लेकिन गांधी है कि मरता ही नहीं
अलीगढ़ की वो तस्वीर काफी चर्चित रही जिसमें एक महिला गांधी को गोली मार कर अपने चिन्टुओं के साथ एन्जॉय कर रही है..वैसे गांधी को क्या फर्क पड़ना..रोज मारो..जितना मारोगे उतना विशाल फलक उसका होता जायेगा..
मुद्दा यह है कि गोडसे की गोली खा कर मरे गांधीको तो 30 जनवरी 1948 के बाद से रोज ही मारा जा रहा है, तिल-तिल कर मारा जा रहा है, तो किस-किस को कटघरे में खड़ा करेंगे आप। उनके हाथों में चाकू-पिस्तौल न हों, पर असर ज्यादा घातक है, ज्यादा गहरा है। आप को तो बस इस बात की पड़ी है कि बुढाऊ पर गोली चलाने वाले, चलवाने वाले ये थे, वो थे, पर उसका क्या करेंगे, जिसमें उन्हें मिटाने का खेल चल रहा है। आप नेताओं के सिर पर से गांधी टोपी उतर चीथड़ा हो गयी, उनके चरखे की खादी आपके बदन को छीलती थी, सो वो भी आपने उतार फेंकी, जो अब किसी फैशन शो में रैम्प पर उतरे रति-कामदेवों के जोड़ों के अंगवस्त्रों में इस्तेमाल हो रही है, तो फिर गांधी को वक्त-बेवक्त याद क्यों करते हैं?
पुण्य तिथि और जन्म तिथि को राजघाट पर हुजूम लगा कर ‘रघुपति राघव राजा राम’ का पाठ करना काफी नहीं है क्या? पर, एक काम बहुत अच्छा हो रहा है कि उन्हें राजघाट तक सीमित कर बाकी देश भर से उनको बुहारा जा रहा है।
जो कुछ गांधीमय था, वह स्वर्गीय होता जा रहा है। अब देखिये न, जिस चम्पारण से मोहन दास करमचंद गांधी महात्मा गांधी बने वहां अब उनकी ऐसी कौन सी चीज बची है, जहां जा कर सिर श्रद्धा से झुक सके या दो मिनट खामोश बैठ कर बापू को महसूस किया जा सके। गांधी वहां पग-पग में घूमे थे, उस समय न जाने कितने भले- मानुषों से उन्हें भूमि दान में मिली थी ताकि वे अपने सपनों को अमलीजामा पहना सकें।
गुलाम देश की जनता ने गांधी को ही नहीं, उनके सपनों को भी सिर-माथे लिया था। उनके लिये लाठियां खायीं, कोड़े खाए, पर आजाद भारत ने उनकी एक-एक याद को रोंदने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
देश की आजादी से 12-15 साल पहले गांधी जी खादी का प्रचार करते-करते वैशाली के गौरोल इलाके में पहुंचे तो वहां की जनता गुलामी की कातरता भूल इतना उत्साहित हुई कि अपना सब कुछ इस महात्मा पर न्योछावर करने पर उतर आयी। पर वे साल 1935-40 के थे, जिनके आदर्शों पर सन् 60 तक आते-आते मकड़ी का जाला लग चुका था। और अब तो गांधी ब्राण्ड बन गए हैं ..सौ सवा सौ साल तो और खींच ही ले जायेंगे..
2/1/19