रथयात्री अंतिम बार चावला जी के सामने..
टीवी पर गरुणध्वज रथ पर शैव्य..सुग्रीव..मेघपुष्प और बलवाहक की रास थामे रथयात्री से मुखातिब चावला जी बलबलाये-- मेरे इस ..तू चल मैं आता हूँ.. प्रोग्राम में आपका स्वागत है.. अब तक की आपकी यात्रा कैसी रही..
-क्या कहूं..मजा नहीं आ रहा.....हथेलियां रगड़ते हुए जवाब..... खीर बनने से पहले ही दूध फट गया हो जैसे..
चावला जी ने दांत निपोरना जारी रखा....वो कैसे....?
-महाभारतकाल में पुंड्र देश का राजा पौंड्रक अपने को श्रीकृष्ण समझने लगा था और नाम भी वासुदेव रख लिया था.....मोरपंखी भी सजाता था....ऐसे ही हमारी ही पार्टी के प्रधान नेता भी कर रहे हैं..नाम नहीं लूंगा आप समझ गये होंगे..
चावला जी--आप दर्शकों को पिछली रथ यात्रा के बारे में कुछ बताना चाहेंगे?
........तब हम सत्ता में थे... मेरी वो यात्रा विवेकानंद के विचारों से प्रेरित थी..हुएनसांग...फाह्यान से भी काफी प्रेरणा मिली.. वास्कोडिगामा के तो क्या कहने..
चावला जी चहके--लेकिन रथयात्री जी....वो तो लुच्चा था...
रथ यात्री-हल्दी-जीरे और कालीमिर्च के लिये आया था..
चारों अश्व तुरंत हिनहिनाए..
चावला जी ने खींसें काढ़ीं और सवाल बदला....आप हमेशा सड़क मार्ग ही क्यों पसंद करते हैं..
-मैं जनता से दूर नहीं रह पाता और गांधी के देश में सड़कबाजों की संख्या बहुत है..उन्हें देख कर मेरे मन में अनेक विचार उठते हैं..मुझे देख कर जनता क्या सोचती है..यह जानना बड़ा एक्साइटिंग है मेरे लिये..
-सत्ता सुखभोग से बाहर हुए आपको कई साल हो गये...अब आपको कैसा लगता है?
....जो रहे देता-लेता वही नेता.....हमारे लिये गुलाबों की माला क्या सड़े अंडों की बौछार क्या..सब सहज स्वीकार्य है..लेकिन जब जब वो सामने पड़ने पर मुहं फेर कर पेंदा दिखाते हैं तब तब एकांत में इन घोड़ों के गले लग कर बिलख लेता हूँ..
घोड़ों से याद आया कि आप रथ पर कैसे इतनी लम्बी यात्रा कर लेते हैं....?
तो क्या करूँ चावला जी...अबकी तो टिकट भी गया..अब बचा हुआ जीवन रथ पर ही बिताऊंगा-यह कहते हुए रथ यात्री विलाप करने लगा..और चारों घोड़ों में प्रतिस्पर्धा होने लगी कि रथ यात्री किसकी गर्दन पे लटके..