जो सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण थे। 

तीन-चार महीने की कड़ी ट्रेनिंग के बाद गुरिल्ला दस्तों ने बोलवियाई फौजी रिसालों पर हमले बोलने शुरू कर दिये। चे की निगाह में क्यूबा अभियान की शुरुआत की तुलना में बोलविया अभियान बेहतर ढंग से गति पकड़ रहा था। लेकिन आगे चल कर हालात बिगड़ते गये। बीच ऐसी कई घटनाएं हुईं, जिससे दुनिया भर को पता चल गया कि चे बोलविया में हैं। 

अमेरिका तुरन्त हरकत में आया और बोलवियाई फौज की सैकेण्ड रेंजर बटालियन को सीआईए की देखरेख में ट्रेनिंग दिलाने के बहाने बोलविया से समझौता किया। 1967 के अप्रैल में राष्ट्रपति जानसन के सलाहकार वाल्ट रोस्तोव ने उन्हें असलियत बताई कि चे नहीं मरा और वह बोलविया में है।

तब तक चे की मुश्किलें शुरू हो चुकी थीं। उसके छापामार दस्ते के लोग या तो सैनिक झड़पों में घायल होते जा रहे थे या किसी न किसी बीमारी की चपेट में आ कर असहाय होते जा रहे थे। मौतों का सिलिसला भी शुरू हो गया था। लड़ने वालों की संख्या दिन पर दिन कम होती जा रही थी और नयी भरती नाममात्र को थी। उनका स्थानीय जनता से जुड़ाव हो ही नहीं पा रहा था। एक नदी पार करते हुए वह उपकरण भी बह गया, जिसके दम पर चे का क्यूबा से सम्पर्क बना हुआ था। 

सितम्बर आते-आते अमेरिका से ट्रेनिंग पायी साढ़े छह सौ जवानों की बटालियन पूरी तरह सक्रिय हो कर चे और उनके दस्तों के खात्मे में जुट गई। चे की 11 महीने के बोलवियाई अभियान के दौरान लिखी गई डायरी पर आखिरी कलम सात अक्टूबर को चली। 

उस दिन तक चे का दस्ता सैनिक टुकड़ियों से पूरी तरह घिर चुका था और अन्तिम समय हर पल नजदीक आता जा रहा था। उसी दिन चे ने रेंजरों से बचते हुए ला हिगुएरा के गांव में एक बूढ़ी औरत से सैनिक टुकड़ी की बारे में पूछताछ की, पर कोई पुख्ता जानकारी उन्हें नहीं मिली।

आठ अक्टूबर को रेंजरों को सूचना मिल चुकी थी कि चे अपने दस्ते के साथ घाटी के किस हिस्से में छिपे हैं। उसी दिन अन्तिम भिडंत हुई और दोपहर डेढ़ बजे पैरों में कई गोलियां खा चुके चे रेंजरों के हाथ पड़ गये। 

यह था चे का अंत, जिसकी मौत ने उन्हें इस कदर लोकप्रिय बना दिया कि करीब 40 साल बाद जब उनके महाद्वीप के देशों से अमेरिकी दलालों को मार-मार कर भगाया जा रहा था, तो हर किसी की आंखों में चे बसे हुए थे। और आज तमाम दक्षिण अमेरिकी देशों में जो सरकार हैं, वे खुल कर अमेरिकी नीतियों का विरोध कर सत्ता में आयी हैं।

1/9/18

मुज़फ़्फ़रपुर का जिमी


पता नहीं किस तुफेल में ढाई साल पुरानी जमी जमायी किरायेदारी छोड़ इत्ते बड़े घर को डेरा बनाया...कई सारे कमरे...अंदर आंगन..बाहर दालान और उसके भी बाहर लॉन..और रहने वाला फ़क़त मैं। 

मकान मालिक का परिवार ऊपर...सुबह की चाय अक्सर उनके यहां पीता.. लेकिन पता नहीं क्यों, जिमी को पसंद नहीं आया मेरा आना..मुंह बिचका कर भाग जाता..एक दिन ऐसे ही पूछ लिया-इसे खाने में क्या पसंद है! खीरे और पानी में भीगे चने.. वाह! यही तो अपनी भी पसंद है..नीचे अपने दालान में खड़े-खड़े फौरन खीरे की दो फांक कर एक अपने मुंह में डाली और दूसरी उसके सामने रख दी.. पहले तो घूरता रहा, फिर अहसान दिखाते हुए दांतों से कुतरने लगा.. 

अगले दिन तश्तरी भर भीगे चने और खीरे के टुकड़े..तीन दिन बाद ही महाशय जी कमरे के अंदर..अपना रूटीन शुद्ध अख़बारी..रात को काफी देर से घर लौटना, दिन भर सोना..सारे दरवाज़े चौपट खुले रहते..रखवाला जिमी जो था.. मिलने वाले गेट पर खड़े होकर चिल्लाते रहते और जिमी उन्हें चुप कराता रहता ताकि मैं सोता रहूं..

सावन आ गया.. अब देर रात के बजाये दफ्तर से सुबह लौटना होने लगा..एक भोर फुहारों के बीच ब्रह्मपुरा के सब्जी बाजार में देसी अमियों की ढेरी देख दिल लपझप करने लगा.. छांट कर कर कई किलो भर लीं.. 

गेट खोलते ही रोजाना की तरह जिमी की लपक-झपक शुरू.. आम की गंध मिली तो बौरा गया..तेजी से दरवाजे पर पुहंच उछल-उछल कर पैर मारने लगा कि जल्दी खोलो यार, अब रहा नहीं जा रहा..अंदर जा कर सारे आम पानी भरी बाल्टी में उडेले,..फिर छिलका उतार कर गुठली उसे दी..अब तो जी पूरे आंगन में जिमी की स्केटिंग शुरू.. गुठली आगे को फिसल रही और जिमी मुंह खोले उसके पीछे-पीछे.. चार-पांच गुठलियों ने पूरे आंगन को आम के रस से महका दिया..

इस तरह हम दोनों ने पूरी बरसात सुबह-दोपहर आम, खीरा और भीगे चनों का मजा लिया..जिमी साहब ने ऊपर अपने घर भी जाना बंद कर दिया..कोई लेने आता तो गुर्राना शुरू...बाकी समय हम दोनों का गपशप या सोने में गुजरता.. 

मुश्किल आती शाम को जब आॅफिस के लिये स्कूटर बाहर निकालता..वह पैर पकड़ कर झूल जाता.. मैं, स्कूटर और वो, तीनों गेट तक घिसटते जाते..तब तक उसके बरसात के पानी से भीगे पंजे पेंट का हाल चौपट कर चुके होते..पेंट बदल कर, उसे जंगले के अंदर कर ही गेट से बाहर निकल पाता.. सितम्बर खत्म होते-होते इत्ते बड़े घर से मन उकताने लगा..जिसके दो कमरे हमेशा बंद ही रहते..

एक दिन ऑफिस के भूमिहार मनीष को पकड़ कर पुराने घर ले गया तो भूमिहार मकान मालिक का चेहरा खिल उठा..चाय के साथ रसगुल्ले भी खिलाय..और फिर बोला-फिर यहीं आ जाइये-अपके दोनों कमरे बंद ही पड़े हैं..यहां तक कि किराया भी घटा दिया..तो मनीष बोल पड़ा-आप तो भूमिहारों के बाप निकले..

एक सुबह मनीष ने ही सामान ढोने वाले बुला कर शिफ्ट करा दिया..सामान लदता देख जिमी पागल हो गया..एक के पैर पर तो दांत भी गड़ा दिये..मकान मालिक किसी तरह गोद में उठा कर ऊपर ले गये..

