मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

एमएसटी यानी प्रियंका चोपड़ा नाइट का पास

राजीव मित्तल
एमएसटी धारक होना यानी परिवार की चिक-चिक और दफ्तर के तनावपूर्ण माहौल से निकल राहत पाने का दैवीय वरदान। अगर आपकी एमएसटी सौ किलोमीटर के दायरे में आती है तो फिर क्या कहने। यानी डेढ़ घंटे का लाजवाब सफर। आमतौर पर एमएसटीधारियों की बड़ी संख्या सरकारी नौकरी करने वालों की होती है, यानी जिन्हें साल में करीब 200 दिन घर में गुजारने हैं और 165 दिन दस से पांच की नौकरी के लिये एक शहर से दूसरे शहर का सफर करना है। ऐसे लोग लिंक सिटी जैसी ट्रेनों के ज्यादा मुफीद बैठते हैं, जो इन्हें समय पर ले जाती हैं और समय पर छोड़ देती हैं। उस ट्रेन के हर डिब्बे में आम यात्रियों के अलावा एक मजमा ऐसा भी होता है, जो एक-दूसरे को ओए-oeye से सम्बोधित करता है। इन सभी के पास अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार ब्रीफकेस या रैक्सीन के बैग या कपड़े के थैले होते हैं, जिनमें आफिस से संबंधित कागजात-डायरी के अलावा टिफनबॉक्स, एक जासूसी उपन्यास और पानी की बोतल होती है। इन्हीं में किसी एक के पास डग्गामार किस्म की ताश की गड्डी होती है। उस ताशधारी का रुतबा अंधों में काने वाला होता है। पूरे डिब्बे में ताश फेंटते चार-पांच गुटों का दिख जाना आम बात है। लेकिन एमएसटीधारियों की सवारी वो ट्रेनें भी होती हैं, जिनकी चहलकदमी दूर-दराज तक होती है। जिनमें जनरल कम, स्लीपर के डिब्बे ज्यादा होते हैं और जो एसी की विभिन्न बोगियों से भी सुसज्जित रहती हैं। एमएसटीधारियों की बड़ी संख्या स्लीपर को ही अपने मायके या ससुराल का माल समझती है। चूंकि उनकी यात्रा का टाइम अमूमन सुबह आठ बजे के बाद और रात को 10 बजे से पहले का होता है इसलिये एमएसटीधारकों की स्लीपर की बैठकी आरक्षित यात्रियों को खिजलाती तो है, पर कंट्रोल से बाहर नहीं होने देती। साईं इतना दीजिये जिसमें कुटुंब समाय वाले देश में इतना तो चलता ही है चाहे कभी रेल मंत्रालय के सर्वेसर्वा रहे नीतीश कुमार ने स्लीपर में एमएसटी को न धंसने देने के कितने ही कानून बना डाले हों।
यह तो हुआ एमएसटी का चारित्रिक चित्रण। सृष्टि का यह भुनगा सा प्राणी भी कभी एमएसटी के मल्टी किस्म के टेस्ट ले चुका है। मीटर गेज से लेकर ब्रॉड गेज तक की इस एमएसटी के दो छोर हुआ करते थे। एक तरफ लखनऊ तो दूसरी तरफ कानपुर। लखनऊ में चित्रकूट एक्सप्रेस घरवाली से ज्यादा अपनी लगती थी, तो रात दो बजे कानपुर स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस हरजाई माशूका सी। पता नहीं कहाँ-कहाँ मुंह मारती आती थी कमबख्त। चित्रकूट छूटती हमेशा शाम 4.20 पर ही थी। दो-चार बार ही ऐसा हुआ होगा कि वो चार-पांच किलोमीटर चल कर लौटी हो क्योंकि अक्सर गार्ड चढ़ना भूल जाता था या उसका हलब्बी ट्रंक प्लेटफार्म पर छूट जाता था। जहां तक साबरमती का सवाल है, उसका टाइम ऑफिस से फोन कर पूछना पड़ता था, क्योंकि अगर राइट टाइम हुई तो स्टेशन पहुंचने तक छूट जाएगी और रात तीन बजे अगली ट्रेन होती थी वैशाली, जो एमएसटी वालों की सूरत तक देखना पसंद नहीं करती थी। सो, साबरमती को खड़ा रखने के लिये कहना पड़ता था कि ट्रेन में बम है। लेकिन वो समय पर महीने में छह दिन भी नहीं आती थी इसलिये अपने को उसी से दिल लगाना पड़ा। चूँकि अपनी नौकरी सरकारी नहीं थी इसलिये हम खांटी एमएसटीधारक कभी नहीं कहलाये। मिलावटी इसलिये थे कि जिस तारीख को जाते थे उससे अगली तारीख को लौटते थे। इसलिये ताश खेलते, ब्रीफकेस को पीट कर गाना गाते, शेर ओ शायरी करते या अपने मोहक दिनों की गाथा सुनाते गुटों के बीच अपन मदारी के खेल में दर्शकनुमा थे। कानपुर में साबरमती का हरजाईपन प्लेटफार्म से दोस्ती करने को मजबूर कर गया। इसलिये चाहे टीटी हो या कुली या चायवाला या पान मसाले वाला या फिर एच व्हीलर्स वाला, सब -हिंदोस्तां हमारा- जैसे थे। खास कर किताब विक्रेता। न जाने कितनी रातें उसे कम्बल उढ़ा नींद में गाफिल कर उसकी किताबें और मैगजीन बेचते और बांचते गुजारीं। अखबारों के अलावा साबरमती में बैठ कर ही पता चलता था वो भी आंखों देखा कि लातूर का भूकम्प कितना कमीना था या मुम्बई में हुए बम धमाके कितने जानलेवा थे। क्योंकि यहां-वहां कमर सीधी करने की जगह देने वाले स्लीपर के डिब्बों में यात्रियों का सैलाब उमड़ा बड़ा होता था, या वे बिल्कुल खाली होते थे। सबसे बड़ी बात कि कई बार लम्बी इंतजारी के बाद ट्रेन में ऐसी कसी हुई नींद आती थी कि बचपन में क्या लोरी सुन कर आती होगी। इसके चलते कई बार जब किसी स्टेशन पर नींद खुली तो वो लखनऊ से दो-चार कदम आगे ही होता था। एक यात्रा गार्ड के डिब्बे में भी की, तभी पता चला कि वो कैसी -बला- है। साथ में यार-दोस्त हों तो क्या कहने, फिर हम भी खांटी ओए ओए हो जाते थे।

