मंगलवार, 24 मार्च 2020

आज़ादी के बाद : "आराम हराम" है से लेकर "घुस के मारूंगा" तक
नेहरु खुद ब खुद महान थे..लोकतंत्र उनकी रग रग में था..एक टूटे फूटे देश को विकास की राह पे लाना उनका सबसे बड़ा काम था..अपने देश की जनता के लाडले थे..जो उनकी भक्त तो थी लेकिन उनसे भय नहीं खाती थी..खुद ही अख़बार में लिख कर चेताते थे कि मुझे इतना सिर न चढ़ाओ कि तानाशाह हो जाऊं..
लालबहादुर शास्त्री बहुत कम समय रहे..लेकिन जितने समय भी रहे अपने होने का ज़बरदस्त एहसास करा गए..नेहरु की केमिस्ट्री से बिलकुल उलट शास्त्री जी काफी हद तक दक्षिणपंथ के पहरुआ थे..लेकिन पूर्णरूपेण गाँधीवादी थे..
गूंगी गुड़िया होने के चलते ही कामराज नाडार ने मोरारजी को किनारे कर इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी दिलाई थी..लेकिन अल्पमत में रहने के बावजूद और सिंडिकेट के दानवी नेताओं के बीच फंसी इंदिरा गांधी ने सही अर्थों में करो या मरो के रास्ते पर चल अपने विरोधियों को नेस्तनाबूद कर दिया ..बांग्लादेश बनवा कर तो उन्होंने विपक्ष से दुर्गा की उपाधि तक हासिल कर ली..
और यहीं से भारतीय राजनीति में अंधभक्ति की परम्परा का दौर शुरू हुआ..सत्ता और सफलता के चरम पर पहुंची इंदिरा गांधी के दिल असफल होने का भय पैदा हुआ..उसी का परिणाम आपातकाल था..पिता की लोकतान्त्रिक भावना से बिलकुल उलट..लेकिन उन्हें गांधी-नेहरु का भी सानिध्य मिला था, सो कहीं न कहीं लोकतंत्र का भाव भी था और जनता के सामने अपना आपातकालीन चेहरा भी छुपाना था..सो चुनाव कराये, बुरी तरह हारीं..लेकिन अपने आत्म्विश्वास और विपक्ष के भानुमति वाले खोखले कुनबे के चलते फिर जनता के विश्वास के बल पर सत्ता में लौटीं..
इंदिरा गांधी के बाद जो भी प्रधानमंत्री बना..राजीव गांधी को छोड़ कर.. बाकी सब सत्ता में खालिस राजनीति करके आये और चले गए..
वीपी सिंह, चंद्रशेखर, देवेगौड़ा, और गुजराल .. क्या लेकर आया था क्या लेकर जायेगा..की सोच के साथ एक वर्षीय सत्ता में आये..
राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनने को अपनी माँ की हत्या का पूरा लाभ मिला.. अराजनीतिक होने के चलते सारे विश्वासघातों के बावजूद पांच साल पूरे करना उनकी बड़ी सफलता ही मानी जायेगी..अपने नाना की तरह विकास और देश को ठस्स हो चुके समाजवाद से निकालने की सोच के चलते उन्होंने कई करिश्माई काम किये..
कुछ यही स्थिति मनमोहन सिंह की भी रही लेकिन उन्हें सत्ता के गलियारों में करीब 20 साल गुजारने का अनुभव तो था..दूसरे वो सोनिया गांधी की देन थे..सो नेपथ्य में रह कर ख़ामोशी से किये गए कई बेहतरीन कामों को कैश नहीं करा सके..
सही अर्थों में इस देश के केंद्र में गैर कांग्रेसी रथ को हांका अटलबिहारी वाजपेयी ने..लेकिन उन पर नेहरु की शख्सियत इस हद तक सवार थी कि उन्हें नागपुर के संतरों के बजाये पंजाब के किन्नु ज़्यादा पसंद थे..लेकिन अमेरिकीपरस्त नीतियों पर चल उन्होंने खुद को घोर श्रमिक विरोधी साबित किया..
अब आइये नरेंद्र मोदी पर..जो गुजरात की राजनीति में एंटी हीरो बन कर उभरे..मुख्यमंत्री शंकर सिंह वघेला की मोटरसाइकिल हांकने वाले मोदी को संघ ने उन पर नजर रखने का काम सौंपा था..संघ की बरसों की चाकरी के बाद मोदी को अपने मन का काम मिला..उन्होंने अपने ही परिवारियों की सत्ता में जम कर सेंध लगायी .. यहाँ तक कि केशुभाई पटेल को भी उनके सामने हार माननी पड़ी..

मोदी ने राजनीति को नेता के तौर पर न अपना कर राजनीति को व्यापार में तब्दील कर उसे दो मुहॉं बना दिया कि कारपोरेट सेक्टर को गांठो और नेताई मुद्रा में राजनीति को धंधे में तब्दील करो..तो मोदी के लिए राजनीति से ले कर राष्ट्रवाद तक सब कुछ एक प्रोफेशन है..और कुल मिलाकर उन्होंने राष्ट्रवाद का एक बड़ा बाजार क्रिएट किया है..जिसमें सिर्फ और सिर्फ जुमले हैं और गाय से गंगा तक रैंप है, जिस पर वो मॉडल बन कैटवाक करते हैं...
3/6/19