पुराने घर में आने के बाद दो-चार बार जिमी को बुलवाया तो खुशी से झूमता आया.. नाश्ता पानी करता..लेकिन लौटता बहुत बेमन से..दफ्तर के रास्ते में ही उसका घर पड़ता था इसलिये जब-तब उससे मिलने चला जाता..खीरे चने ले कर..आवाज सुन कर जिमी हल्ले मचाता ऊपर से आता..फिर लखनऊ-दिल्ली के चक्कर में काफी दिन बाद वहां जाना हुआ।

कई बार घंटी बजाने के बाद भी जिमी की आवाज सुनायी नहीं दी तो अजीब सा लगा.. श्रीवास्तव जी अकेले नीचे आये तो उनसे पूछा-जिमी कहां है? जो सुना उससे कान सुन्न हो गये..हुआ यूं कि मेरे जाने के बाद कोई रिटायर्ड जज उस घर में रहने आ गया था.. जिमी को उस चौखट से काफी मोह था ही, अक्सर वह अंदर भी चला जाता और अपना ही घर समझ सुसु वगैरह कर देता..जज के बेटे को उसका आना बिल्कुल पसंद नहीं आया और एक दिन उसने जिमी पर मिट्टी का तेल डाल दिया। 

घने बालों की वजह से किसी को पता नहीं चला कि तेल ने खाल को जला डाला है.. सड़ने पर घाव से बदबू उठने लगी..काफी कमाऊ जगह मैनेजर रहे श्रीवास्तव साहब आठ साल से बेटे की तरह पल रहे जिमी का घर में ही टटपूंजिया इलाज करते रहे.. जब दुर्गंध पूरे घर को गंधाने लगी तो एक दिन उसे कार में धर 30-35 किलोमीटर दूर सुनसान जगह पेड़ से बांध आए। .... 

अपन के दिमाग में बस यही चल रहा था- पेड़ से बंधा जिमी मरा किस तरह होगा .........काफी देर तक भौंकता रहा होगा.... फिर कूं-कूं..... हो सकता है जीते जी उसे निवाला बनाया गया हो .......। इससे अच्छा तो आप उसे जहर दे देते...यह कह कर लौट लिया। फिर जब तक मुजफ्फरपुर में रहा, उनके लाख बुलाने पर घर तो क्या, उस तरफ जाने वाली सड़क पर भी पांव नहीं रखा। जिमी को अपने से इस कदर जोड़ने के अपराधबोध से अभी तक मुक्त नहीं हूं। कभी होऊंगा भी नहीं।



1/10/18 

पीजी ब्लॉक

सुबह उठते ही तैयार हो कर स्कूटर दौड़ाया बॉटेनिकल गार्डेन की तरफ.... वहां एक दोस्त को पकड़ा....और एक-एक कर आठ गुलदस्ते बनवा लिये.....अलग-अलग फूलों के....फिर रेलवे स्टेशन....पता किया....ट्रेन तीसरे प्लेटफार्म पर....गुलस्ते इतने कि खुद भी चलता-फिरता गुलदस्ता नजर आ रहा......दो-दो सीढ़ियां फलांदते चढ़ा....उतरा.....एक बोगी के सामने कई सारे लड़के-लड़कियां खड़े थे....और वो दरवाजे पर खड़ी मुस्कुरा रही थीं....उतर कर आयीं ....तुम कितने पागल हो....एक-दो नहीं पूरा बाग खरीद लाए....हांफते हुए एक के बाद एक गुलदस्ता उन्हें देता जा रहा....आखिर वो भी कितने थामतीं....बस-बस........अपना ध्यान रखना...एक ही साल की तो बात है.......

चौदह महीने बाद.......

रवींद्रालय में कोई फंक्शन....खत्म होने के बाद बाहर निकलते ही वो सामने......वही दिलकश मुस्कान ....कैसे हो.....मैं पिछले महीने ही लौटी.....पता चला शादी कर ली.....मैं नाइजीरिया न जाती तो तुम डिप्लोमा तो कर ही लेते.....

और दो साल बाद.........

दिल्ली नवभारत टाइम्स में एक साल गुजार कर लखनऊ नवभारत टाइम्स में.......एक सुबह कुछ लड़कियां पूछते हुए आयीं....आपके लिये मैडम ने यह कार्ड भिजवाया है...........उसी पीजी ब्लॉक में कोई वार्षिक उत्सव.....चुपचाप पीछे बैठ गया....खत्म होने पर उनके सामने......अब तो ज्वायन कर लो हमें... डिप्लोमाधारी हो जाओगे....आपके अंदर कितना जुनून था रशियन को लेकर! 


अब रूसी भाषा की क्लास में....

लखनऊ विश्वविद्यालय में घुसने की यह तीसरी कोशिश......इंटर करने के बाद वहां के चार-पांच चक्कर लगा कर कान्यकुब्ज कॉलेज में.....दोबारा..डॉ. एनएन श्रीवास्तव के सौजन्य से पीएचडी में रजिस्ट्रेशन ...बैठने को लायब्रेरी के पीछे लम्बा-चौड़ा हॉल......मोनेटरी की मोटी-मोटी किताबों में दो महीने झक मार कर हाथ जोड़ लिये....

एक साल बाद नौकरी में...... उन दिनों अपनी बहन जी पता नहीं क्या क्या कर रही थीं.....पीएचडी भी...डबल एम ए भी.....रूसी भाषा में डिप्लोमा भी.........और रूसी साहित्य दीवाना......

काफी मिन्नतों के बाद बहन जी ले गयीं रशियन क्लास में......मैडम........देखते ही..... फूल ही फूल खिल उठे मेरे पैमाने में.....मुगलई चेहरा...छोटे बाल....ठीक कद-काठी.....कुल मिलाकर ऐसी शख्सियत.......कि देखते ही गुनगुनाने का मन करे.....तो आप अपनी बहन जी को लेकर आए हैं सिफारिश के लिये....क्या कर रहे हैं......सूचना विभाग में सब एडिटर.........सरकारी नौकरी में...लगते तो नहीं सर्विस वाले...तब तो आपको नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट लाना होगा.....

फार्म और सब कागजात के साथ फिर मैडम के सामने.....पढ़ के ही मानेंगे रूसी....फार्म पर दस्तखत किये......टाइम का एडजस्टमेंट कर लेंगे ना...अब आप मेरे स्टूडेंट हैं.....सब डिप्लोमा वाले बैठे थे तब...अपनी शुरुआत थी प्रोफिशिएंसी से....ये सब आपके सीनियर हैं.....आपकी बहन जी के साथ के.....इज्जत बख्शियेगा इन्हें.....

क्लास का पहला दिन.....पढ़ने .....लिखने की लिपि अलग-अलग......संस्कृत की तरह रूप......सब कुछ अपने मिजाज के खिलाफ......लेकिन क्या स्टाइल था उनका....समझाने का तरीका.... बाप रे बाप....चार-पांच दिन में वाक्य बनाने आ गये....कुछ ही दिन में गलत-सलत बोलना भी.....घर में बहन मंजे हुए अंदाज में रूसी बोलती..... तो भाई क से कबूतर वाले अंदाज में........अब होड़ थी समय से....मैडम के और करीब आना है .....बहन को पछाड़ना है.......पूरा दिन भरा-भरा सा रहता.....

अमृत प्रभात लखनऊ से निकलने लगा था........विदेशी मामलों पर कुछ लिख कर पहुंच गया वहां......सम्पादक को दे दिया.....दो ही दिन बाद छप भी गया......मैडम की नजरों में चढ़ने को जबरदस्त उछाल.......

