मंगलवार, 24 मार्च 2020

चैनलों पर दहाड़ मारता खोखला युद्धोन्माद और आपका मिमियाना
देश भर छाया युद्धोन्माद अब फैसलाकुन हो चला हा क्योंकि अब चुनाव घोषित हो गए हैं और आप में से आज हर वो कोई देशद्रोही है, जिसने पाकिस्तान के खिलाफ अपने घर में बंकर न बना लिए हों और सीमा पर कागज़ी तोपें न सजा ली हों..
लेकिन हर समझदार भारतीय यही सोच कर परेशान है कि वो कौन से युद्ध में भाग ले क्योंकि सड़कों पर तो गुंडे युद्ध का ऐलान करते घूम रहे हैं और घर-घर में टीवी पर हर चैनल पता नहीं कौन से दुश्मन देश की तबाही पे उतारू है..ऐसे माहौल में आप पर एक डर खुद ब खुद हावी है कि अगर आप के चेहरे पर वीरता का लसलसाता भाव पैदा नहीं हो रहा है तो आपके ही घर का, आस-पड़ौस का, या सडकों पर मोटरसाइकिल दौड़ा रहा उन्माद आप पर टूट पड़ेगा..
और आप देशद्रोही करार दिए जायेंगे..
यह वो युद्धोन्माद है जिसने पूरे समाज को लपेटे में ले लिया है..कुल मिला कर यह युद्धोन्माद और अंधराष्ट्रवाद की लहर समाज के मध्यवर्गीय छत्तों में सबसे अधिक प्रभावी है..एक वर्ग इस युद्धोन्माद में फायदे देख रहा है,  तो सीमा पर जो जवान तोपों के चारे बनते हैं वे बहुसंख्यक मज़दूरों-किसानों के बेटे होते हैं.. ये जो बाबू लोग अपने घरों में न्यूज़ चैनलों के ऐंकरों को चीखते हुए देखकर उछलते हैं, इन्हें असली युद्ध का स्वाद पता ही नहीं..देख भर लें तो भी पैन्ट गंदी कर देंगे..ये युद्धोन्माद में वहशी की तरह चीखते हैं और सोशल मीडिया पर युद्ध के ख़िलाफ़ बोलने वालों को तरह-तरह की गालियाँ देते हैं, पर इनकी बहादुरी भौंकने वाले सड़क के कुत्तों से ज़रा भी ज़्यादा नहीं होती..
इस मध्यवर्गीय परिवेश से बाहर सड़कों पर निकलिए ! शहरों की मज़दूर बस्तियों में जाइए ! रेहड़ी वालों, खोमचेवालों, रिक्शेवालों से बात कीजिए, गाँवों में खेतों में काम कर रहे मज़दूरों से बात कीजिए ! उनमें युद्धोन्मादी देशभक्ति की कहीं कोई लहर नहीं है ! वे अपनी ज़िंदगी की परेशानियों से लड़ रहे हैं और सरकार की सारी धोखाधडियों-मक्कारियों से बखूबी वाकिफ़ हैं ! आम मेहनतक़श आबादी तो खुद ही कह रही है कि मोदी और भाजपा ने अपनी असफलताओं, वायदाखिलाफ़ियों और चरम भ्रष्टाचार को ढँकने के लिए युद्ध का हौव्वा खड़ा किया है ताकि चुनाव में उसका लाभ उठाया जा सके I
हमलोग मज़दूर बस्तियों में खुलकर युद्धोन्माद फैलाने की साज़िश के ख़िलाफ़ प्रचार कर रहे हैं और लोगों को बता रहे हैं कि चुनावी गोट लाल करने के लिए भाजपा जब मंदिर कार्ड खेलकर धर्मोन्माद नहीं भड़का सकी तो अब देशभक्ति का गेम खेलकर युद्धोन्माद भड़काकर अपना उल्लू सीधा करना चाहती है I इन बस्तियों में संघी गुंडा वाहिनियों के जो कुछ लोग मिलते हैं, उन्हें छोड़कर सभी आम मज़दूर हमलोगों की बातें न सिर्फ़ सुनते हैं, बल्कि बढ़-चढ़कर समर्थन करते हैं I
तीन मार्च को दिल्ली में जो रोज़गार अधिकार रैली हुई उसमें देश के विभिन्न हिस्सों से आये करीब 8-9 हज़ार स्त्री-पुरुष मज़दूरों और छात्रों-युवाओं ने हिस्सा लिया ! रैली के मुख्य नारों में ये भी नारे थे :'युद्ध नहीं रोज़गार चाहिए' और ' चुनावी लाभ के लिए युद्ध की आग मत भड़काओ !' रैली के बाद हुई सभा में कई वक्ताओं ने खुलकर युद्धोन्माद भड़काने की साज़िश के ख़िलाफ़ अपनी बात रखी..
