वो आँगन में पड़ी भुरभुरी मिट्टी
वो फर्श पर पड़ी धूल पे पाँव के चंद निशां
वो अखबार के कुछ बिखरे पन्ने
वो डाइनिंग टेबल पर पड़े चाय के दो खाली प्याले
वो चादर पर पड़ी पपड़ियां
वो बिस्तर पर ढुलका मासूम गीला तौलिया
वो खामोश दाल की काली पतीली
.......इसे गुलज़ार की कविता न समझें....
काम वाली बाई नहीं आयी अब तक..
काम वाली बाई नहीं आयी अब तक..
तुमने ये क्या सितम किया
ज़ब्त से काम ले लिया
ज़ब्त से काम ले लिया
ख़लिश हो दर्द हो काहिश हो कुछ हो
फ़क़त जीना भी कोई ज़िंदगी है
फ़क़त जीना भी कोई ज़िंदगी है
2/19/19