मंगलवार, 24 मार्च 2020


अपढ़ और कुंद होता भारतीय समाज....
प्रमोद जोशी-:मैं देश के कई शहरों में रहा, जिनमें दिल्ली भी शामिल है. कहीं भी सार्वजनिक पुस्तकालय आसानी से उपलब्ध नहीं है. नए इलाकों में नई कॉलोनियां बन रहीं हैं, पर कहीं भी पुस्तकालय की कोई योजना दिखाई नहीं पड़ती. पूरा समाज मूढ़, नासमझ, अज्ञानी और विचारहीन तो होगा ही होगा.
अजय विद्युत-:कुछ समय पहले अमीश त्रिपाठी का इंटरव्यू किया था उनका कहना था कि हम वैश्य युग में रह रहे हैं यानी वह समय जब धन की प्रधानता है उनके अनुसार इसके पहले शक्ति का युद्ध और उसके पहले ज्ञान का युग था उस समय ज्ञान की प्रधानता थी"..
---इन दोनों मित्रों को पढ़ कर वास्तव में मन बहुत दुखी है कि कहीं हम वापस आदिम युग की ओर तो नहीं लौट रहे हैं!!!
सौ डेढ़ सौ साल पहले जब कोई मारवाड़ी-बनिया सेठ कमा कमा के अघा जाता तो अपने शहर या कस्बे में अपनी स्वर्गवासी माँ या पिता के नाम पर धर्मशाला,पाठशाला और पुस्तकालय ज़रूर बनवाता ..तालाब और कुँए भी उसकी प्राथमिकता में होते थे..और यह सब उसके धर्मार्थ ट्रस्ट के अंतर्गत होते थे..करीब करीब फ्री में..
यहाँ तक कि हज़ार पांच सौ की आबादी वाले गाँव में भी मिलजुल कर पुस्तकालय-वाचनालय जैसी जगह तय की जाती..जहाँ रेणु जी के भिम्मन मामा जैसे सुधिजन उपेन्द्रनाथ अश्क को पढ़ पढ़ कर शास्त्रार्थ करने को सुबह सुबह निकल पड़ते..
हालाँकि दूसरी पीढ़ी तक आते आते धर्मशाला और पाठशाला तो बारातघर के भी काम आने लगे और पुस्तकालयों में किताबें और पत्र-पत्रिकाएं चोरी होने लगीं या सेठ की औलादों ने उस तरफ ध्यान देना ही बंद कर दिया..लेकिन 20 साल पहले तक ये तीनों संस्थाएं अपने होने का एहसास कराती जरूर थीं..
आज स्कूल कॉलेज तो लूटपाट का जरिया बन गए हैं..धर्मशाला सस्ते होटल में तब्दील हो गए हैं और पुस्तकालय शोरूम बन गए हैं..
सबसे बुरी गत इस अंधे समाज ने पुस्तकालयों की बनाई है..कुछ साल पहले तक अख़बार की नौकरी के सिलसिले में मैं जिन आठ-दस शहरों में गया तो वहां पुस्तकालय ज़रूर तलाशा..जैसे तैसे मिले भी..किताबें भी खूब पढ़ीं..लेकिन अब पुस्तकालय नाम की संस्था नष्टप्राय है..मुजफ्फरपुर में विश्वविद्यालय की लायब्रेरी में गाय घुसी बैठी थी तो बाकी शहरों में वो पुराने समयों की बिल्डिंग ही गायब है जहाँ पंखों की चर्रमर्र में अलमारियों में सजी किताबें सुख दिया करती थीं..

तो साहेब उल्टा झंडा फहरा कर और राष्ट्रवाद को बुलंद कर अपनी औकात पाकिस्तान पे लाकर सीमित कर लीजिये क्योंकि पढ़े लिखे समाज को -मैं कौन तू ख़ाम खां-की ज़रूरत नहीं होती..और वो समाज बन पाना अब एक सपना मान कर चलिए..
3/8/19