सम्पादक----सम्पादक
कई बार इच्छा होती है अपने सम्पादकों के बारे में लिखने की...खास कर तब.. जब आपके सम्पादक राजेंद्र माथुर और मृणाल पांडे और प्रभाष जोशी रहे हों..तब तो लिखना बनता ही है न..और दो सम्पादक वो..जो यार न भी रहे हों तो बेयार भी नहीं थे..बाकी सात आठ सम्पादक ऐसे रहे..कि जो अपन पर सम्पादकी करने को तरसते रहे...तो कभी उन पर मेहरबान रहता तो कभी आईना पकड़ा देता..कि अपनी सूरत तो देख लो भाई..इन सबसे अपनी एक ही विनती होती कि सम्पादक आप इसलिये बने कि आपका बुध मज़बूत था..लेकिन बाकी ग्रह इतने अनुकूल नहीं कि मुझ पर अपना रौब गालिब कर सको..तो जो समझे वे थोड़ा बहुत सुखी रहे..और जो सच्चाई को कु़बूल नहीं कर पाए..वो अपने रक्तचाप से दो चार होते रहे...
जारी.......
दो...सम्पादक....सम्पादक
लखनऊ सूचना विभाग पर सरकारीपन हावी होते ही मन कसमसाने लगा..श्रीलाल शुक्ल किसी और मंत्रालय भेज दिये गए.. गढ़वाल उपचुनाव की हार विश्वनाथ प्रताप की मुख्यमंत्री की कुर्सी लील गयी..तो ठाकुर प्रसाद सिंह भी निदेशक पद से हटा दिये गए...इन बदलावों ने सूचना विभाग का उनमुक्त गैरसरकारी माहौल ख़ाक में मिला दिया....
सितम्बर 82 के आखिरी दिनों में दिल्ली का रास्ता पकड़ बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग पर टाइम्स ग्रुप की इमारत में प्रवेश..जेब में नवभारत टाइम्स के सम्पादक के नाम रुक्का..कि इसे परख लो...कार्यकारी सम्पादक रामपाल सिंह ने परखा और अपने केबिन के बाहर बिछी एक विशाल मेज के किनार बैठे सज्जन को सौंप कर बोले..पंत जी..इन्हें परखो..पंत जी ने गैस सरकाते हुए बुरा सा मुंह बनाया..बोले..ये परखने वाला काम हम से न होगा...हमें गोद में उठाए रामपाल जी को जैन साहब नज़र आए..समाचार सम्पादक..
जैन जी आप ही इस बालक को परखो..और उनके कान में कुछ ऐसा पोंका कि जैन साहब ने उनकी गोद से फौरन लपक लिया हमें..और एक कुरसी पर प्यार से बिठा दिया...फिर चाय बिस्कुट..
कुछ देर बाद आए..बोले..काम तो होता रहेगा..थोड़ा घूम फिर लो..नज़र मारी तो देखा विशालतम हॉल...छोर नज़र नहीं आ रहा था..टाइम्स ऑफ इंडिया सम्पादकीय के पास विशाल एरिया...सिमटा सा नवभारत टाइम्स...और एक कनारे सांध्य टाइम्स का खोखा..
जारी.......
3....सम्पादक ..... सम्पादक
हिंदी पत्रकारिता का वो समय भारतीय नारी जैसा था...कभी देवी..कभी कुलटा..तो कभी उस काम वाली जैसा..जिससे कभी कभार मौज ली जा सके...हां..अंग्रेजी के समक्ष उपेक्षा का स्थायी भाव..
वैसे तो पूरे देश में ...क्या हिंदी बेल्ट और क्या विंध्य के पार..वृन्दावन में छोड़ी गयी विधवाओं जैसी हालत थी हिंदी की...मीडिया के नाम पर समाचार पत्र ही केवल...जिस भी मीडिया हाउस से दोनों भाषाओं में अख़बार निकलते तो हिंदी वालों को जताया यही जाता कि अंग्रेजी की कमाई खा रहे हो ससुरो...ज़्यादा पर न फड़फड़ाओ...
दिल्ली का हाल तो यही था...
दिल्ली का हाल तो यही था...