रविवार, 26 दिसंबर 2010

बबूल बोया है तो आम की चाहत क्यों

राजीव मित्तल
श्रीराम ने जब शबरी के दांतों से कटे झूठे बेर खाये होंगे, तो उनका ध्यान शबरी की जात की तरफ दूर-दूर तक नहीं रहा होगा। इस ‘माइथोलॉजिकल हादसे’ को लेकर आज के पुरोधा यही सफाई देंगे कि वे तो भगवान थे, उनको जात-पांत से क्या मतलब। लेकिन भई, हम तो दो हजार साल से यही मानते आ रहे हैं और अगले दो हजार साल तक मानते रहेंगे कि ब्राहमण ब्रह्मा के मुख, भुजाओं से क्षμिाय, वैश्य पेट से और दलित उनके पैरों की देन है। ब्रह्मा जी द्वारा विशेष से रूप से प्रदत्त अपनी इस जातिगत श्रेष्ठता को ध्यान में रखते हुए ही हमने 20 साल पहले पारू के जगदीश धर्मू गांव में परलोक सिधार गये किसी पासवान का श्राद्ध कर्म निपटाने में असमर्थता जताई थी। लेकिन अब उस गांव के दलितों का ‘मलेच्छों’ की प्रार्थना सभा में शामिल होना धर्म के विरुद्ध है।‘मैं श्रेष्ठ तू नीच’ का यह खेल पिछले दो हजार साल से इस देश में उतना ही लोकप्रिय है, जितना 22 साल पहले विश्वकप जीतने के बाद भारत भर पर सवार हुआ क्रिकेट का बल्ला और गेंद। बुद्ध और महावीर की पैदाइश के साथ ही जाति के इस खेल को धर्म का ऐसा बाना पहनाया गया कि करीब एक हजार साल पहले हिन्दू संस्कृति से ओतप्रोत कश्मीर में तिब्बत से भाग कर आये बौद्ध राजकुमार रिंचन को वहां के पंडितों ने हिन्दू धर्म में इसलिये नहीं घुसने दिया क्योंकि उनकी निगाह में बौद्ध भी ‘मलेच्छ’ से कम नहीं थे। तो अब इस बात पर स्यापा क्यों, कि एक तिहाई से ज्यादा कश्मीर आज नमाज पढ़ रहा है। यहां यह भी बताना रोचक होगा कि उसी तिब्बती बौद्ध राजकुमार रिंचन को थक हार कर इस्लाम धर्म अपनाना पड़ा। तब उसने अपनी खुन्नस खुल कर निकाली और हिन्दू पंडितों को दौड़ा-दौड़ा कर मुस्लिम बनाया। आज अगर पारू के जगदीशपुर धर्मू गांव का नीची जात वाला अपने को हिन्दू धर्म में बरसों से बेगाना महसूस कर यीशू के दरबार में, जहां किसी तरह की छुआछूत नहीं है, कोई छोटा-बड़ा नहीं है, कोई अछूत नहीं है, वहां सबके बराबर में अपने को खड़ा होने के काबिल पा रहा है तो कौन सा बुरा कर रहा है। यह किसी धर्म की आलोचना या किसी धर्म का गुणगान नहीं, और न ही धर्म परिवर्तन की वकालत करना है, बल्कि हजारों साल से इस देश को कुतर रही उस मानसिकता पर अफसोस जताना है, जिसने इनसान को इनसान नहीं, जानवर से भी बदतर बना दिया है। अपने को ईश्वर मुखी मानने की यही वो मानसिकता है, जिसने पिछड़ी जात वाले सम्राट चंदगुप्त मौर्य के वंशज राजा बृहद्रथ और सम्राट कनिष्क की हत्या करवायी क्योंकि दोनों बौद्ध थे। इसी मानसिकता के चलते 17वीं शताब्दी में शिवाजी का राज्यभिषेक इसलिये नहीं किया गया क्योंकि वह पिछड़ी जाति के थे। 18 वीं शताब्दी की शुरुआत में जब अंग्रेज इस देश को गुलाम बनाने की साजिश कर रहे थे, तो उन्हें सबसे ज्यादा खौफ अत्यन्त शक्तिशाली मराठा पेशवा बाजीराव प्रथम से था। श्रेष्ठ जाति का होने के बावजूद बाजीराव का दिल एक मुस्लिम नर्तकी पर आ गया और वह उसे अपनी रखैल नहीं, इज्जत से घर की चौखट के अंदर बसाना चाहते थे। लेकिन महाराष्ट्र के पंडिताऊ समाज को अपने शासनाध्यक्ष का यह ‘अधर्म’ कतई मंजूर नहीं था। समाज के ठेकेदारों ने बाजीराव का जीना मुहाल कर भरी जवानी में उन्हें बीमार डाल मरने को मजबूर कर दिया और इस तरह अंग्रेजों की राह का कांटा इस देश की ‘जातिगत आस्था’ के हाथों अपने आप साफ हो गया। ऐसा न जाने कितने लोगों के साथ होता रहा है और होता रहेगा। लाखों कुरबान हो गये और लाखों दूसरे धर्म में चले गये-तो अब रोना-पीटना, कोसना और बौराना कैसा, सदियों से उन्हें अपने से दूर तो आप ही धकेलते आ रहे हैं।

