शनिवार, 28 मार्च 2020

पेड़ पे बैठी खोंपावाली चिरैया किलक उठती-चुम्मा दे दे...

गांव में उत्तरी ओर सड़क के किनारे, उस विशाल वृक्ष के तले राही-बटरोही और बंजारे गाड़ीवानों के दल रोजाना सुस्ताते..कभी विवाह और गौना की बारात गुजरती..दुलहिन की पालकी बरगद के नीचे रुकती..सारा गांव उमड़ पड़ता..

वही नन्हीं दुलहिन कुछ वर्षों बाद गोद में नवजात लड़िकनवाँ लेकर लौटतीं..तब एक बार फिर बट बाबा के पास टप्पर वाली गाड़ी रुकती..छाती से अपने कलेजे के टुकड़े को सटाए अल्हड़ सी मां गाड़ी से उतरती और सुर ताल में बोलती--दुहाय बट बाबा की..
बरगद पे बैठी खोंपावाली चिड़िया किलक उठती--चुम्मा दे दे..

याद आती है नवान्न के दिन की..नया चूड़ा और दही और नया गुड़ केले के पत्ते पे ले ले के घर घर की गृहणियां बट बाबा के पास आतीं...जहां सूर्योदय के पहले से ही न जाने कहाँ से उतने काग जमा हो जाते..कहते हैं वो सब नदी, पोखर में नहा कर प्रसाद पाने के लिए जुटते थे..बरगद की फुनगी पर--पात पात पर बैठे हजारों हजार काग कलरव करते जब केले के पत्ते पर प्रसाद लेकर गृहणियां पुकारतीं--आ आ-आ..और सब काग खुशी में झूम कर जवाब देते--का-का--का..फिर पंख फड़फड़ाते हुए पेड़ से उतरते..जमीन पर बैठते और प्रसाद ग्रहण करते..इस दिन भर कागभोज का आयोजन चलता.. आ--आ--आ..का--का--का और खा--खा की गुहारों के बीच..

दिन भर बोलने, कूकने वाली चिड़ियों की टोलियां सूर्यास्त के बाद कुछ देर तक अंतिम कलरव कूजन करके चुप हो सो जातीं..इसके बाद शुरू होता निशिचर पंछियों का शिफ्ट..जिनका रतजगा शुरू होता रात आठ बजे के बाद से..

करकरा या कर्रा और लंबी टांगवाली मौसमी चिड़ियों की टोली जिस पेड़ पर बैठती, रात में उस पेड़ के नीचे से बिल्ली भी गुजरे तो करकरा की टोली एक साथ कर्कश सुर में किलकिलाने लगतीं---कर्र--कर्र--का--हाँ--स..

हर तीन घंटे पर अचानक एक मनहूस आवाज़ सिहराती--घुघ्घू--घू--ऊ--ऊ..यानी उल्लू..यानी पेंचक..इस पेड़ पर दुदुमा नामके पखेरू का जोड़ा भी रहता था..जिसे मेरी दादी ने भी कभी नहीं देखा..दादी बतातीं..दुदुमा के दो दुम होती हैं..रात गहरी होने पर अक्सर नर-मादा की बातचीत सुनाई पड़ती..नर जैसे सोयी हुई मादा को जगा रहा हो---एँ-हें-एँ ?..यानी जाग रही हो न!!  
जवाब में कुनमुनाई हुई आवाज़..एह-ऐहैं-ऐहैं-ऐहैं...अरे हां.. जगी तो हूँ..बेकार में कांय कांय कर रहे हो...

एक चिड़िया होती है कूंखनी.. इसकी बोली गोद के बच्चों के लिए अमंगलकारी मानी जाती..इसकी बोली सुनते ही माताएं बच्चों को छाती से लगा कर कूंखनी चिरैया को अश्लील गाली दे अपशकुन काटतीं--चुप छिनाल..यहां क्यों आयी..कहीं और जा के मर..

निशिचर पंछियों के अलावा रात में बरगद की डालियों से एक साथ कई खड़खड़ाती हुई आवाज़ें आतीं--उड़नबेंगों की यानी पेड़ों पर रहने हरे रंग के मेंढकों की..इसकी बोली फटे हुए बांस की पड़र्र--र्र..पड़र्र--र्र की तरह..

मलेरिया के चलते रात भर जागने की आदत पड़ गयी, तभी बरगद के इस पेड़ से अपनी घनिष्ठता हुई..रात भर खिड़की से पेड़ की लाखों जुगनुओं से जगमगाती डालियां निहारता...कई बार बिछावन से उठ बाहर निकल बरगद की ओर जाने वाली पगडंडी पकड़ता..और उस विशाल वृक्ष के चक्कर 
काटता..यह कहता हुआ-मैं नहीं डरता..किसी से नहीं डरता..

दूसरे दिन शहर से एक नामी होम्योपैथ को बुलाया गया..वो बोले-इसे नींद में चलने की बीमारी है..
----------------------------
इस बार पतझड़ में उसके पत्ते जो झड़े तो लाल लाल कोमल पत्तियों को कौन कहे, कोंपल भी नहीं लगे...धीरे धीरे वो सूखता गया और एकदम सूख गया--खड़ा ही खड़ा..

हर साल की तरह वैशाख की दोपहर..आग बरस रही..पशु पक्षियों में भी जैसे कोहराम मचा हो..और वो विशाल वट वृक्ष मालूम होता मानो भय से हार्टफेल से मरे हुए विकराल राक्षस के कंकाल को खड़ा कर दिया गया हो.. 

एक सुबह जमींदार के सिपाही पचास एक मजदूर ले कर आये..और एक साथ पेड़ के सूखे तने पर पचास कुल्हाड़ों का वार हुआ--धड़-धड़-खड़-खड़--खड़ाक... गाय, बैल, बकरियां, घोड़े, गदहे चौंक कर गांव छोड़ कर भागे..कुत्ते भौंकने लगे..भयभीत पंछियों के शोर से आकाश गूंज उठा..बच्चे माओं की छतियों से चिपक गए..सारा गांव फूट फूट कर रो रहा..मानो सबों के कलेजे पर वो कुल्हाड़े चल रहे हों..

धड़-धड़-धड़--धड़ाम ...आर्तनाद करता पेड़ गिरा.....

..फणीश्वरनाथ रेणु...


11/15/18