और हिंदी बेल्ट के लाला .. जो सिर्फ हिंदी के अख़बार निकाल रहे थे....राज्य की राजनीति को अपनी उंगली पे नचाने की खुशफ़हमी पाल अपने बेटों को चचा सैम के देश में भेज अपना और अपनी संतानों का भविष्य सुदृढ़ करने में जी जान से जुटे थे....हिंदी के बल पर लेकिन हिंदी की बजा कर...
दिल्ली का द्विभाषी मीडिया अभी दो ही ठेकों पर आबाद था..बिड़ला ग्रुप और जैन ग्रुप...बिड़ला ग्रुप का हिंदुस्तान अख़बार अंग्रेजी वालों के शौचालय जैसा..जहां कोई भी दो पैरों वाला जीव सम्पादक की कुर्सी पर बैठा रामचरित मानस की चौपाइयां गाता आठ पन्ने की लुगदी को समाचारपत्र की शेप देने का काम करा रहा होता...उस सम्पादक की नियुक्ति बिड़ला जी के कानपुर..धामपुर..या ललितपुर में बैठे किसी पंडतनुमा ज्योतिष की सिफारिश पर की जाती..अख़बार के छह पन्नों पर लॉटरी खिल रही होती तो दो पन्नों पर सरकारी विज्ञापन..समाचार तलाशने का काम पाठक का...
जैनियों के बैनेट कोलमेन ग्रुप में हिंदी बदहाल तो थी लेकिन बिड़लाओं जैसी बुरे हाल में नहीं थी..
रमा जैन वाला हिंदी का स्वर्ण युग ताम्रयुग में बदल चुका था..और धर्मयुग..दिनमान..सारिका और पराग स्ट्रेचर पर लादे जा चुके थे....रघुवीर सहाय जैसे दिग्गज को रद्दी भरे केबिन में ठेला जा चुका था..उनकी जगह कन्हैयालाल नंदन की दिनमान में ताजपोशी हो चुकी थी...बम्बई में धरमवीर भारती फिर से गुनाहों का देवता लिखने की सोच रहे थे...और नवभारत टाइम्स ..अक्षयकुमार जैन की आठ या दस वर्षीय नाक़ाबलियत झेल राजेन्द्र माथुर के आने की बाट जोह रहा था...तब तक कार्यकारी सम्पादक रामपाल सिंह से लेकर उनका चपरासी तक अख़बार की धड़ल्ले से बजा रहे थे..और मालिक अशोक जैन किसी हाईक्लास क्लब में बैठ गुलाम..बेगम..बादशाह का मज़ा ले रहे थे..दोनों अख़बारों के लिये दूसरी मंज़िल पर बना वो विशालकाय हॉल पंजाबी ललनाओं से लदा पड़ा था..अशोक जैन की तरफ से सत्ता का मज़ा ले रहे ग्रुप के कार्यकारी निदेशक रमेश जैन की भर्ती था यह पंजाबी सौंदर्य..
रमा जैन वाला हिंदी का स्वर्ण युग ताम्रयुग में बदल चुका था..और धर्मयुग..दिनमान..सारिका और पराग स्ट्रेचर पर लादे जा चुके थे....रघुवीर सहाय जैसे दिग्गज को रद्दी भरे केबिन में ठेला जा चुका था..उनकी जगह कन्हैयालाल नंदन की दिनमान में ताजपोशी हो चुकी थी...बम्बई में धरमवीर भारती फिर से गुनाहों का देवता लिखने की सोच रहे थे...और नवभारत टाइम्स ..अक्षयकुमार जैन की आठ या दस वर्षीय नाक़ाबलियत झेल राजेन्द्र माथुर के आने की बाट जोह रहा था...तब तक कार्यकारी सम्पादक रामपाल सिंह से लेकर उनका चपरासी तक अख़बार की धड़ल्ले से बजा रहे थे..और मालिक अशोक जैन किसी हाईक्लास क्लब में बैठ गुलाम..बेगम..बादशाह का मज़ा ले रहे थे..दोनों अख़बारों के लिये दूसरी मंज़िल पर बना वो विशालकाय हॉल पंजाबी ललनाओं से लदा पड़ा था..अशोक जैन की तरफ से सत्ता का मज़ा ले रहे ग्रुप के कार्यकारी निदेशक रमेश जैन की भर्ती था यह पंजाबी सौंदर्य..