रूसी भाषा पर अपना हर स्ट्रोक सही पड़ रहा......कुछ दिनों बाद लेकिन मामला गड़बड़ाने लगा.....मैडम कुछ पूछतीं जवाब कुछ होता......कैलाश हॉस्टल के पीछे टीचर्स कॉलोनी......घर बुलाया एक दिन....कॉफी पिलायी...आप बहुत जल्दी ज्यादा से ज्यादा सीखने के चक्कर में पड़ गये हैं...इसलिये यह गड़बड़ी हो रही है.......हम जानते हैं आप बहुत अच्छा करेंगे....लेकिन धीमे-धीमे चलिये.....फिर इधर-उधर की...अपने रीसर्च की.....जो कुप्रीन और राजेन्द्र सिंह बेदी की कहानियों पर.....कई साल साल सोवियत संघ में गुजारे......चलते समय कई सीडी दीं......उच्चारण सही करने को........

जल्द ही यह कठिन विदेशी भाषा बिल्कुल अपनी लगने लगी....सोचना भी शुरू कर दिया......मन ही मन वाक्य बनने लगे.......लेकिन ससुरी इन गर्मी की छुट्टियां का क्या किया जाए .....दो महीने बगैर अपनी टीचर के........ सुबह सात बजे से नौ बजे का टाइम का टाइम काटना मुश्किल....ऑफिस में उनकी याद....रात में बहन से उनकी चर्चा..........दो महीने की शामें गोमती किनारे.... गंजिंग.....जॉन निंग और मेफेयर टॉकीज में किसी तरह खपायीं......

यूनिवर्सिटी खुलते ही फिर सब हरा भरा .....लेकिन अब एग्जाम करीब.......मौखिक परीक्षा में रूसी दूतावास का कोई अफसर.....सामने मैडम की मुस्कुराती आँखें ....घबराना मत बिलकुल... मैं हूं न.......जरूरत से ज्यादा ही झाड़ दी रूसी.......बाद में.....तुम नहीं मानोगे...क्या जरूरत थी इतना सब कहने की....कुछ गलत हो जाता तो.....अब लिखित परीक्षा.....एस्से आया.... मेरा दोस्त.....याद किया था.... मेरा शहर....भाड़ में गयी फिक्र.....अपने दोस्त को स्टेशन से पकड़ पूरा शहर ही घुमा दिया.......

अब...........रिजल्ट आते ही बुलावा ....खूब गुनगुनाते थे न जब मैं सीढ़िया चढ़ती थी.....हाथ में सिगरेट भी...लेकिन....लेकिन तुमने बहुत ही अच्छा किया.......डिप्लोमा भी बढ़िया हो....समझे......फिर एक दिन क्लास में.....अब मैं आप सभी से एक साल बाद मिलूंगी.......



1/16/18 
सर जी, इस में एक बून्द पानी नहीं

एक कहानी.....

घर कहना तो सही नहीं होगा उसको.....वो उसे स्टूडियो कहते हैं....पर सबसे सही शब्द है आरामगाह......सड़क पर ज़रा भी चूके तो आगे निकल जाएंगे....जो मेरे साथ अक्सर होता है....कई बार आगे निकल गलत जगह घूम  जाता हूँ....लौट कर फिर सड़क पर.....और फिर पहले से तय की हुई  अगल-बगल की पहचान पर एक नज़र डाल सही रास्ता पकड़ना...

दायीं तरफ ..एक पतला सा रास्ता...उबड़-खाबड़....उस रात उस रास्ते  पर चलते और फिर उस खंडहर की बाईं तरफ सीढ़ी  चढ़ते मन कांप रहा...लेकिन आख़िरी पैड़ी पर कदम धरते  ही सारी घबराहट दूर हो गयी थी.....उस हँसते चेहरे से जैसे रजनीगंधा के फूल झर रहेे....स्टेशन पर कदम्ब का वृक्ष और यहाँ खुश्बू बिखेरती कई सारी डालियाँ....

जी हाँ, मैंने पेड़ को अपने साथ घूमते देखा है और फूलती रजनीगंधा को गौरैया में तब्दील होते ......कैसे .....
बताता हूँ .....
बाहर लंबा-चौड़ा छज्जा...अन्दर घुसते ही बड़ा सा कमरा...दरवाजे के दोनों तरफ छज्जे की तरफ झाँकतीं खिड़कियाँ....जिनके पल्लों में हाथ डाल कर उस कमरे में ताला मारने के बाद चाभी धरी और उठायी जाती है.....  .....अक्सर नहीं.....ख़ास मौकों पर.....उस कमरे के दोनों तरफ दरवाजे और उन दरवाजों के पीछे कमरे....बाईं तरफ वाला कमरा सोने के लिए....उसमें भी दरवाज़ा....और फिर एक कमरा....फिर एक दरवाज़ा...और उस से उतरतीं दो सीढ़ी....अब रसोई....रसोई में से निकल कर एक छोटे से आँगन में.....पानी के सारे काम वहीं....अब फिर आया जाए बाहर वाले कमरे में.....

अब दायें दरवाज़े से अन्दर चलें ...यहाँ भी कमरा....एक कलाकार का कमरा...उसी से लगी एक कुठरिया....मूर्तिकला के लिए.....इसका एक दरवाज़ा आँगन में भी खुलता है.....शुरू में ही आरामगाह बोला था न ....जो सच में है भी....मानसिक तनाव दूर करना हो....अवसाद दूर करना हो....थकान उतारनी हो.....यहाँ चन्द घंटों के लिए आ जाइए...और बाहर वाले या बाईं तरफ वाले कमरे में पसर जाइए......तय मानिए  कि चैन की सांस लेते हुए बाहर निकलेंगे.....

और मौज मारने की तो अचूक जगह......साबूदाने के बड़े हों..... भजिया.........तले हुए भुट्टे के दाने हों या फिर दाल रोटी...या फिर चिकन-मटन.....और साथ में सोमरस.....दिव्य आनंद......बाहर जो रजनीगन्धा उस रात दिखी थी ना...अन्दर जाते ही वो गौरैया बन जाती है....और उसको लेकर हैरान परेशान वो कदम का पेड़....कलाकार .......छोड़िये...बहुत सारे रूप हैं उसके......घनघोर रूप से शानदार जोड़े की वो संतान देख रहे हैं न आप....जो मुझे नाम से बुलाता है....और दोस्त मानता है मुझे......इसके अलावा कुछ भी न मुझे मंजूर है न उसे......मामला उसी का नहीं.....उन दोनों के साथ भी सब कुछ वही मंजूर है जो जिस रूप में सामने आया....हम चारों ने ही किसी तरह की अपनी तरफ से कोई मिलावट नहीं की है......कोई दूधवाला हो तो यही कहेगा...साब जी... एक बूंद पानी नहीं मिलाया है....चाहो तो अभी का अभी खोआ बना कर देख लो.....

उस रात वहीं सोया गया.....सुबह उठते ही मेज पे धरा मोबाइल टनटनाया.....गौरैया कहीं अन्दर-बाहर होगी....कलाकार ने उठाया....सन्देश था....तुम्हारी बहुत याद आ रही है....आगे  गौरैया लिखा था या जानू ....लिखने वाले को तो याद नहीं.......प्रकृति के नियम से भी चला जाए.....तो जो भी भाव कलाकार के चेहरे पर आये.....वो गौरैया को देखते ही लुप्त हो गए....लेकिन........राजीव जी तुम्हें बहुत याद कर रहे हैं.....के कहने का भाव  कानों  पर पलांश भर ठिठका और फिर अपना काम कर कहीं जा बैठा.......

उसी दिन दोपहर या शाम किसी समय कलाकार ने गौरैया से कहा......तुमको फील तो नहीं हुआ मेरे कहने का......गौरैया एक बार फिर रजनीगन्धा बन गयी......कैसी बात कर हैं सर जी......कुछ हो तो फील किया भी जाए.....लेकिन आपसे बस इतना कह रही हूँ कि मुझसे भी ज़्यादा...यहाँ तक कि मेरे पिता से भी ज़्यादा विश्वास राजीव का  कीजिएगा..........

