कुछ समय बाद
कितने मौन थे हम
उन बोलते क्षणों में
कितने संजोये थे स्वपन
उन जागते पलों में
सब विस्मृत हो गये
हमारे बोलते ही
हमारे जागते ही
रह गए हम तुम
अजनबी से
और बीच में
पंक्तियां बीते क्षणों की
लांघने का साहस न तुममें
न मुझमें
निरन्तर बेजान होते हम
पतझर के पीले पत्तों की कब्र में
हर आहट को वसंत का आना समझ
स्मृतियों की धूल की पर्तें उतारते हम
पर, पेड़ों की शाखें नंगी हैं
और वसंत गूंगा है
आओ वापस चलें उन कब्रों में
नहीं तो
पीले पत्तों से भर जाएंगी
कब्रें
और हम हम अपने निशां भी न खोज पाएंगे
वापस उन मृत क्षणों में ........
राजीव मित्तल
कितने मौन थे हम
उन बोलते क्षणों में
कितने संजोये थे स्वपन
उन जागते पलों में
सब विस्मृत हो गये
हमारे बोलते ही
हमारे जागते ही
रह गए हम तुम
अजनबी से
और बीच में
पंक्तियां बीते क्षणों की
लांघने का साहस न तुममें
न मुझमें
निरन्तर बेजान होते हम
पतझर के पीले पत्तों की कब्र में
हर आहट को वसंत का आना समझ
स्मृतियों की धूल की पर्तें उतारते हम
पर, पेड़ों की शाखें नंगी हैं
और वसंत गूंगा है
आओ वापस चलें उन कब्रों में
नहीं तो
पीले पत्तों से भर जाएंगी
कब्रें
और हम हम अपने निशां भी न खोज पाएंगे
वापस उन मृत क्षणों में ........
राजीव मित्तल