तो आप समझ सकते हैं कितने रोमांटिक बाजा बजाऊ माहौल में इस ख़ाकसार ने हिंदी पत्रकारिता में कदम रखा होगा..यही रमेश चंद्र अपने भीे ख़लीफ़ा कहलाए.. यही रमेश चंद्र जैन उस समय के मीडियायी सुलतान हुआ करते थे..जिनको बैनेट कोलमेन ग्रुप की तरफ से चार तिलकमार्ग वाला विशालकाय आवास मिला हुआ था...इसी चार तिलकमार्ग के आउट हाउस में न जाने कितने सम्पादक बैठे गार्डनिंग कर रहे जैन साहब को निहारा करते..किसी के हाथ में फलों का टोकरा होता..तो किसी के हाथ में ताजी हरी सब्जियों का बोरा..बासमती चावल..सूखे मेवे..मिठाइयों के डिब्बे.. और अंदर कमरे में पेश ऐ नज़र होने को बेताब रहती कोई बाला... यह बाला किसी ऐसे व्यक्ति का सौजन्य हुआ करती..जिसे सम्पादक की कुर्सी दिखायी जा चुकी होती...फिर चाहे वो तेली हो या विदूषक...
पत्रकारिता के दलालों..भड़वों..ठगों और दुकानदारों का खुलासा समय समय पर होता रहेगा..जो आज भी यहां वहां बिखरे पड़े हैं...
4...सम्पादक...सम्पादक
राजेन्द्र माथुर .. नवभारतटाइम्स..नयी दिल्ली..
राजेन्द्र माथुर .. नवभारतटाइम्स..नयी दिल्ली..
दिल्ली तो अपना जन्मस्थल था ही.. अख़बारों की मंडी बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग भी बेगाना न रहा..बैनेट कोलमेन की सीढ़ियां अब दिल में हौल पैदा न करतीं ...सम्पादकीय हॉल में बैठने उठने की हिचक दूर होती जा रही.....किसी से दोस्ती नहीं हुई थी..लेकिन चेहरे पर मुस्कान झलकने लगी...काम के नाम पर दो तार हिंदी के एडिट को तो दो चार सतरें अनुवाद की..
कुछ करने के नाम पर गाय पर छुटपन में लिखाया गया इमला याद आ जाता तो पशु को इन्सान में तबदील कर काग़ज़ काले करता...पिछले तीन साल में सरकारी नौकरी के दौरान लखनऊ अमृतप्रभात में वैदेशिक मुद्दों पर लिखे ढेरों लेख याद कर उन्हें अपडेट करता..या दो साल से भूली पड़ी रूसी भाषा के हिज्जे याद कर कविताएं लिखता...और कुछ नहीं तो धड़ाधड़ सिगरेट फूंकता...
एकदिन हॉल में वो दढ़ियल कॉमरेड टकरा गया... लखनऊ छोड़ते समय सुभाष धूलिया और मंगलेश डबराल ने जिससे मिलने को कहा था...प्रदीप कुमार..
यह मिलना अपने पत्रकारिता भविष्य के लिये बड़े काम का साबित हुआ..तब अपने शहर से बड़ा लगाव था..प्रदीप भी लखनऊ के..दोनों पर दोस्ती सवार..एक और कॉमरेड प्रभात डबराल..जो एक ऐसे कम्यूनिस्ट अख़बार में काम करते थे..जिसके कई पन्ने सिनेमा और सिनेमाघरों से भरे रहते...प्रभात लखनऊ में टकराये थे सुभाष के महानगर वाले घर में...तब उनके साथ वीरेंद्र डंगवाल भी थे..
प्रदीप ने मेरे अंदर के पत्रकार को बाहर निकालने का काम बखूबी शुरू कर दिया..पूरे सम्पादकीय में सबसे ठसकदार व्यक्ति वही था उन दिनों...एशियाड के दिन थे..एक नयी डेस्क बना कर कई नये पुरानों को हिल्ले से लगा दिया गया..पर प्रदीप ने मुझे उस डेस्क पर काम न करने की सलाह दी और सांध्यटाइम्स में मेरी नियुक्ति करा दी..जहां का वो डॉन हुआ करता था..