इस बेहद  छोटे से अघटित घटनाक्रम का व्यवहारिक या सांसारिक पक्ष तो मैं नहीं जानता, लेकिन आदतन युगांधर पलटते पलटते  द्वापर युग में पहुँच गया.......फिर बच्चन जी की ....क्या भूलूं क्या याद करूं....के कुछ पन्ने याद आये.......लेकिन रजनीगन्धा की खुश्बू कहीं नहीं थी....न ही साथ साथ चलता कदम का पेड़....था भी तो एक तरह का आदर्शवाद ....कि हमको कैसा होना चाहिए .......जबकि ये दोनों शख्स दुनिया में रहते हुए भी किसी और ही दुनिया से कई-कई  बार रु-बरु करा जाते हैं.....खुद मैं कई बार अपनी बांह में चकोटी काटता हूँ तो यही पता लगता है कि कोई सपना नहीं देख रहा......

1/17/18
हमारे संपादक नंदकिशोर त्रिखा

बत्तीस साल पहले लखनऊ नवभारत टाइम्स में रामपाल जी के जाने के बाद त्रिखा दिल्ली से स्थानीय संपादक बना कर भेजे गए थे..अभी अभी कुछ मित्रों से उनके न होने का पता चला...

2011 के जाड़ों में आगरा में हुए एक पत्रकार यूनियन के सम्मेलन में अरसे बाद उनसे मिलना हुआ था...

नवभारत टाइम्स में मेरे जैसे निहायत अराजक इंसान से पटरी न बैठने के बावजूद त्रिखा जी हमेशा बहुत अच्छे से पेश आये..

त्रिखा जी गुलिस्तां कॉलोनी के अपने आवास पर विभिन्न मौकों पर सत्संग वगैरह कराते रहते थे...और तब मेरे अलावा सारा स्टाफ उनके यहां मौजूद रहता था..त्रिखा जी मुझे केबिन में बुला कर मुस्कुराते हुए प्रसाद देते और पूछते..यह तो खा लेंगे न आप..

कई बार मेरे लेखन से बेहद अपसेट हो जाते तो नवीन जोशी उन्हें संभालते...

उन दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया और नवभारत टाइम्स में रविवार की दोपहर सिर्फ और सिर्फ मेरे गायन की हुआ करती थी.. रामपाल जी तो भूले से भी संडे को आफिस नहीं आते थे कि आज तो राजीव ने मजमा जमा रखा होगा...लेकिन एक रविवार त्रिखा जी आ गए...हॉल के अंदर शीतल मुखर्जी का खास ऐसे मौके पे लाया ट्रंजिस्टर चिंघाड़ रहा तो उससे भी तेज आवाज में मेरा गला.. टाइम्स ऑफ इंडिया में बैठा शीतल मुखर्जी वाह वाह कर ताल दे रहा..यहां ध्यान दें कि मैं कुर्सी पे नहीं, बल्कि बड़ी सी गोल मेज पर गायकों की मुद्रा में बैठता था...

त्रिखा जी काफी देर तक दरवाजे पर खांसते रहे खखारते रहे, लेकिन इतने शोर में कहां सुनाई देता है..अंत में त्रिखा जी ने अंदर कदम रखा और सीधे अपने केबिन में..मैंने किसी तरह अपनी आवाज रोकी, ट्रांजिस्टर बंद किया...कुछ देर की घनघोर शांति के बाद त्रिखा जी ने बुलवाया...

राजीव जी यह क्या हो रहा है..तो अपन ने क्या कहा..सुनिये...त्रिखा जी आज तो आपको आफिस आना ही नहीं चाहिए था..संडे तो मेरा दिन होता है..इस बेहद नामाकूल अंदाज़ से खफ़ा हो कर त्रिखा जी जो चाहे कर सकते थे..लेकिन एक तो वो दिन ही बिल्कुल और थे..त्रिखा जी भी उतने ही शानदार इंसान..

करीब दो साल का साथ रहा मेरा उनके साथ..87 में चंडीगढ़ जनसत्ता जाते समय त्रिखा जी ने आफिस में मेरी पार्टी कर मुझे विदा किया था...

आज के चाकर किस्म के पत्रकार कल्पना भी नहीं कर सकते पत्रकारिता के उस समय के बेहद शानदार माहौल का...और वैसा माहौल देने में त्रिखा जी का होना कितना जरूरी होता था...

1/18/18
जनसत्ता-एक्सप्रेस का हॉल

सत्तासी के अप्रैल में लखनऊ नवभारत टाइम्स से विदा ले चंडीगढ़ जनसत्ता में...

एडिटोरियल हॉल एक्सप्रेस और जनसत्ता का एक ही..दस साल से अब तक उस पर इंडियन एक्सप्रेस का ही राज चल रहा था..पर बंटवारे के वक्त कोई खूनखराबा नहीं..

हॉल में घुसते ही दाहिनी दीवार से सटा जनसत्ता का कारोबार...सामने और उसके दाहिनी तरफ एक्सप्रेस का खेला..
दोनों की जनरल डेस्क आमने सामने न होकर थोड़ी तिरछी..तो जैसे मैं संस्करण प्रभारी के रूप में अपनी कुर्सी पर बैठूं तो एक्सप्रेस प्रभारी को देखने के लिये आंखों को दाहिनी तरफ हल्की सी ज़ुम्बिश देना ज़रूरी..

एक्सप्रेस वालों में कई बड़े नाम..संजीव गौड़ और निरुपमा दत्त और जगतार और प्रदीप मैगज़ीन खास तौर पर...तहलका वाले तरुण तेजपाल ने तभी एक्सप्रेस छोड़ टेलीग्राफ ज्वायन किया था..लेकिन उसकी मोटी सी खूबसूरत बीवी गीतन वहीं हमारे बीच..इंडिया टुडे के जाने माने फोटोग्राफर प्रमोद पुष्करणा की बीवी जया रिपोर्टर..

अब मुद्दे पर आया जाए...
प्रभारी की कुर्सी के बिल्कुल सामने की दीवार न देख कर अगर आप हल्का सा दाहिने जाएं तो बड़ी सी खिड़की और खिड़की से सटी मेज..मेज के पीछे कुर्सी और कुर्सी पर लावण्यमयी युवती विराजमान..सांवला रंग..कलफ लगी सूती धोती या साड़ी..
खबरों के तार छांटते एक दिन नज़र उठायी तो खिड़की वाली को ध्यान से देखा..अच्छी लगी..कई कई बार देखा..दो दिन बाद उधर पता चल गया कि कोई देखता है..भले ही नज़रों में मवालीपन न हो पर देखता तो है न..
तीसरे दिन माथे पर बड़ा सा लाल सूरज और मांग में सिंदूर..

लेकिन हमने देखना बंद नहीं किया..और क्यों बंद करूं....आंखों में प्रशंसा का ही तो भाव है न..

नवभारत टाइम्स की फिल्म समीक्षा और फिल्म लेखन की लोकप्रियता की भरपूर सुगंध चंडीगढ़ भी पहुंच गयी थी..सो, आदेश हुआ कि जनसत्ता में जारी रखा जाए..एक दिन सुरक्षा गार्ड के रूप में सरदार हरजिंदर सिंह को पकड़ आतंकवादियों के प्रिय ठिकाने मोहाली पहुंच गया पिक्चर देखने..वतन के रखवाले..लौट कर समीक्षा लिख छपने दे दी..

दो दिन बाद रैक पर रखे अखबारों को दो-तीन एक्सप्रेसी देख रहे..कुछ देर बाद वो मेरे पास आए..उनमें से एक बेहद हैंडसम युवक ने पूछा ..राजीव मित्तल आप ही हैं!!! मेरे हां कहते ही तपाक से हाथ मिलाया...गुरू मज़ा आ गया..ये थे प्रदीप मैगज़ीन...यानी उस युवती के पतिदेव..

