बेढब लायब्रेरी...
जनसत्ता चंडीगढ़ से स्वतंत्रभारत के मुख्य संपादक घनश्याम पंकज ने बुलवा तो लिया..लेकिन लगता है उन्हें अपन से कुछ पुराने हिसाब निपटाने थे, तो कई सारे वादे कर उन्होंने भेज दिया कानपुर..जहाँ हमने बिताये तीन साल.. तब के लोग जानते होंगे कि वो तीनों साल स्वतंत्रभारत हमरे ही रहमो करम पे रहा..
लखनऊओं के लिए मेस्टन रोड पर दस रुपए में रात को सिर पर छत और सोने को खटिया देने वाला मिश्रा लॉज अनाज मंडी सा हंगामेदार रहता..शुरू के तीन महीने हर सुबह नाला रूपी गंगा में कौवा स्नान... नगरनिगम देख रहे धीरेन्द्र श्रीवास्तव का किसी पार्षद के यहाँ देर रात चार पैग रम और मुर्गे की तीन टांग का इंतज़ाम ..क्योंकि उसे रात दो बजे अपन से सुनना होता हबीब वली मोहम्मद को--ग़ालिब और ज़फर के साथ..किसी बंद दुकान के तख्ते पर बैठक जमती फुटपाथ पर सो रहे श्रोताओं के बीच...
बरसात ख़त्म होते होते रात का खासा हिस्सा ऑफिस में ही गुजरने लगा..आखिरी एडिशन छोड़ने से एक घंटा पहले ही मेज पीटते हुए गायन शुरू हो जाता..तो अपनी रोजाना काटी जा रही खबरों से भन्नाया अम्बरीष शुक्ल बाकायदा फोन लगा कर पंकज जी को अपन के गाने सुनवाता..उसके बाद साढ़े तीन बजे हम तीन चार पत्रकारों का ट्रेन पकड़ अल्ल सुबह अपने लखनऊ पहुँचना....
अगला एक साल संडे मेल, दिल्ली से आये संजय द्विवेदी की संगत में कंपनी बाग़ की तिमंजिली इमारत की बरसाती में गंग नहर को निहारते, आधी रात के बाद चौड़े से मलिहारी गाते या सुनते या कानपुर की सड़कों को रौंदते बीता..मन उकता जाता तो तीन बजे बिठूर निकल लेते या शुक्लागंज..
आखिरी का एक साल रात दो बजे के बाद का समय रेलवे के मासिक टिकट के चलते कानपुर स्टेशन के प्लेटफार्मों पर ट्रेनों की इंतजार में बीती न बितायी रैना गाते ही बीतता अगर व्हीलर साहब की उस 3×3 की लायब्रेरी में बैठने को स्टूल न मिलता..वो था प्लेटफार्म नम्बर पांच..जहाँ से लखनऊ जाने वाली गाड़ियां गुजरतीं..जो कब आएंगी इसकी जानकारी खुद रेलवे बोर्ड के चेयरमेन को नहीँ थी..
सबसे मुश्किल समय होता उस खुले में बर्फीली हवाओं को झेलना..तब उस व्हीलर वाले ने न केवल पनाह दी, बल्कि सुरेन्द मोहन पाठक और जेम्स हेडली चेइज़ का भरापूरा खज़ाना थमाया..रात के उस पहर वो नींद से जूझता मिलता..प्लेटफार्म पर पहुँचते ही अपन उसे लोरी सुनाते और वो अपना धंधा और गल्ला दोनों सौंप कम्बल तान कर सो जाता..अपन भी ट्रेन और ठण्ड को किनारे कर किताब में ड़ूब जाते..बीच बीच में ग्राहकों को भी निबटाते रहते ... रूपया पैसा उसके गल्ले में...
कहीं से कोई हरजाई ट्रेन जब आ टपकती तो उसे जगा कर उसका उसके हवाले कर स्लीपर कोच में ऊपर की बर्थ पर गरम चादर ओढ़ .. मेरा बुलबुल सो रहा है शोरगुल न मचा...
1/14/19