इस बीच जिनके आने की चर्चा कई दिन से सुन रहा था..वो राजेन्द्र माथुर एक दिन स्टाफ के बीच बैठकी करते दिखे.. पांच साल पहले माथुर साहब की लेखनी से उज्जैन में नयीदुनिया के जरिये परिचय हो ही चुका था...आज देख भी लिया..प्रोफेसराना व्यक्तित्व वाले माथुर साहब अंग्रेजी के प्राध्यापक रह चुके हैं यह भी पता चला..उनकी लेखनी की सुगंध मालवा से निकल चहुं ओर मंडरा रही थी..और अब दिल्ली उनकी कार्यस्थली..माथुर जी के बारे में विस्तार से बाद में...
सांध्यटाइम्स में हिल्ले से लग जाने के बाद अपन ने पंख फड़फड़ाने शुरू कर दिये...ऊपर से प्रदीप का साथ..सांध्यटाइम्स के पीर..बावर्ची..भिश्ती--सत सोनी..जलंधर का पंजाबी..बेहद तिकड़मी..बेहद प्रोफेशनल और यारबाश्श..दुबले पतले सोनी जी बस भागते रहते..बहुत कुछ सीखने को मिला उनसे..मुर्दा ख़बरों में जान फूंकने के तो वो उस्ताद थे..
सांध्यटाइम्स में हजरत इब्बार रब्बी से भी मिलना हुआ..साहित्यिक क्षेत्र में उनकी ख़लीफ़ाई से अनजान इस नामुराद पर उनकी खास इनायत रही..उनके टिफिन का सबसे पहला निवाला हमारे ही पेट में जाता...
लखनऊ और दिल्ली के कुल जमा पांच धुरंधर वामपंथियों ने अपन की पत्रकारिता को दिशा देने में बहुत बड़ा योगदान दिया..उधर दक्षिणपंथी सत सोनी की पत्रकारिता के नये नये आयाम सामने आ रहे..
लखनऊ और दिल्ली के कुल जमा पांच धुरंधर वामपंथियों ने अपन की पत्रकारिता को दिशा देने में बहुत बड़ा योगदान दिया..उधर दक्षिणपंथी सत सोनी की पत्रकारिता के नये नये आयाम सामने आ रहे..
तो साहेबान..अगले नौ महीने इस शानदार और उन्मुक्त माहौल में गुजारने थे..जहां राजेन्द्र माथुर जैसे अशासकीय सम्पादक की लेखनी की विशेषताओं का सौंवा अंश भी अपने को हासिल होने वाला था...
6..सम्पादक .... सम्पादक
मसिहाई खोते हिंदी के सम्पादक
मसिहाई खोते हिंदी के सम्पादक
नंदन जी दिनमान का सम्पादक बन दरियागंज वाले दफ़्तर में बैठने लगे..और दिनमान को ऊंचाइयों पर ले जाने वाले रघुवीर सहाय बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग वाले ऑफिस के एक केबिन में कुछ इस तरह डाल दिये गए जैसे आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र को रंगून में कैद दे दी गयी थी..बादशाह कैद में ही मर गया..और शायद सहाय जी भी ज़्यादा दिन नहीं जिये..क़रीब क़रीब यही हाल धर्मयुग से हटाए जाने के बाद धर्मवीर भारती का हुआ..ऐसा यशस्वी होना भी किस काम का जो कुर्सी के इस कदर आधीन हो..
बम्बई से ट्रेनिंग ले कर आए सुधीर तैलंग और गिरीश मिश्रा दो नये दोस्त बने..कार्टूनिस्ट सुधीर का साथ तो लम्बा नहीं खिंचा लेकिन गिरीश का साथ लखनऊ में भी रहा..
उदय प्रकाश दिनमान में आ चुके थे..दरियागंज की कैंटीन में चाय पी कर दोनों जर्दे वाला पान चबाते हुए देर तक बतियाते..
