हुआ करता था निसार अहमद..
आज दो मित्रों की ऐसी पोस्ट पढ़ लीं कि अपना दिल भी उन यादगार दिनों के बारे में लिखने को कर रहा..
1961 की दिल्ली में किसी दिन मेरे बाबा जब नज़ीबाबाद से आये तो उनके साथ 14 साल का लड़का भी था..निसार अहमद..हम चारों के चेहरे जितनी जल्दी खिले बुझे भी उतनी जल्दी..क्योंकि जनसंघियों के उस मोहल्ले से कुछ ही दिन पहले दो मुस्लिम युवकों को धक्के मार कर निकाला गया था..
उन दोनों को अपने पिता के साथ उठते बैठते अक्सर देखा था..हमारे डेरे के ठीक सामने उनका कमरा..तो हमारे यहाँ भी आ जाते..
उस सुबह शोर की आवाज़ और पिता के चिल्लाने से आँख खुली तो वो मंज़र देख दिल दहल गया..करीब 50 की भीड़ के सामने उन दोनों का सामान बाहर फेंका जा रहा था..मॉब लिन्चिंग वाला समय कुछ साल दूर था अन्यथा उन दोनों और मेरे पिता के साथ शर्तिया और बुरा होता..
तो निसार अहमद नामके उस छोकरे को अब हमारे साथ रहना था बाल श्रमिक के रूप में..तो सबसे पहले उसका नाम मेरे घोर आर्यसमाजी बाबा ने रघुनाथ किया..कुछ दिन बाद मेरे बाबा जब चले तो उनसे लिपट के वो रोया भी..दोनों का कई दिन का साथ रहा होगा..
लेकिन फिर वो हमसे इस कदर जुड़ा कि उसके साथ घर वाला मामला हो गया..हर मेहमान के लिए वो रघुनाथ था न इससे ज़्यादा न इससे कम..और मेरा जन्म जन्मान्तर का दोस्त..इस बीच कोल्हापुर रोड वाले घर से रूपनगर में बसावट..जहाँ हमारा परिवार पूर्णतया पांच जनों का..
एक साल बाद ही दिल्ली से रायबरेली.. तो वहां घने पेड़ों और बड़े से खेल के मैदान वाली चंदापुर कोठी में टैरेस पर खड़ी माँ की आवाज़ गूँजने लगी- रघु कहाँ हो राजू को लेकर जल्दी आओ..दोनों की कुटम्मस होगी आज..
दो माह बाद ही मुझे टायफाइड हुआ..मरने से बचाने को लखनऊ लाना पड़ा पिता के बड़े भाई के यहाँ.. उन दिनों में निसार उर्फ़ रघुनाथ हमारे परिवार का पांचवां प्राणी था भी और नहीं भी था..दूसरे के घर में उसे बहुत कुछ से परे कर दिया गया..बस इतना याद है कि अर्द्धचेतन अवस्था में मुझे जब यह सुनाई दिया कि वो कहीं चला गया तो मैं रोया था खूब तेज आवाज़ में..मेरे ठीक होने के बाद जब चंदापुर कोठी के उस तीन कमरे के फ्लैट में दाखिल हुए तो हम फिर चार थे..
2/25/19