अब युवती को देखना बंद कर दिया तो उधर से अक्सर अपनी तरफ देखते पाता..अब उन निगाहों में प्रशंसा का भाव..जय हो वतन के रखवालो..एक रात वैन में साथ हुआ..आप जलवा पर क्यों नहीं लिख रहे..नवभारत टाइम्स में लिख कर आ रहा हूं..ये थीं मुक्ता मैगज़ीन..जिनके टिफिन की प्रदीप के साथ कई बार हिस्सेदारी निभायी..



1/19/18
बॉम्बे में देवदास

बॉम्बे की पहली तीन यात्राएं...
पहली बार इंटर में 
दूसरी बार इंटर फेल
तीसरी बार इंटर पास

फेल इंटर को जब पास किया तो जाहिर था बीए में आते..और बीए में आते आते अपनी दुनिया पूरी तरह काली पीली हो चुकी थी..चकत्ते तक पड़ गए थे..तू तू नहीं मैं मैं नहीं वाला हाल..

कुछ देर क्लास में भटकने के बाद सायकिल उठाता और शारदा नहर की लहरें गिनने बैठ जाता..कुछ देर बाद दो-चार दोस्त तलाशते हुए पहुंच जाते कि कहीं छलांग न लगा दी हो..

दीवाली निकलते ही बॉम्बे..उषा दी को पत्र लिखा...आ रहा हूँ..जवाब में...आ जाओ..
ट्रेन यात्रा में पहली बार इकलौता था..20 घंटे चुप्पी मारे रहा..नासिक आते आते कोट स्वेटर उतर चुके थे..इगतपुरी में टिफ़िन का बचाखुचा खाना इस उलाहने के बाद पकड़ा दिया..अबे कुछ देगा भी..

कल्याण पे उतर उषा दी के उनका कुछ मिनट इंतज़ार किया और फिर तुफैल में टैक्सी पकड़ अम्बरनाथ..टैक्सी जब जंगल और पहाड़ियों से लबालब अम्बरनाथ में घुसी तो इहलाम हुआ कि महामूर्ख हूँ..लेकिन ईश्वर ने साथ दिया और  घर नज़र आ गया, जहां मुझे जाना था..टैक्सी को रोक एक खड्ड में बसे उस घर के दरवाज़े को पीटा..उषा दी दरवाज़े पर..तुम अकेले, वो कहाँ हैं!! अपना मासूम जवाब .. टैक्सी पकड़ कर आ गया, उनका पता नहीं..उषा दी आंखे चौड़ी कर बोलीं..तुम बिल्कुल नालायक ही रहोगे क्या..

बहरहाल, अगले एक महीने उस गोआनी बस्ती से विक्टोरिया टर्मिनस, वीटी से चर्चगेट और चर्चगेट से सात बंगला तक का डोलना कैसा रहा..यह अगले अंक में..

1/19/18

सुर तो ठीक ही लगा था.. फिर....


गमले में फूल पूरी सोच और तैयारी के साथ खिलाये जाते हैं, पर उसी गमले में कई बार हरी घास भी झांकने लगती है, जिसका फूल से, उसके उगने और खिलने या फूल को सहलाती हमारे हाथों की उंगलियों या फूलों को निहारती हमारी आंखों से कोई संबंध नहीं होता। वो घास या तो हमारे रहमो करम पर रहती है या खुद ब खुद मुरझा जाती है.....लेकिन कई बार हम पाते हैं कि अचानक फूलों के पौधों के बीच बेवजह उग आयी घास हमारे दिल में कुछ ऐसा पैठ जाती है कि सारे फूल अपनी खुश्बू के साथ कहीं ओझल हो जाते हैं।


जब मां और सब टीचरें स्कूल चली जातीं, तो हॉस्टल पर कुछ घंटों के लिये अपना साम्राज्य। चाहे जितना गुलगपाड़ा मचाऊं, छत की मुंडेर पर चढ़ पतंग उड़ाऊं.... फुल वॉल्यूम पर गाने सुनूं.....गलियारे में किसी के दरवाजे को विकेट बना कर बल्ले बाजी करूं या अपना सुर कैसी भी उंचाई पर ले जाऊं......या नहाते समय बाथरूम का दरवाजा खुला छोड़ दूं। ऐसी ही दोपहर थी वो...खटखट सुनी तो आवाज को लगाम दी.. दरवाजा खोला। नया चेहरा.....मैं बगल के कमरे में कुछ दिन पहले आयी हू...तुम्हीं गा रहे थे..... जी..जी..जी..हां। मिसेज मित्तल के बेटे हो न......किसी काम से आयी थी...गाना सुन कर रुक गयी... डिस्टर्ब करने के लिये सॉरी।

एक इतवार को दिखीं तो अपने कमरे में बुलाया.....वो गीत आता है?.....सुना दो। सारी लज्जा और शरम के बावजूद दुनिया वालों से जुड़ने को यही तरीका अपनी पसंद का था। गला खखार शुरू हो गया। आधे पर ही था कि उनके आंसू बहने लगे। अब मैं क्या करूं। हुक्का बन गया बिल्कुल। उठीं..मुंह धोकर आयीं। मेरे हसबेंड को बहुत पसंद था। लास्ट ईयर मॉस्को में निधन हो गया। आईएफएस थे। जैसे ही जाने को हुआ....रुको... तश्तरी में मेवों की ढेरी रख हाथों में थमा दी। खूब सारे रिकॉर्ड्स दिखाये...पुराने स्टाइल का ग्रामाफोन। ये सब तुम अपने पास रखो। अगले दिन मां से सुना कि फोटोग्राफी का भी शौक है तो कीव कैमरा भी।

एक दोपहर। अपने कमरे में ले गयीं....दो नये चेहरे घूरते दिखे। इनसे मिलो......। गलाबाजी तय थी। आह-वाह के बाद एक ने भी कुछ सुनाया। गाना सुनाने वाली नये सेशन में हॉस्टलर हो गयी। कमरा एक मंजिल ऊपर। नकचढ़ी लगी। अगस्त में गायन सीखने लगा तो पूरी शाम वहीं का हो गया। भातखंडे ने अपने शेयर काफी ऊंचे पहुंचा दिये। प्रशंसकों की तादाद में जबरदस्त उछाला। उन मैडम की नाक भी सम पर आ गयी। नाक सम पर आ गयी तो पूरा गलियारा उनकी खिलखिल से भर उठा। चूंकि सब मां के गैंग की थीं...तो, इज्जत से पेश आना जरूरी था। अब उनके साथ खूब उठना-बैठना..किताबों की चर्चा..फिल्म देखना...घूमना.. एक दिन उनकी डायरी मांग बैठा और जब मिल गयी तो तकिये के नीचे रख कर कई नींद पूरी कीं।

दिसम्बर में भातखंडे में गायन की परीक्षा.... एक बड़े कलाकार के सामने..... खमाज पकड़ने का हुक्म मिला.. सुना दिया तो कलाकार मुस्कुराये..आपने ठीक गाया?.....जी, बिल्कुल ठीक गाया....तब उन्होंने गा कर सुनाया तो पता चला..अपना धैवत गलत लग रहा था। लेकिन सिखाया ही उसी तरह गया था। अपनी गल्ती मानने को तैयार नहीं था। वो बोले....अपने मन से कुछ सुनाओ। बिलावल में कुछ सुनाया। उन्हें पसंद आया। बोले..अगले सेशन में मेरे पास आना। गला संभाले रखो।

जनवरी में सेशन शुरू हुए कई दिन निकल गये लेकिन मैं नहीं गया। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्यों नहीं जा रहा हूं। सांस की तकलीफ का बता कर घर वालों को शांत कर दिया। रात आठ बजे के बाद कमरे में ही महफिल लगने लगी। तार कसते जा रहे थे...... नयी झंकार में कुछ अजब झनझनाहट। सारे सामाजिक क्रिया कलाप बंद...कॉलेज और घर..... बस। एक शाम रास्ते में भातखंडे के एक शिक्षक मिल गये.....तुम आ क्यों नहीं रहे हो....महीना भर हो गया......दो नये राग सिखा दिये गये हैं.....मेरे घर आ जाओ कल से...पूरी तैयारी करा दूंगा। यह गल्ती मत करो। हां हूं कर टाला उन्हें...कौन बताता कि किस दौर से गुजर रहा हूं।