अब तक अपन का आशियाना कनाट प्लेस के इनर सर्किल में स्थापित उत्तरप्रदेश सूचना विभाग का दफ़्तर हुआ करता था..रात दो बजे कनाट प्लेस का सन्नाटा आज भी गूंजता है..कई बार प्रभात डबराल की बाइक पर रात की घुमाई होती तो ..दो चार बार जब सूचना विभाग का कारिंदा राजीव दीक्षित लखनऊ से आया तो पंकज सिंह के साथ ऊपर लायब्रेरी में महफ़िल जमी..वैसे ज़्यादातर रातें उस बियाबां में किताबों के साथ ही बितानी पड़ीं...
कनाट प्लेस में रिहायश एक महीना ही चल पायी..हुआ यूं कि ऑफिस खुलने का समय था सुबह दस बजे का...इधर सांध्यटाइम्स का कामकाज सुबह आठ बजे शुरू हो जाता..अपन का रोज का काम था बस में बैठ कर आना और दफ़्तर खोल.. उसे डायरेक्टर के पीए शर्मा जी के हवाले कर वापस काम पर लौट जाना...लेकिन यह भी हुआ कि आने में देर हो गयी तो डायरेक्टर सिंहल समेत सारा स्टाफ बंद ताले को निहारता मिलता..सिंहल की आग बरसाती आंखों को बुहारते हुए ताला खोलता और कट लेता..
सांध्यटाइम्स के काम में खूब मज़ा आने लगा था..कई बार कुछ लिख कर माथुर साहब को सौंप आता .. पर छपा कभी नहीं..प्रदीप से दोस्ती सरहद पार कर उनके घर में जा घुसी..अम्मा को एक और बेटा..मधु को एक और भाई और रानी भाभी को इकलौता दुलारा देवर मिल गया..दिन हो या रात .. मयूरविहार फेज़1से लगे पटपड़गंज में मोरों की आवाज़ों से गूंजते उस घर में स्वादिष्ट आमिष भोजन का स्वाद लिया..
इस बीच ... जनसत्ता की किलकारियां सुनायी देने लगीं थीं..मंगलेश जी लखनऊ अमृतप्रभात छोड़ दिल्ली आ गये और जनसत्ता की तैयारी में लग गये...सुभाष धूलिया मास कम्यूनिकेशन की टीचरी के इंटरव्यू में मुझे साथ ले गया और सैलेक्शन होते ही वो भी दिल्ली में...
लेकिन अब अपना समय आ गया था दिल्ली छोड़ने का..रमेश चंद्र जैन ने तीसरे माले पर अपने केबिन में नियुक्ति पत्र थमाया इस सूचना के साथ कि माथुर साहब तो बिल्कल नहीं चाहते थे..तुम्हारे चक्कर में उन्होंने अपने भी दो लोगों को नौकरी दिलवा दी..इस भारी अहसान को सिर पर लाद कर लखनऊ लौटा..साथ में यह भी कि मैं माथुर साहब की आंखों में सिफारिशी बन उन्हें खटकता रहूंगा..
7.. नवभारत टाइम्स लखनऊ में.....
.........अब सूबेदार सम्पादक....
.........अब सूबेदार सम्पादक....
मुगलों के आने से पहले तक दिल्ली की सेनाएं दूर दराज के इलाकों में जातीं.. कुछ मारतीं..कुछ काटतीं..कुछ खातीं..कुछ बिखेरती..और कुछ लाद कर दिल्ली लातीं...दिल्ली वाला इसी में खुश...लेकिन ज़लालुद्दीन अक़बर ने विजित प्रदेशों में सूबेदारी की प्रथा शुरू की..यानी अपना कब्ज़ा भी बना रहे..सेना का खर्च निकलता रहे और ख़जाने में हर साल धन जमा होता रहे...
अब तक दिल्ली के बिड़ला..डालमियां और जैनी सेठ
बम्बई- दिल्ली को लेकर मस्त थे..और प्रदेशों की राजधानियां या बड़े शहर गुप्ताओं..अग्रवालों .. महेश्वरियों..कोठारियों और छजलानियों के हवाले थे..लेकिन अस्सी का दशक ख़त्म होते होते दिल्ली वाले अपना घोड़ा खुला छोड़ उसके पीछे पीछे अपनी सेना लेकर चलने को बेताब दिखे..पहल जैनी सेठ ने की और अपने घोड़े का मुंह लखनऊ की ओर मोड़ दिया..
