गुरुवार, 19 मार्च 2020

घेरे के बाहर

मैं कहीं भी
देख सकता हूं अब
इसलिये कि
तुम नहीं हो

नामुमकिन था जो
तुम्हारे रहते जानना
जान गया हूं

उग आए हैं
दीवार पर शब्द
जो हम दोनों में से शायद
किसी ने नहीं बोये

जब आसापास
एक गोल घेरा खींच कर
बैठते थे
जो कुछ भी बोलते
पिघल जाता
सांसों की गर्मी से
सोचते हम
कब हम ढकेलें
बाहर
अपने भीतर का
इंतजार संभव नहीं था
सांसों के ठंडे पड़ने का

दीवार पर नाम
मेरा तुम्हारा
पंक्ति दर पंक्ति
अनकही बातों की

अब
वही सब नहीं
जिसके लिये
असम्भव था ठंड का इंतजार

शायद
मैं ही दोषी था
अक्षरों से शब्द
और शब्दों से वाक्य
किसी की तह में न पहुंच पाने का

-राजीव मित्तल
3-7-11