मंगलवार, 24 मार्च 2020

मदनमोहन...
दिल्ली की उन गलियों में आठ साल की उम्र..अठखेलियां करती गुजर रहीं..और महीने के पांच..सात दिन बिस्तर पर दमे के दौरे झेलते हुए..ऐसे में धड़नतख़्ता से लगाव हुआ..मंटो की कहानी गोपीनाथ में एक चुलबुला कैरेक्टर इस शब्द का इस्तेमाल अक्सर मज़ाक उड़ाने के अंदाज़ में करता है..तो जी धड़नतख़्ता कहते हैं किसी को देख या सुन दिल के तारों में कोमल सुर लगने लगना..
उन दिनों घर घर रेडियो खूब गूंजा करते..चंदापुर हाउस या रूपनगर की गलियों में शाम को खेलते हुए किसी के यहां के रेडियो से लता की आवाज़ में जैसे ही सुनायी पड़ता..
आपकी नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे...
तो समझ लीजिये अपना वक़्त रुक जाता..धड़कन ठहर जातीं..और मन किसी की चाहत में डूब जाता.. एकाध साल बाद रायबरेली में जब फिल्म अनपढ़ देखी तो लता की ही आवाज़ में सुना ...
है इसी में प्यार की आबरू तू ज़फ़ा करे मैं वफ़ा करूं..
एक ही फिल्म में ... एक ही आवाज़ में ... दो बिल्कुल अलहदा मूड में..इन दो अद्भुत सुर..लय..तान को सुन नौशाद तो लमलेट हो गए थे..और मदनमोहन को उस्ताद मान लिया था...और अपना दिल आज भी धड़नतख़्ता हो जाता है...न हो तो आप भी सुन कर देखें..

रही सही कसर पूरी कर दी कई साल बाद इस गाने ने ..दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन..समझ लीजिये जैसे बिजली गिर गयी हो..मई की लू भरी दोपहरिया में बेचैन दिल को सँभालने को एपी सेन रोड पर .. सड़क के दोनों तरफ खड़े गुलमोहर और अमलतास के झूम झूम कर लहराते लाल और पीले फूलों के गुच्छों को यह गाना बहुत पसंद आता था..कसम से..
2/20/19