बम्बई- दिल्ली को लेकर मस्त थे..और प्रदेशों की राजधानियां या बड़े शहर गुप्ताओं..अग्रवालों .. महेश्वरियों..कोठारियों और छजलानियों के हवाले थे..लेकिन अस्सी का दशक ख़त्म होते होते दिल्ली वाले अपना घोड़ा खुला छोड़ उसके पीछे पीछे अपनी सेना लेकर चलने को बेताब दिखे..पहल जैनी सेठ ने की और अपने घोड़े का मुंह लखनऊ की ओर मोड़ दिया..
और अब.....मुस्कुराइये कि आप लखनऊ में हैं...
दिल्ली छोड़ने से पहले सांध्य टाइम्स में जमनालाल बजाज संस्थान के खिलाफ एक स्टोरी का एसाइनमेंट मिला....नंदन उसे दिनमान में छापना चाहते थे..लेकिन अपन को तुरंत लखनऊ पहुंचने को कहा जाने लगा...अगर वो स्टोरी तरीके से पक जाती तो शायद रिपोर्टिंग का बड़ा कारनामा बनता और शायद तब दिल्ली भी न छूटती..लेकिन अनुभवहीनता ने गुड़गोबर कर दिया...
लखनऊ आते ही सरकारी नौकरी छोड़ी..जो एक साल से छुट्टियों पर चल रही थी...सूचना विभाग परिसर में बसे कुत्ते भी हैरान कि इसको हुआ क्या ... एक अक्तूबर तिरासी को डालीबाग के दफ़्तर में ज्वायनिंग दी तो पीलिया का बुखार शरीर पे लदा हुआ..तब तक सम्पादक का कोई आता पता नहीं..लखनऊ नभाटा के ब्यूरो प्रमुख वेदव्रत विद्यालंकार प्रभारी बने हुए थे..सम्पादकी मिलने की आशा के साथ..उन्होंने अपन का हाल देख हीरो टाइप मैनेजर सुनील गुप्ता से तुरंत छुट्टी मंजूर करा कर घर भेज दिया..अब दस दिन खटिया पर..इन दिनों की खास बात सुभाष और मंगलेश जी का घर पर पधारना..सुभाष अपनी शादी का कार्ड देने आए थे..मेरा हाल देख अफसोस जताया..
दस दिन बाद जब ऑफिस गया तो पता चला कि पहले माले पर सम्पादकीय विभाग के हॉल में काम चल रहा है इसलिये सारा स्टाफ कॉफीहाउस के पास किसी इमारत में शिफ्ट कर दिया गया है...वहां स्वतंत्र भारत में देखा देखी किये नवीन और प्रमोद जोशी सब से ख़बरें एडिट करा रहे..हम भी विराजमान भये..आने जाने की कोई बंदिश तो थी नहीं..तो उन दस बारह दिनों में आसपास के सारे सिनेमाघरों घुस घुस कर रोज एक पिक्चर देखी...फिर डालीबाग वाले दफ़्तर में बैठने लगे..अमृत प्रभात से अनिल सिन्हा और शैलेश और संतोष तिवारी ...दो दिल्ली के परवेज़ अहमद और हेमंत बिश्नोई...मेरी तरह ताज़ा पत्रकार....और बिहार के वैशाली का मुकेश अलख..जिसने पहली मुलाक़ात में ही रेलवे के सैकेंड एसी पास के दर्शन कराये जो उसकी पत्रकारिता की बपौती थी..
फाइनली..दिल्ली से रामपाल सिंह को स्थानीय सम्पादक बना कर भेज दिया गया...विद्यालंकार जी की रमेश चंद्र भक्ति काम न आयी... तिकड़मबाजी में रामपाल जी सवा सेर...दिल्ली में माथुर जी के आने से पहले आनन्द जैन जैसे शातिर को मात दे कर सम्पादक की कुर्सी हथियायी थी..भले ही प्रभारी की ही..
