मनोहर पर्रिकर और गोआनी चिकन..
एक मुख्यमंत्री के मृत्यु पर राष्ट्रीय शोक...!!! सब राफेल के मुद्दे को ढ़ाँपने की जुगत है। हम हिन्दुस्तानी होते बड़े भावुक हैं। इहलोक से चले जाने के बाद हम किसी भी शख्स के व्यक्तित्व का नीर-क्षीर विश्लेषण कर समाज को नई दिशा का मार्ग प्रशस्त करने की बजाय महिमामंडन में जुट जाते हैं। सवाल तो ये भी पूछा जाना चाहिए कि अगर वे सचमुच ईमानदार और देशहित में ही सोचते थे, तो राफेल सौदे की सच्चाई जान कर भी चुप क्यों रहे? इसी तरह खराब सेहत के बावजूद गोवा के हितों को दरकिनार कर अस्पताल के बिस्तर से सरकार क्यों चलाते रहे, अपनी आखिरी साँस तक?
Sareetha Argarey
Sareetha Argarey
मनोहर पर्रिकर कोई एकाध घंटे या एकाध दिन या एकाध हफ्ते या महीने में नहीं गए..कई महीनों से एक ख़तरनाक किस्म के केंसर से पीड़ित पर्रिकर की मौत पर जबरन का विलाप चैनलों को ही मज़ाक का पात्र नहीं बना रहा .. उस जोकरी में पूरा समाज..खुद महामना मोदी जी और हमारी आस्था के शिखर पे विराजे देवी देवता, कई सारे भगवन, गंगा, गौ माता सब शामिल है..
एक छोटे से समय में पूरा समाज अपने महामानवों और ईश्वरों के साथ अपने साथ हो रहे मज़ाक का इतने घटियापन से मज़ा लेता दिखाई दे..तो इसे दैवीय अनहोनी ही कहा जाएगा..
मनोहर पर्रिकर एक ग़लत जगह पर फंस गए आज की कई घटिया परिभाषाओं में अच्छे शब्द की तरह थे..बस न इससे कम न इससे ज़्यादा..लेकिन एक ऐसे व्यक्ति की मौत को राष्ट्र के लिए अति नुकसानदेह बताना, जो कई महीनों से कायदे से बीमार भी नहीं हो पा रहे थे..या केंसर जैसे विकराल रोग को जुखाम खांसी में तब्दील किये हुए थे या राजनीति के सबसे घटिया दौर से गुजरते हुए उस बुजुर्ग की तरह इस्तेमाल हो रहे थे, जो बिस्तर पर अचेत पड़ा है और बेटा बहु जायदाद के पेपर पर उससे दस्तखत लेने में दिन रात एक किये हैं..
उस रात टीवी खोलते ही फिर न्यूज़ चैनलों की मंडी में पहुँच गया तो हर एक एंकर के हाथ में मनोहर पर्रिकर के व्यक्तित्व के छोटेबड़े टुकड़े लहरा रहे थे..कोई उनकी बुशर्ट को याद कर सिसकियाँ भर रहा था तो कोई उनकी चप्पलें सीने से दबाये बिलख रहा था..एक चैनल ने तो कमाल ही कर दिया..उसकी एंकर मृत पर्रिकर के मुहं में ज़बरदस्ती भुना मुर्गा घुसेड़ रही थी और हाय चिकन हम न हुए का आलाप ले रही थी..और यह कहते हुए टसुए बहा रही थी कि मनोहर जी दिल्ली में गोआनी चिकन के बगैर जी ही नहीं पा रहे थे..रात रात भर जागते थे..
वास्तव नें हम सामाजिक चेतना के उस दौर में पहुँच गए हैं जहाँ प्रेमचंद की "काकी" को मरने के बाद भी पत्तलों के ढेर से कचौरी के टुकड़े बीनते दिखा रहे हैं..और एक चैनल की एंकर काकी की मौत को अपने समय की सबसे बड़ी क्षति बता रही है...
3/18/19