कश्मीर भारत का buffer state
बीजेपी ने जिस फुर्ती से महबूबा मुफ्ती का साथ पकड़ा और फिर साथ छोड़ने का फैसला किया, वह भारतीय राजनीति की गलाजत का शानदार नमूना था। उसके बाद से पार्टी के जो बयान आये और केंद्र सरकार ने जो फैसले किए, उनका इशारा ही यही था कि कश्मीर समस्या का जल्दी कोई हल निकलने वाला नहीं है।
कश्मीर समस्या हल करने में नई दिल्ली की नाकामी नई नहीं है। न ही कोई एक पार्टी इसके लिए जिम्मेदार है। इस मामले में पूरे राष्ट्र को फेल मानना चाहिए। कश्मीर को लेकर हम घूम-फिर कर वहीं आ जाते हैं जहां 1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के वक्त थे। शेख की गिरफ्तारी के बाद से नई दिल्ली जम्मू-कश्मीर में ऐसी सरकारें ही बिठाती रही है, जो राज्य के लोगों का भरोसा कभी नहीं जीत पाईं।
नब्बे के दशक में वीपी सिंह की नाकामी के चलते कश्मीर के उग्रवाद की गिरफ्त में आने के बाद से सारा फोकस हिंसा को काबू करने पर है। जबकि हिंसा लक्षण है, रोग नहीं। रोग है कश्मीरी अवाम में असंतोष और नई दिल्ली के न्याय में उसका भरोसा उठ जाना।
कश्मीर समस्या को लेकर शुरू से, खास कर 2014 के बाद से आज तलक हर कोई छोटा बड़ा भाजपाई जवाहर लाल नेहरु को कोस रहा है..जबकि पूरे परिदृश्य में नेहरु कहीं से भी ग़लत नहीं हैं..
उन्होंने मजहब के आधार पर बंटवारे के समय एक मुस्लिम बहुल प्रदेश को भारत का हिस्सा बनाने का करिश्मा कर दिखाया..इस पर कोई राष्ट्रवादी हिन्दू ध्यान नहीं दे रहा..स्वतंत्रता संग्राम के दौरान शेख अब्दुल्ला की राजनीति देश के इतिहास का एक शानदार अध्याय है..कश्मीर में उस समय सौहार्द का माहौल था, जबकि बगल के राज्य पंजाब में भयानक मारकाट मची हुई थी, जिसका असर जम्मू में भी हो रहा था क्योंकि वहां हिंदू सभा और मुस्लिम लीग जैसे सांप्रदायिक संगठन सक्रिय थे..
1930 में जब हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग आजादी के आंदोलन से दूर भाग रही थीं और अंग्रेजों से अपने रिश्ते जोड़ रही थीं, शेख अब्दुल्ला कश्मीर में 1932 में बनी मुस्लिम कांफ्रेंस को सेक्युलर राजनीति की ओर ले जाने में लगे थे। उन्होंने मुस्लिम कांफ्रेंस का नाम 1939 में नेशनल कांफ्रेस कर दिया और इसमें गैर-मुसलमानों को पद सौंपे.. वह जिन्ना और मुस्लिम लीग के कट्टर विरोधी थे और उन्होंने लीग को घाटी में कभी उभरने नहीं दिया था..
नेशनल कांफ्रेंस पर नेहरु व गांधी का प्रभाव था जबकि आरएसएस और हिंदू महासभा से जुड़ी कश्मीर राज्य हिंदू सभा महाराजा हरि सिंह के इशारों पर काम करती थी..इस संगठन ने मई 1947 में प्रस्ताव पारित कर जम्मू-कश्मीर को स्वतंत्र रखने के महाराजा के फैसले का समर्थन किया था.. महाराजा के समर्थन में प्रस्ताव मुस्लिम सांप्रदायिक संगठन ने भी किया था, लेकिन पाकिस्तान के साथ रहने की सिफारिश के साथ..
बाद में हिंदू सभा ने बदलते हालात को देख भारत में विलय का प्रस्ताव किया और वहां के सांप्रदायिक माहौल को बिगाड़ने में लग गई.. नेशनल कांफ्रेंस का विरोध वह इसलिए करती थी कि उसका नेतृत्व मुसलमान कर रहे थे..रियासत के भारत में विलय के बाद शेख अब्दुल्ला ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी वकालत की। उनकी गिरफ्तारी के पीछे भी उग्र हिंदूवाद था..
भारतीय जनसंघ ने राष्ट्रीय स्तर पर और उसकी सहयोगी पार्टी प्रजा परिषद ने राज्य स्तर पर नेशनल कांफ्रेस के खिलाफ अभियान चला रखा था और धारा 370 को रद्द करने की मांग कर रहा था..इससे एक ओर कश्मीरी जनता में भारत में उभर रहे हिंदू राष्ट्रवाद को लेकर आशंका पैदा हो रही थी, दूसरी ओर नेहरू सरकार को स्वायत्तता के वायदे से हटने के लिए बाध्य किया जा रहा था..
महाराजा हरि सिंह ने अलग से शेख के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था क्योंकि भूमि सुधार के फैसलों से महाराजा और हिंदू जमींदार शेख के खिलाफ थे। नेहरु की गलती यह हुई कि उन्होंने कश्मीर को किए वायदे निभाने के बजाय नौकरशाही के कहने पर शेख को ही गिरफ्तार कर लिया.. कश्मीरियों ने पाकिस्तान के बदले भारत को इसलिए चुना था कि यह एक सेक्युलर राष्ट्र था, पर नई दिल्ली ने उन्हें निराश किया.. वह कश्मीर को भारत-पाकिस्तान के बीच का भूभाग मान कर चली, जबकि उसे समझना चाहिए था कि कश्मीर सिर्फ भूगोल नहीं, हजारों साल की संस्कृति का वाहक है। वह विविध संस्कृतियों का सम्मान करने वाले मुल्क में ही चैन से रह सकता है, जहां गोरक्षकों का तांडव या मंदिर के नाम पर मार-काट न हो..
अनिल सिन्हा के पिछले साल के लेख के आधार पर..
2/23/19