रामपाल जी आ गये..तो पता चला कि प्रदीप भी यहां भेजे जाने वाले हैं .. बम्बई नभाटा के दो बंदे रामकृपाल और क़मर वहीद नक़वी भी आने वाले हैं...लखनऊ दैनिक जागरण के सुधांशु श्रीवास्तव पधार ही चुके थे..कुल मिला कर माथुर जी के जमाये इस मेले ने हिंदी पत्रकारिता में आग लगा दी हो जैसे..अगले सवा साल लखनऊ नभाटा तलवारों की झनझनाहट से खूब गूंजा और अख़बार भी खूब फन्नेखां निकला..इस दौरान अपनी बहुमुखी प्रतिभा के दर्शन खुद को तो हुए ही....पूरे स्टाफ को हुए..पूरी पत्रकारिता जगत को भी हुए..साथ ही अपना खड़ूसपन भी चरमसीमा पर..
चंडीगढ़ जनसत्ता .. इंडियन एक्सप्रेस..और माबदौलत
सत्तासी के अप्रैल में लखनऊ नवभारत टाइम्स से विदा ले चंडीगढ़ जनसत्ता में...
एडिटोरियल हॉल एक्सप्रेस और जनसत्ता का एक ही..दस साल से अब तक उस पर इंडियन एक्सप्रेस का ही राज चल रहा था..पर बंटवारे के वक्त कोई खूनखराबा नहीं..
हॉल में घुसते ही दाहिनी दीवार से सटा जनसत्ता का कारोबार...सामने और उसके दाहिनी तरफ एक्सप्रेस का खेला..
दोनों की जनरल डेस्क आमने सामने न होकर थोड़ी तिरछी..तो जैसे मैं संस्करण प्रभारी के रूप में अपनी कुर्सी पर बैठूं तो एक्सप्रेस प्रभारी को देखने के लिये आंखों को दाहिनी तरफ हल्की सी ज़ुम्बिश देना ज़रूरी..
एक्सप्रेस वालों में कई बड़े नाम..संजीव गौड़ और निरुपमा दत्त और जगतार और प्रदीप मैगज़ीन खास तौर पर...तहलका वाले तरुण तेजपाल ने तभी एक्सप्रेस छोड़ टेलीग्राफ ज्वायन किया था..लेकिन उसकी मोटी सी खूबसूरत बीवी गीतन वहीं हमारे बीच..इंडिया टुडे के जाने माने फोटोग्राफर प्रमोद पुष्करणा की बीवी विजया रिपोर्टर..
अब मुद्दे पर आया जाए...
प्रभारी की कुर्सी के बिल्कुल सामने की दीवार न देख कर अगर आप हल्का सा दाहिने जाएं तो बड़ी सी खिड़की और खिड़की से सटी मेज..मेज के पीछे कुर्सी और कुर्सी पर लावण्यमयी युवती विराजमान..सांवला रंग..कलफ लगी सूती धोती या साड़ी..
खबरों के तार छांटते एक दिन नज़र उठायी तो खिड़की वाली को ध्यान से देखा..अच्छी लगी..कई कई बार देखा..दो दिन बाद उधर पता चल गया कि कोई देखता है..भले ही नज़रों में मवालीपन न हो पर देखता तो है न..
तीसरे दिन माथे पर बड़ा सा लाल सूरज और मांग में सिंदूर..
लेकिन हमने देखना बंद नहीं किया..और क्यों बंद करूं....आंखों में प्रशंसा का ही तो भाव है न..
नवभारत टाइम्स की फिल्म समीक्षा और फिल्म लेखन की लोकप्रियता की भरपूर सुगंध चंडीगढ़ भी पहुंच गयी थी..सो, आदेश हुआ कि जनसत्ता में जारी रखा जाए..एक दिन सुरक्षा गार्ड के रूप में सरदार हरजिंदर सिंह को पकड़ आतंकवादियों के प्रिय ठिकाने मोहाली पहुंच गया पिक्चर देखने..वतन के रखवाले..लौट कर समीक्षा लिख छपने दे दी..
दो दिन बाद रैक पर रखे अखबारों को दो-तीन एक्सप्रेसी देख रहे..कुछ देर बाद वो मेरे पास आए..उनमें से एक बेहद
हैंडसम युवक ने पूछा ..राजीव मित्तल आप ही हैं!!! मेरे हां कहते ही तपाक से हाथ मिलाया...गुरू मज़ा आ गया..ये थे प्रदीप मैगज़ीन...उस लावण्यमयी के पति...