इंटर के एग्जाम सिर पर आ गये....हाथ लग गयी अमृतलाल नागर की बूंद और समुद्र। करेले की बेल पहले से लिपटी पड़ी थी अब नीम भी सवार। रिजल्ट आया तो फेल... फिर उसी क्लास में। मां-पिता ने बुरा लगने जैसा कुछ न जताया.. तो.. यहां भी सामान्य होने में देर नहीं लगी।

हर रविवार को अपने घर चली जातीं तो बहुत खाली-खाली लगता। बाकी छह वार स्कूल की छुट्टी साढ़े चार बजे। मां समय पर आ जातीं। अब कान सीढ़ियों की पदचाप पर टिकने को बेताब। यह नहीं, यह भी नहीं....अचानक कोई ऐसा कदम पहली सीढ़ी पर पड़ता कि दिल और दिमाग के सारे सुर-ताल हिलने लग जाते। सीढ़ी कम होती जा रही हैं। दो पैड़ी बचीं..फिर एक....फिर.... अब कदम किधर की तरफ मुड़ते हैं.. दरवाजे की तरफ या अपने कमरे तक जाने को ऊपर की ओर। दिल बाहर निकलने को। दरवाजा खटका तो पूरी कायनात अपनी झोली में...नहीं तो..तो..गहरे डूबने की तैयारी।

अक्तूबर आया तो स्कूल में दशहरे की छुट्टियां। अपना सिर दीवार पर दे मारने का मन करे। एक दिन मां पकड़ कर बैठ गयीं.....राजू ..अब यह सब छोड़ दे...बहुत हो ली भावुकता...वो अब जल्दी ही यहां से जा रही है....उनके चेहरे पर निगाह ठहर गयी......वो घर वालों को बिना बताये शादी करने जा रही है। लड़का पीसीएस है.. बम्बई कस्टम में। इंच-टेप लेकर बैठ गया लेकिन इंटरफेल की नाप किसी तरह पीसीएस को नहीं छू पा रही थी............गमले में बेवजह उग आयी घास पीली पड़ रही है..फूल-पत्तियों पर ध्यान दे यार.......।



1/20/18 
वो वक्‍त
कब होता है
जब मैं 'मैं' होती हूं
और वहाँ
तुम नहीं होते......

कहो न फिर
मैं तुम्‍हें याद कब करूँ
कैसे लिखूँ
आंसू भीगे ख़त

तुम तो तब भी
पास होते हो
जब मैं
अलगनी पर
गीले कपड़े 
पसार रही होती हूँ
या 
साग-सब्‍जी का
हिसाब कर रही होती हूँ

फिर कैसे
पतंग पर 
तेरे नाम एक संदेश लिखूँ 
और ढील दूँ डोर को
तुम तक पहुँचने के लिए
या समुन्दर किनारे
खड़े होकर 
लहरों को तुम्हारा पता दूँ

तुम्हें पता नहीं क्या अब तक 
मैं...यानी तुम 
क्‍या अब भी
दूरी कोई है हमारे दरमियाँ 

…© रश्मि शर्मा

1/20/18
गतांक से आगे...

अम्बरनाथ के जंगलों में..

पहले तब के अम्बरनाथ का जुग्राफिया.. मरगिल्ला सा स्टेशन..पेट और पीठ आपस में चिपक गई हों जैसा प्लेटफॉर्म..वहां से निकल कर अजीबोगरीब बसावट..कोई मकान टेकरी पर तो कोई गहरे खड्ड में..एक साथ तीन मकान बहुत कम..मकानों के बीच पेड़ों और झाड़ियों की भरमार..पांच सौ फुट ऊपर तक जाती पहाड़ी कच्ची सड़क..दो तरफ घना जंगल..

खरे साब कस्टम ऑफिसर.. तो घर भर में आयातित सामान की भरमार..बाथरूम तक में टीवी..हर समय किसी सेठिये की मर्सिडीज़ द्वारे पे..खुद के पास बड़ी सी कार.. चालक ड्राइवरी के अलावा किचेन भी संभालता.. वहां से मेन बॉम्बे की दूरी दो घंटे की..

खड्ड में धंसे इस घर के दाहिनी तरफ के टैरेस से दिखती एक पहाड़ी...उस पहाड़ी पर किसी पीर की मज़ार...रास्ता घने जंगल से हो कर..वहीं बीच जंगल में हज़ार साल पुराना मंदिर, जिसमें खरे साब उल्टी सीधी कमाई को पुण्य में बदलने को छुट्टी वाले दिन लंबी पूजा करते..दो बार साथ में गया तो मैं अंदर न जा कर एक नहर के किनारे किनारे चलता चला जाता और घने जंगल में धंस जाता, जहां एक से एक विचित्र जीव इस जीव को घूरते..

उषा दी सिसोदिया वंश की..खरे साब उनके सामने टेंचू जैसे बने रहते..जब तक उषा दी को मातृत्व वाला दर्द नहीं हुआ, ज़िन्दगी बड़ी चैन से कट रही थी अपनी..न फेल होने का डर, न वो बेनाम दर्द..बस दिन भर हल्ला गुल्ला.और यहां घूम वहां घूम..

मां बनने के दिन नज़दीक आ गए तो उषा दी चर्चगेट के एक शानदार हॉस्पिटल में भर्ती..खरे साब का वहीं उनके साथ रहने का इन्तज़ाम ..बचा मैं, तो दिन में खरे साब की तरफ से पूरी बम्बई टूलाने का पूरा बंदोबस्त, जो अगले 15 दिन बिना बाधा के चला..

लेकिन उन 15 दिनों की कई रातें बड़ी खौफ़नाक गुजरीं, जो दो बजे अम्बरनाथ स्टेशन से शुरू हो जातीं..
इस बारे में अगला अंक....
1/22/18
जो इतिहास मराठाओं की हार को मौसम बता रहा है वो मूर्ख बना रहा है..

पानीपत का तीसरा युद्ध अफगानों और मराठाओं के बीच लड़ा गया। अफगान आक्रमणकारी अहमदशाह अब्दाली इस युद्ध से पहले एक बार मुगल सल्तनत की धज्जियां उड़ाते हुए दिल्ली को बुरी तरह लूट कर हजारों औरतों, बच्चों और पुरुषों को ऊंटों पर लाद कर काबुल के बाजारों में बेच चुका था। उसने फिर भारत पर चढ़ाई की, पर इस बार उसका रास्ता रोके खड़े थे एक लाख मराठा सैनिक। फ्रांसीसी तोपों और बंदूकों से लैस। 

युद्ध क्षेत्र में अब्दाली के पहुंचने से पहले ही वहां मराठा सेना खाई-खंदक खोदे तैयार बैठी थी। दोनों सेनाएं बजाये लड़ने के एक-दूसरे की घेराबंदी कर बैठ गयीं और हल्की-फुल्की झड़प के अलावा दो महीने तक देखा-देखी चलती रही। गड़बड़ी यहीं से शुरू हो गयी। अब्दाली ने स्थानीय कुमुक के लिये पीछे की खिड़की खुली रखी जबकि मराठाओं की रसद वगैरह की सप्लाई के सारे रास्ते बंद हो गये। 14 जनवरी 1761 को युद्ध शुरू हुआ, लेकिन नतीजा वही निकला। अब्दाली के घुड़सवारों ने मराठाओं को दौड़ा-दौड़ा कर मारा। 