वक्ताओं ने साफ़ शब्दों में कहा कि हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के मेहनतकश अवाम की आपस में कोई दुश्मनी नहीं है और उनके असली दुश्मन तो वे हैं जो उनपर शासन करते हैं I मज़दूरों ने और युवाओं ने इन बातों का ज़ोरदार नारों और तालियों के साथ स्वागत किया I Madan Mohan जी ऐसे वरिष्ठ प्रगतिशील हिन्दी कथाकार हैं जो गाँव-देहात के गरीबों के जीवन से करीबी संपर्क रखते हैं ! मेरी एक पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने बताया कि गाँवों में गरीब और मज़दूर आबादी के बीच यह धारणा मज़बूती से स्थापित हो रही है कि अपने चुनावी फायदे के लिए मोदी ने पुलवामा होने दिया !
देशभक्ति को सेना और वर्दी से जोड़ देना और उसका लोकेशन देशों की सीमा को बना देना भी एक शासकवर्गीय साज़िश है ! देशभक्ति का असली लोकेशन देश के भीतर होता है I जैसाकि कवि सर्वेश्वर ने अपनी एक कविता में कहा था,'देश कागज़ पर बना नक्शा नहीं होता !' देश बनता है वहाँ की उस बहुसंख्यक जनता से जो अपने श्रम और हुनर और ज्ञान से देश को भौतिक-आत्मिक प्रगति की राह पर आगे बढ़ाती है I
भारतीय सेना में भर्ती होना या या ढाई सौ साल पहले ईस्ट इन्डिया कंपनी की बंगाल आर्मी में भर्ती होना करीब करीब एक ही बात है...सेना के किसी रिटायर्ड जवान से मिलिए ! आपको इस सीधे से नंगे सच का अहसास हो जाएगा कि सेना में कोई भी युवा देशभक्ति करने नहीं, बल्कि अपने परिवार का पेट पालने जाता है ! कुल मिला कर पूरा परिवेश सन्1760 जैसा है..सेना के जवान की ट्रेनिंग ऐसी होती है कि वह अपनी सारी सामाजिक और वर्गीय चेतना छोड़कर हुक्म बजाने वाला एक यंत्र मानव बनकर रह जाता है I सेना और अर्धसैनिक बलों की देशभक्ति और वीरता के कसीदे मुम्बइया फिल्मों में, कवि-सम्मेलनों के मंचों पर और न्यूज़ चैनलों पर खूब पढ़े जाते हैं, पर आपको पता होना चाहिए कि इन सशस्त्र बलों ने उत्तर-पूर्व के राज्यों में विद्रोह कुचलने के नाम पर, कश्मीर घाटी में पाकिस्तान-समर्थक आतंकियों को कुचलने के नाम पर और छतीसगढ़ में माओवादियों के सफाए के नाम पर आम लोगों पर जो ज़ुल्म ढाये हैं उनसे मुँह चुरा पाना असंभव है I आप मणिपुर में बलात्कार के बाद मनोरमा की ह्त्या, इरोम शर्मिला की 15 वर्षों तक चलने वाली भूख हड़ताल और असम रेजिमेंट के हेडक्वार्टर के सामने मणिपुर की माओं का नग्न प्रदर्शन भूल गए क्या ? आप छत्तीसगढ में सशस्त्र बलों की "देशभक्तिपूर्ण" कार्रवाइयों के बारे में आदिवासी नेता सोनी सोरी से पूछिए, आदिवासी पत्रकार लिंगाराम से पूछिए, गाँधीवादी कार्यकर्ता Himanshu Kumar से पूछिए, दिली विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर नंदिनी सुन्दर से पूछिये और मानवाधिकारकर्मी सुधा भारद्वाज से पूछिए !
और कश्मीर घाटी की क्या बात की जाये जहाँ सरकारी आँकड़ों के हिसाब से आतंकी तो 6-7 सौ हैं, पर सशस्त्र बल 7 लाख से अधिक तैनात हैं ! वहाँ जाकर सेना की "देशभक्ति" के बारे में आम लोगों से पूछिए ! कुनान-पोशपुरा के बारे में पूछिए जहाँ पूरे दो गाँवों की औरतों के साथ सामूहिक बलात्कार हुए ! शोपियां के सामूहिक बलात्कार के बारे में पूछिए, माछिल और ऐसे तमाम फर्जी मुठभेड़ों के बारे में पूछिए, हज़ारों गुमनाम क़ब्रों और 5000 से भी अधिक ग़ायब लोगों के बारे में पूछिए, शायद आपको सच्चाई का कुछ अहसास हो जाए !