एडिटोरियल हॉल एक्सप्रेस और जनसत्ता का एक ही..दस साल से अब तक उस पर इंडियन एक्सप्रेस का ही राज चल रहा था..पर बंटवारे के वक्त कोई खूनखराबा नहीं..
हॉल में घुसते ही दाहिनी दीवार से सटा जनसत्ता का कारोबार...सामने और उसके दाहिनी तरफ एक्सप्रेस का खेला..
दोनों की जनरल डेस्क आमने सामने न होकर थोड़ी तिरछी..तो जैसे मैं संस्करण प्रभारी के रूप में अपनी कुर्सी पर बैठूं तो एक्सप्रेस प्रभारी को देखने के लिये आंखों को दाहिनी तरफ हल्की सी ज़ुम्बिश देना ज़रूरी..
एक्सप्रेस वालों में कई बड़े नाम..संजीव गौड़ और निरुपमा दत्त और जगतार और प्रदीप मैगज़ीन खास तौर पर...तहलका वाले तरुण तेजपाल ने तभी एक्सप्रेस छोड़ टेलीग्राफ ज्वायन किया था..लेकिन उसकी मोटी सी खूबसूरत बीवी गीतन वहीं हमारे बीच..इंडिया टुडे के जाने माने फोटोग्राफर प्रमोद पुष्करणा की बीवी विजया रिपोर्टर..
अब मुद्दे पर आया जाए...
प्रभारी की कुर्सी के बिल्कुल सामने की दीवार न देख कर अगर आप हल्का सा दाहिने जाएं तो बड़ी सी खिड़की और खिड़की से सटी मेज..मेज के पीछे कुर्सी और कुर्सी पर लावण्यमयी युवती विराजमान..सांवला रंग..कलफ लगी सूती धोती या साड़ी..
खबरों के तार छांटते एक दिन नज़र उठायी तो खिड़की वाली को ध्यान से देखा..अच्छी लगी..कई कई बार देखा..दो दिन बाद उधर पता चल गया कि कोई देखता है..भले ही नज़रों में मवालीपन न हो पर देखता तो है न..
तीसरे दिन माथे पर बड़ा सा लाल सूरज और मांग में सिंदूर..
लेकिन हमने देखना बंद नहीं किया..और क्यों बंद करूं....आंखों में प्रशंसा का ही तो भाव है न..
नवभारत टाइम्स की फिल्म समीक्षा और फिल्म लेखन की लोकप्रियता की भरपूर सुगंध चंडीगढ़ भी पहुंच गयी थी..सो, आदेश हुआ कि जनसत्ता में जारी रखा जाए..एक दिन सुरक्षा गार्ड के रूप में सरदार हरजिंदर सिंह को पकड़ आतंकवादियों के प्रिय ठिकाने मोहाली पहुंच गया पिक्चर देखने..वतन के रखवाले..लौट कर समीक्षा लिख छपने दे दी..
दो दिन बाद रैक पर रखे अखबारों को दो-तीन एक्सप्रेसी देख रहे..कुछ देर बाद वो मेरे पास आए..उनमें से एक बेहद
हैंडसम युवक ने पूछा ..राजीव मित्तल आप ही हैं!!! मेरे हां कहते ही तपाक से हाथ मिलाया...गुरू मज़ा आ गया..ये थे प्रदीप मैगज़ीन...उस लावण्यमयी के पति...
अब युवती को देखना बंद कर दिया तो उधर से अक्सर अपनी तरफ देखते पाता..अब उन निगाहों में प्रशंसा का भाव..जय हो वतन के रखवालो..एक रात वैन में साथ हुआ..आप जलवा पर क्यों नहीं लिख रहे..नवभारत टाइम्स में लिख कर आ रहा हूं..ये थीं मुक्ता मैगज़ीन..जिनके टिफिन की प्रदीप के साथ कई बार हिस्सेदारी निभायी..
कुछ दिन पहले एक्सप्रेस के उन दिनों के साथी केजे उर्फ हसीन सरदार करन सिंह का फोन आया..खूब बतियाये ..केजे और कई जनसत्ताई और एक्सप्रेसी मेरे गानों के प्रशंसक हुआ करते थे..उन महफिलों की याद भी दोहरायी गई..अब हम दोनों फेसबुक पर जुड़ गए हैं..
2/14/19