जुमलों में सोने की चिड़िया या स्वर्णयुग ..
ये दोनों जुमले दो वक्तों पर खास कर ज़्यादा ही चस्पाये गए हैं....एक पहली शताब्दी के करीब चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय, जिनके समकालीन कालिदास भी हैं.. और ऐसा महान क्षण दोबारा आता है 17 वीं शताब्दी में मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के समय..बहुत सोचने के बाद सोने की चिड़िया और स्वर्णयुग का मतलब यही समझ में आता है कि इन दोनों समयों में भारत वर्ष की समृद्धि दर काफी बढ़ी चढ़ी रही होगी और देश के सामंत और पुरोहित समाज में आज की तरह अम्बानी और लक्ष्मी नारायण मित्तल की बेटियों वाली (निर्मल वर्मा के शब्दों में) अशालीन और अश्लील (चकाचौंध के सन्दर्भ में) शादियां होती होंगी.. और उनके समाज में सोने के निवाले तोड़े जाते होंगे..और अनाज जैसा खाद्य गरीब गुरबों के लिए इस्तेमाल होता होगा..
उन दोनों युगों में अमीर उमरावों की औलादें उतनी ही उच्छश्रृंखल होती होंगी जैसी आज की BMW या सलमान खान या नेता पुत्रों के कांडों वाली..
बाकी तो भारत में कोई स्वर्ण युग कभी था ही नहीं..यह देश पांच हज़ार साल के ज्ञात इतिहास के समय से ही भारत दासप्रथा से गौरवान्वित है...सोने की चिड़िया वाला भारत शुरू से ही जातपांत से लिथड़ा हुआ है...भारत की औरत अगर सुन्दर और गरीब है तो वो अम्बपाली की तरह नगरवधू बनी..और अगर राजा की औलाद है तो सीता बन वनों में धकेल दी गयी बाकि औरत कुल मिला कर गार्गी और सावित्री के बीच में झूलती रही..और आधुनिक काल में उसका शिकार गर्भ में ही कर दिया जा रहा है या उसकी योनि प्रयोगशाला बनी हुई है..
हिन्दू कट्टरवाद अतीत की महानता की काल्पनिक कहानियां आपकी दिमाग़ों में भरता है... अतीत का वो गौरवशाली इतिहास, जो देवता को सूंदर सलोना दिखाता है और आर्यों को वीर और बाकि जातियों को जोकर..या दलित या निकृष्ट आदिवासी..जो केवल मरे जाने काबिल हैं..
इस महान देश का इतिहास या तो ऋषि-मुनियों की राजाओं के प्रति नमक हलाली है या पुरोहितगिरि वाली चापलूसी .. या टुकड़ों पर पलने वाले चंदबरदाई..
गुप्त वंश हो या मौर्य वंश, प्रतिहार हों या चौहान राजा, असल में सब व्यापारियों, महाजनों और भूमिवानों के हितों की रक्षा कर रहे थे..जबकि मेहनतकश जनता नीच घोषित कर दी गयी थी.. किसान, कारीगर, मज़दूर को अछूत बना दिया गया था..
सारी सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक ताक़त राजा, सैन्य अधिकारी, महाजन, भूमिवान और पुरोहितों के पास आ गयी थी.
21 वीं शताब्दी के दूसरे दशक में देश की दो प्रतिशत आबादी सोने की चिड़िया बन स्वर्णयुग में नहीं जी रही है!! आज़ादी के बाद सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समानता क्या उकाब का घोंसला नहीं बनी हुई है..
1/3/19