बेशक ऐसे भी युद्ध होते हैं जो देशप्रेम और देश की रक्षा के या गुलामी से मुक्ति के युद्ध होते हैं ! पर इन युद्धों में आक्रान्ता सेना के ख़िलाफ़ कोई वेतनभोगी, यानी भाड़े की सेना नहीं लड़ती बल्कि समूची जनता लड़ती है और अगुवा भूमिका जन सेना निभाती है I जन सेना वेतनभोगियों की सेना नहीं होती I वह उसूली प्रतिबद्धता के आधार पर संगठित क्रांतिकारियों की सशस्त्र टुकड़ी होती है I
जैसे जापानी साम्राज्यवाद ने जब चीन पर हमला कर दिया तो उसका प्रतिरोध पूरी जनता ने किया जिसकी हिरावल कम्युनिस्ट पार्टी थी और क्रांतिकारी लाल सेना उसका सशस्त्र दस्ता थी I कोरिया में और वियतनाम में अमेरिकी साम्राज्यवाद का सामरिक मुकाबला भी इसीतरह से जनता ने और उसकी क्रांतिकारी सेना ने किया I हिटलर की सेना ने जब सोवियत संघ पर हमला कर दिया तो उसका प्रतिरोध लाल सेना के साथ ही पूरी जनता ने किया I
इतिहास में और पीछे जाएँ, तो ब्रिटिश गुलामी का विरोध करके अमेरिकी क्रान्ति को अंजाम देने वाली जॉर्ज वाशिंगटन की सेना भी भाड़े की सेना नहीं थी, बल्कि एक जन सेना थी I निचोड़ यह कि किसी भी पूँजीवादी शासन के अंतर्गत संगठित प्रशिक्षित वेतनभोगी सेना उन शासक वर्गों के लिए ही काम करती है सरकार जिनकी मैनेजिंग कमेटी होती है ! दो देशों की सीमाओं पर जब सेनायें भिड़ती हैं, तो यह वह मुकाम होता है जब शासक वर्गों का टकराव तीव्र होकर राजनीतिक दायरे से सामरिक दायरे में संक्रमण कर जाता है I इसके अतिरिक्त युद्ध की कई महत्वपूर्ण भूमिकाएँ होती हैं ! युद्ध के द्वारा देशभक्ति की लहर भड़काकर मूल समस्याओं से जनता का ध्यान भटका दिया जाता है और उसकी वर्गीय चेतना को कुंद कर दिया जाता है I फिर यह भी याद रखना चाहिए कि युद्ध उद्योग दुनिया का सबसे बड़ा उद्योग है i सबसे अधिक पूँजी दुनिया में युद्ध-सामग्री बनाने में लगी है I युद्ध और सीमा पर तनाव से हथियार बिकते हैं और साम्राज्यवादी तथा उनके जूनियर पार्टनर पूँजीपति अकूत मुनाफ़ा कूटते हैं ! फिर युद्धों से भयंकर तबाही होती है और पुनर्निर्माण के काम में पूँजी लगाकर पूँजीपति फिर मुनाफ़ा कूटते हैं ! हर युद्ध में देशभक्ति की अफीम चाटकर जनता सारी तबाही झेलती है और पूँजीपति मालामाल होते हैं तथा उनकी सत्ता को नया बल मिलता है I
सच्चे अर्थों में क्रांतिकारी और जनता का आदमी वही है जो बुर्जुआ "देशभक्ति" के अफीम के बारे में लोगों को बताता है और धारा के विरुद्ध खड़ा होकर युद्धोन्मादी अंधराष्ट्रवाद का विरोध करता है I माना कि पूँजीवादी मीडिया बहुत शक्तिशाली है क्योंकि उसके पीछे पूँजी की अपार ताकत है और भाड़े के प्रचारकों की पूरी फौज है I लेकिन पूँजी की इस ताकत का मुकाबला जनशक्ति से, यानी प्रतिबद्ध, कर्मठ लोगों की टीमों को जोड़कर किया जा सकता है I शासक वर्ग अपने राजनीतिक वर्चस्व के लिए जो उपक्रम संगठित करता है, उनके बरक्स हमें प्रति-वर्चस्व के उपक्रम संगठित करने होंगे !

--युद्धोन्माद के खिलाफ Kavita Krishnapallavi का लेख (सम्पादित किया गया) प्रशांत टंडन के सौजन्य से..
3/11/19