हर दिन
रात की केंचुली उतार कर
शुरू होती है सुबह
खामोश
एक सिलसिला
कसैला धुआं और रोशनी
हर नयी सुबह
पिछले दिन की छाया
कुछ नहीं बदला
सिवाय कतार लम्बी करने के
रात के विष को
झाड़-फूंक कर उतारना
खुद को हवाले कर देना
चमकती पीली रोशनी के
हथियार हीन
विषहीन
जो वसूलेगी
सब कुछ
विषहीन होने के बदले
-राजीव मित्तल
3-7-11
रात की केंचुली उतार कर
शुरू होती है सुबह
खामोश
एक सिलसिला
कसैला धुआं और रोशनी
हर नयी सुबह
पिछले दिन की छाया
कुछ नहीं बदला
सिवाय कतार लम्बी करने के
रात के विष को
झाड़-फूंक कर उतारना
खुद को हवाले कर देना
चमकती पीली रोशनी के
हथियार हीन
विषहीन
जो वसूलेगी
सब कुछ
विषहीन होने के बदले
-राजीव मित्तल
3-7-11