अपनी छवि से जुनून की हद तक जुड़ा इनसान
कई व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके न होने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते.. पंडित जवाहर लाल नेहरु के बाद ये मुकाम देवानन्द ने ही पाया। ...इसे हम बटवृक्ष वाली खसूसियत भी कह सकते हैं, कि हम उस पेड़ की जगह पर कोई आलीशान बिल्डिंग भी बर्दाश्त न कर पाएं..सदाबहार यही दो शख्स निकले, जिन्होंने अपना जमाना क्रिएट किया।
भले ही 86 या 87 साल के हो गए देवानन्द पिछले करीब 30 साल से दर्शक रहित फिल्में बना रहे थे...या वो गले में लिपटे अपने स्कार्फ से...ब्राउन जैकेट से...रंग-बिरंगी कैप से....तिरछी चाल से....या अपनी साठ-सत्तर के दशक वाली इमेज से पीछा छुड़ाने के मूड में कतई नहीं थे......लेकिन उनकी सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वह अपनी पुरानी सफलताओं की याद में खोए जाम छलकाते हुए आहें नहीं भर रहे थे...न ही भगवान दादा और सी रामचन्द्र की तरह बेचारे कहला रहे थे.....न ही देवानन्द अपने समय की मशहूर तिकड़ी से जुड़े राजकपूर की तरह समय से पहले चले गए और न ही दिलीप कुमार की तरह बरसों की गुमनामी में जाने को मजबूर हुए। देवानन्द कल तक हर उस जगह मौजूद थे...जहां नयी पीढ़ी का दबदबा कायम हो चुका था....उन्होंने रिटायर्ड हर्ट के रूप में क्रीज नहीं छोड़ी।
कई साल पहले लोकसभा चुनाव की रिपोर्टिंग के सिलसिले में होशियारपुर जाना हुआ...वहां से निकले तो और जगह होते हुए वापस चंड़ीगढ़....रास्ते में हम गुरदासपुर से भी गुजरे थे....देवानंद को जन्म देने वाला स्थान...तब भी उनकी फिल्में एक के बाद एक पिटती जा रही थीं...लेकिन देवानन्द बहुत याद आ रहे थे...यादों में चेतन आनन्द और विजयआनन्द भी छाए थे। अपने इन्हीं दोनों भाइयों की बदौलत देवानन्द ने समय को झकझोर देने वाला दर्जा हासिल किया था...
चेतन आनन्द ने उनके लिये जगह बनाई तो विजय आनन्द ने फिल्म -गाइड- में देवानन्द को उनकी इमेज से बाहर निकाल कर अभिनय के चरम पर पहुंचा दिया। देवानन्द को शुरुआत में ही गुरुदत्त का साथ मिल गया, जो देव के अभिनय की हर नस और उसकी रेंज से वाकिफ थे.....उनकी निर्देशित दो फिल्मों -बाजी- और -जाल- ने ही देवानन्द को उनकी पहचान दी।
देवानन्द की फिल्मों को जब तक अपने इन दोनों भाइयों का निर्देशन मिला, वह हिन्दी फिल्मों की धुरी बने रहे....याद कीजिये... जब राजकपूर की राजपथ से हो कर आयी भारी भरकम फिल्म -मेरा नाम जोकर- हताशा को पहुंच चुकी थी, न जाने किस रास्ते से आयी -जॉनी मेरा नाम- की धमक चारों तरफ सुनायी दे रही थी...यह विजय आनन्द का कमाल था। अपनी फिल्मों का निर्देशन खुद करने के फैसले ने देवानन्द को न केवल समय से पहले दर्शकों के मन से उतार दिया, बल्कि देव को पर्दे पर देखने की उत्सुक्ता ही खत्म कर दी....
उसके बाद से देव 14 रील बरबाद करने वाले से ज्यादा कुछ नहीं रह गये थे...लेकिन फ़िल्में बनाने का जुनून जारी था । देवानन्द अपनी जिद में निर्देशक बन तो गए, पर निर्देशक के रूप में वह अपनी सीमाएं तय नहीं कर पाए....न पटकथा को लेकर....न अभिनय को लेकर...न डायलॉग डिलिवरी को लेकर.... तभी तो वह -देस परदेस- के बाद डिब्बा बंद फिल्मकार बन कर रह गये।
लेकिन सच यह भी है कि 1955 से लेकर 1970 के समय का एक बड़ा हिस्सा देवानन्द के खाते में जाएगा। उसमें ढेर सारा समय था नेहरु जी का, उनके समाजवादी आदर्शवाद का, जिस पर सबसे ज्यादा फिदा थे राजकपूर। उनकी उस समय की कई फिल्में समाजवाद की चाशनी में डूबी हुई हैं। उस तिकड़ी की ही एक और धुरी दिलीप कुमार तब अपने अभिनय से हर ऐरे-गैरे को देवदास बनाने पर तुले हुए थे...तब रोमांस का बेहद दिलकश रूप पेश कर रहे थे देवानन्द.....
अपने इस अंदाज के जरिये देवानन्द का अपने चाहने वालों को यही संदेश था कि जीवन में कुछ भी जीवन में घट रहा हो.. प्रेम को मत भूलना क्योंकि प्रेम बहुत बड़ी राहत है...वह कैसी भी जीवन शैली का केन्द्र बिन्दु है। इनसान को संवेदनशील बनाने का एकमात्र जरिया...
उनकी फिल्में दर्शक को कितना सुकून देती थीं...कितनी उमंग भरती थीं...इसको समझा पाना बेहद मुश्किल है। बहुत मामूली हैसियत वाला आवारा युवक कैसे एसडी बर्मन के संगीत से, अपनी अलमस्त अदाओं से, हर हाल में बेफिक्र बने रहने के अंदाज से, लापरवाह दिखने वाली लेकिन बेहद रोमांटिक शख्सियत से...वहीदा रहमान..साधना...कल्पना कार्तिक या नूतन की शोखियों और जॉनीवाकर की हल्की-फुल्की कॉमेडी से दर्शकों को पागल बनाता था, इसको जानने के लिये उनकी उस समय की कई सारी फिल्में देखना लाजिमी है। तभी तो हाईस्कूल के इम्तिहान में आखिरी पर्चा भी खराब जाने के बाद सीधे उस पिक्चर हॉल में घुसा, जिसमें -मुनीम जी- चल रही थी.... और जीवन का सफर कुछ समय के लिये आसान हो गया.......
3/15/19