इस हार के साथ ही देश भर में करीब पचास साल से चला आ रहा मराठाओं का दबदबा पूरी तरह खत्म हो गया। यहां हार का कारण मराठा सिपहसालारों की आपसी रंजिश बनी। मराठा कमान के सेनापति सदाशिवराव भाऊ की अपने भतीजे विश्वास राव से नहीं बन रही थी, जो पेशवा बालाजी विश्वनाथ का बेटा था। सिंधिया से होलकर खार खाये बैठा था, तो गायकवाड़-भौंसले अपनी-अपनी चला रहे थे। 

सबसे बड़ी बात यह है कि मराठाओं को उत्तर भारत के किसी राजा से कोई मदद नहीं मिली। उन्होंने सालोंसाल जिस तरह मुगल बादशाह और उत्तर भारत के राजाओं से रंगदारी वसूली, उस कारण क्या सिख, क्या जाट, क्या रोहिल्ले और क्या राजपूत-सभी उनसे खार खाये बैठे थे। जबकि अब्दाली को जाटों और रोहिल्ले पठानों से वक्त-वक्त पर मदद मिलती रही।

इस लड़ाई के बाद ही अंग्रेजों ने भारत के एक से एक बलशालियों की मिट्टी पलीद करनी शुरू की। पहले पेशवा को निशाना बनाया, फिर सिंधिया को, होल्कर को, और सबसे अंत में महाराजा रंजीत सिंह के मरने के बाद सिखों को। मुगल बादशाहत तो पहले से ही बेदम थी। निजाम को शुरू में ही अंग्रेजों ने अपना पिट्ठू बना लिया था। 



1/31/18

एपी सेन रोड



सर्दियों की वो अंधेरी शाम... चर्र रररररररररर.. जंग खाए लोहे के गेट की आवाज ...सामने लॉन...उसके पीछे पोर्टिको..पोर्टिको के पीछे बरामदा..उधर झांकना भी मत..तुरंत बाएं मुड़ लो....फिर बड़ा सा लॉन....कई पेड़...दीवारें साथ-साथ घूम रहीं....छोटा सा बरामदा...छोटी सी मुंडेरी....एक कमरा...बाबा आदम के जमाने के उस बंगले का ही हिस्सा...लेकिन अलग-थलग..... 

वो लफंगा इनसान साथ में....कमरे में प्रवेश करते हुए धुकधुकी ....बहुत दिन बाद मिलना हो रहा था.....आवाज खनकी...आइये आइये... एक दांत पर चढ़ा दूसरा दांत चमका.....यही हैं अरुणा सेनगुप्त....जो लाइन मारने में विश्वास रखते हैं उनके लिये...कुमकुम..

एपी सेन रोड का एक मुहाना चारबाग स्टेशन से अमीनाबाद और दूसरा स्टेशन से हजरतगंज जाने वाली सड़क पर। उसे स्टेशन रोड भी बोलते हैं। इन दोनों मुहानों के बीच की दूरी छह सौ मीटर से थोड़ी ज़्यादा और चौड़ाई इतनी.. कि एक ट्रक निकल जाए। 

अब तो अक्सर जाम लगा रहता है......तब यह रोड अलसायी सी कुनमुनाती हुई जैसे किसी का इंतजार कर रही हो... इस मुहाने से सिगरेट सुलगायी और खरामा खरामा उस मुहाने तक कश पे कश। दोनों तरफ बंगले....पेड़ों के बीच छुपे से...कुछ दो मंजिला मकान...तीन मंजिला मात्र दो....लेकिन सभी की चहारदीवारी के साथ लगे फूलों के पौधे या आम के पेड़ और तिकोना अर्जुन। 

देखने लायक रंगत होती मई-जून की दोपहरों में, जब गर्म हवा...दोनों कतारों को लेफ्ट-राइट कराती हुई अपनी खूबसूरती बिखेरने को ललकारती...एक तरफ सुर्ख गुलमोहर तो दूसरी तरफ अमलतास की बासंती बहार...और सड़क पर बिखरी पड़ी लाल-पीली छटा.....स्टेशन रोड वाली तरफ से दाहिनी तरफ कई एकड़ जमीन पर पहला बंगला डॉ. सेन गुप्ता का। सीडीआरआई में जाने माने साइंटिस्ट....

जाड़ों की उस शाम चारबाग के रोशन बाजार में चूंचूं खरहा के माफिक छलांग मारता दिखा.....अफ़िशिअल नेम..मिथलेश चतुर्वेदी...अपन की जिंदगी में ऊदबिलाव की माफिक नामुदार हुआ और बिला गया...अनूप जलोटा का बेहद करीबी...कई सालों से मुम्बई में अभिनयबाजी कर रहा है......अपना कैमरा गुरू भी हुआ करता था .....

आवाज दी...रुकते ही ब्रजभाषा में चौबों वाली गालियां...फिर हरी आंखें सिकोड़ कर दांत चमकाए....तुम साले कुछ कर धर तो रहे नहीं हो....चलो कुमकुम के घर....नाटकों से दिल लगाया जाए। अपना वक्त पीएचडी और प्रोफेसर केके श्रीवास्तव से तौबा बोल मैडम मलिक की याद में गुजर रहा था। एक दम तो घर में घुसने की हिम्मत थी नहीं सो चूंचूं ने किसी दुकान से फोन लगाया...बातचीत से लगा कि मंजूरी मिल गयी है।

अब उसी बंगले के अंदर..उसी कमरे में...खनकती आवाज...अदा के साथ ......आ..प.. भी सृष्टि.. में.. आ..ना.. चाह...............ते हैं! अपन हल्के से डुलडुलाए.....चलिये इसी बात पर आपको कॉफी पिलायी जाए....कल आप आ जाइये...आपको सुधीर जी से मिलवा दूंगी...ये नामाकूल कौन.....चूंचूं ने इशारे से रोका.....कॉफी पी कर खनक से मीठी विदा ली....गेट से बाहर निकल सड़क पर ही चूंचूं का रॉक एंड रोल शुरू.....ये सुधीर साहब कौन हैं? कुमकुम के होने वाले वो और सृष्टि के कर्ताधर्ता....दूरदर्शन में हैं। यूनिवर्सिटी के सामने योगकेन्द्र.....वहीं रिहायश.....

तो जी.... दूसरे दिन से हम रंगमंची हो गए। सुधीर ने पहली प्रस्तुति के लिये उपन्यास तलाशने और फिर उसको रंगमंचीय बनाने का काम अपन को सौंपा....ओहदा...सहायक निदेशक...
उस बैठक में एक और शैदाई...शीतल मुखर्जी...इंटर फेल होने के बाद के इंटर का साथी....तब अपन को बंगाली बनाने में जी जान से जुटा रहता था.....तबाह जीनियस.......चूंचूं से उसकी दुश्मनाई तो कभी दोस्ती....भारी पड़ गयी अपने को....बाद में.....

शरतचंद के चरित्रहीन पर लग कर काम किया...कुछ दिन रिहर्सल भी हुई...अपने को मिला दिवाकर का रोल....खर्चा लेकिन बहुत आ रहा था....तो कोई हल्की-फुलकी चीज तलाशी गयी.....फाइनल हुआ रमेश बक्शी का वामाचार..... मंच पर पहुंचने से पहले ही सृष्टि दमकने लगी थी....बंगला गुलजार होता गया... रोजाना नये-नये चेहरे......नये अंदाज...नयी बातें...नये शिगूफे...किनारे पर ही ढाबा...वहां चाय के साथ बैठकी....शीतल के साथ चरस के दम ....एक सिगरेट के बाद ही दिमाग दौड़ने लगता....वामाचार को फटाफट रंगमंचीय बना दिया......रवीन्द्रालय का मिनी थियेटर चार दिन के लिये बुक.....सबने अपने-अपने टिकट बेच डाले...उन्हीं दिनों उसका लखनऊ आगमन...अपना कारनामा दिखाने को बुलाया लिया ...

चार दिन खूब गहमागहमी के रहे...पांचवे दिन से उजड़े दयार में...कुछ दिन बाद फिर नये स्क्रिप्ट की तैयारी....रात के एक बज जाते...लौटते समय बहुत लम्बा चक्कर लगाने की आदत...शीतल से आर्यनगर में ही विदा ले लेता...वहां एक हवा महल...हवा महल में सोयी राजकुमारी...जिसे कभी पता नहीं चला कि आधी रात कोई एक उसके दरवाजे तक आ कर लौट जाता.....

इस बार चरित्रहीन...फिर सहायक निदेशक...योगकेन्द्र भी जाना शुरू...एक दिन सुधीर बोले...हम तुमको एनएसडी भेज रहे हैं...तैयार हो ना....स्क्रिप्ट के चलते बंगले में कई बार जाना होता...कुमकुम से खूब दोस्ती हो गयी..अपना एक काम और....शीतल और चूंचूं को आपसे में भिड़ने से बचाना...दोनों काफी पहले से कुमकुम के दीवाने थे.....किसी एक ने अपना रकीब मान सुधीर के कान भर दिये......

अब इस गुफ्तगू पर गौर फरमाएं....तुम कुमकुम को क्या मानते हो....अच्छी दोस्त है....मैं सोचता था बहन मानते हो...सुनते ही दिमाग भन्ना गया....वो है मेरे पास...दुनिया भर की लड़कियों को बहन मानने का कोई इरादा नहीं.....दूसरे दिन से जाना बंद ...कई बार बुलावा आया...पर नहीं गया....नहीं गया तो एनएसडी भी गया तेल लेने.....इसी सृष्टि से बाद में अनुपम खेर जुड़े...साइकिल पर यहां-वहां डोला किये...शीतल ने उन्हें रोक कर मिलवाया...उन्होंने मर्चेंट ऑफ़ वेनिस का मंचन किया...अब दर्शक की भूमिका में..साथ में नीना भी थी....

और अब...बस यह पता है कि दो मुम्बई में...दो इस दुनिया से जा चुके....बाकी...उस ग्रुप के 20 और जनों की कोई जानकारी नहीं.....लखनऊ जाने पर एक बार वहां से जरूर गुजरना...बंगले पर निगाह जरूर डालनी...वहां अब कोई आवाज नहीं....गुलमोहर और अमलतास की कतारें साफ कर दी गयी हैं.... एपीसेन रोड...जहां कई झुलसाती हवाओं को छू कर मस्ती छायी है अपने पर...अब उस मुहाने से इस मुहाने तक आते-आते उदासी दसियों गुना बढ़ जाती है. क्या खोया क्या पाया के चक्कर में पड़ने से बचने को उस पर बंद कर दिया है पैदल चलना.....

2/2/18


 


साहेब की कविता






एक सरकारी दफ्तर जैसा कुछ....ऐंडी-बेंडी कुर्सियां....तीन टांग की मेजें....फटहे पोंछा जैसा कालीन...यहां-वहां पड़े हत्था टूटे प्याले, जिनके पेंदे की बची चाय में कुछ मक्खियां गोता लगा कर शीर्षासन कर रहीं तो कुछ चटखारे ले कर भन भना रहीं। हॉलनुमा दड़बे में एक और दड़बा, जहां साहब बैठते हैं। शायद बैठे भी हैं...क्योंकि स्टूल पर बैठा चपरासी बीड़ी नहीं पी रहा, खैनी दबाये ओंघा रहा है। 

साढ़े चार कुर्सियों पर पांच मर्द बैठे हीहीहीही कर रह रहे, सामने फाइलों का अम्बार..... जिनमें से सड़े अचार की खुश्बू आ रही है। पीए टाइप युवती टाइपराइटर पर उंगलिया चलाते जिमिकंद का हलवा बनाने की विधि सोच रही..

उम्रदराज महिला स्वेटर बिनते हुए पति की बाहर निकलती तोंद पर कुढ़ रही । तीसरी.... मां आनन्दमयी की मुद्रा में। अचानक साहब ने दरवाजा खोल बाहर झांका, स्टूलिये ने लुढ़कने से बचते हुए मुंह में भरी सुरती गटक ली। माहौल अंटेशन की मुद्रा में..........आगे..........

साहब.....आप सबका काम खत्म हो गया तो शुरू किया जाए आज का कार्यक्रम
सबके मुंह से एक स्वर में हेंहेंहेंहेंहें ......पति की तोंद को किनारे कर वो बोलीं..सर, पिछली बार आपने जो कविता सुनायी थी न.....
भटकटैया के पेड़ पर वो फुदक रही थी
मैं हवा में गोते खा रहा था....
............................................
...........................................
और सर... आखिर में ....
.........राधे राधे किशन किशन ....
तो कमाल का था... यही गुनगुना रही थी अभी ...


मामला हाथ से निकलता देख टाइपराइटर पर धरे हाथ ने जुम्बिश ली......कुछ कुछ कोयल जैसी बोली....सर...
आज तो आपको फिर वही कविता सुनानी पड़ेगी...प्लीज सर...

हिन्दु मुस्लिम सिख ईसाई
आपस में हैं भाई भाई

सर, इस दीवाली पर मढ़वा कर ड्राइंगरूम में टंगवाई है पापा ने.... 


साहब की आवाज में खुरदुरापन काफी नीचे आ चुका था.....आज तो आप सब की तरफ से कुछ होना चाहिये था....
चलिये.... जब आप इतना जोर दे रही हैं तो.........!!!!
यह कविता मैंने 26 जनवरी पर होने वाले अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के लिये लिखी है, पहले आप सब सुनें......उन्होंने चमड़े के ब्रीफकेस से चमड़े की जिल्द वाली डायरी निकाली.....ऊन के गोले झोले में ठूंसती वो बोलीं.....सर प्लीज...एक मिनट....कागज-पेन निकाल लूं .....
सभी मर्द पहले ही टाइपराटर वाली से थोड़ा परे हट कर आसन जमा चुके थे.....

यह कविता मैंने लालकृष्ण आडवाणी, अन्ना हजारे और बाबा रामदेव को ध्यान में रख कर लिखी है। हमारे मुख्य सचिव को बहुत पसंद आयी है। शायद इस बार कोई केंद्रीय पुरस्कार मिल जाए। हां तो सुनें......

काला धन काला धन
विदेशों में जमा काला धन
काला धन काला धन
लेकिन..................
हम धन को काला क्यों कहें
हम क्यों कहें काला धन
काला होता है मानुष मन
मानुष मन मानुष मन
फिर क्यों मच रहा शोर
क्यों धन को काला करने पे जोर
जब आएगा कभी हमारे पास
शुभ्र सफेद चीनी के दानों की माफिक
मीठा कर देगा हमारा तन मन
काला धन काला धन 


कमाल है सर-कमाल कर दिया सर-तारीफ के लिये शब्द नहीं मिल रहे हैं सर.....स्वेटर वाली का रुमाल आंख पर था...
तभी रुंधे गले से पीए ने कहा....सर..मेरे लिये तो यह राष्ट्रगान से कम नहीं..सर..प्लीज...आप तो मुझे अपनी डायरी दे दीजिये...मैं आपकी सारी कविताएं फेसबुक पर डालूंगी।
साहब जी लसलसाए...हां हां क्यों नहीं...लेकिन 26 जनवरी के बाद...

साहब ने घंटी मार कर चपरासी को बुलाया...रामखेलावन के यहां से समोसे ले आओ....चाय सामने बोलते जाना.....चपरासी दरवाजे तक पहुंचा ही था कि स्वेटर वाली बोली...वो चीनी कम डालता है....आज मीठी बनाए.....अब तक पूरी तरह बौरा चुका छोटेलाल बुड़बुड़ाया...घुइंयां बनवाऊंगा मीठी चाय...ससुरों को पता नी क्या हो जाता है महीने के आखिरी दिन....



2/3/18