थर्रा देने वाले सच

राजीव मित्तल
भारत का सरकारी स्वास्थ्य इस कदर गिर गया है कि नीचे झांको तो म्यांमार और सूडान जैसे देश ही नजर आते हैं और बांग्लादेश और पाकिस्तान ऊपर से उसे अंगूठा दिखा रहे होते हैं। इसी तरह देश की बुनियाद मजबूत करने का एक और पायदान बेसिक शिक्षा का भी करीब-करीब यही हाल है। तमिलनाडु के कुंभकोेणम इलाके की एक पाठशाला में आग से 94 बच्चों का जल मरना देश के किसी भी स्तर के विकास या आगे कभी चमकने वाली विकासदरों पर एक भरपूर तमाचा है। क्योंकि यह कोई आसमान में दो विमानों के टकराने का मामला नहीं है। यह सीधे-सीधे हमारी केन्द्र और राज्य सरकारों की बच्चों के विकास के प्रति जघन्य सोच का नतीजा है। जघन्य इसलिये कि एक ऐसी इमारत में चार-चार स्कूल चलते थे, जिनके साढ़े आठ सौ बच्चे छोटे-छोटे छप्पर की छत वाले अंधेरे कमरों में ठुंसे रहने की बेबसी झेलने को अभिशप्त थे। सीढ़ियां इतनी संकरी थीं कि एक बार में एक ही चढ़ सकता था। गेट की भी वही हालत थी, जिसमें निकल न पाने की ही वजह से ही इतने ज्यादा बच्चे जल मरे। मुख्यमंμाी जयललिता को ऐसे स्कूलों के बारे में रिपोर्ट काफी दिन पहले भेज दी गयी थी, जो किसी अलमारी की शोभा बनी पड़ी होगी। यह हाल दूर-दराज बसे कुंभकोणम का ही नहीं देश भर में फैले सरकारी विद्यालयों का है। देश की राजधानी दिल्ली में बच्चे चमड़ी जला देने वाली गर्मी और खून जमा देने वाली सर्दी में टेंटों में पढ़ रहे हैं। तो बिहार और उत्तरप्रदेश में सरकारी विद्यालय की हर दूसरी इमारत ढहने को तैयार बैठी है। सिर को टूटने से बचाने के लिये मास्टर जी बच्चों को जाड़ा, बरसात या तपती धूप में पेड़ के नीचे पढ़ाते दिख जाएंगे। या वो इमारत किसी दबंग के पारिवारिक समारोह के काम आ रही होगी, तो स्कूल आए बच्चे घर लौट जाएंगे, या मास्टर जी किसी स्थानीय या राष्ट्रीय चुनाव कराने से लेकर जनसंख्या या पोलियो अभियान में लगे होंगे। अब एक निगाह फिर स्वास्थ्य पर। इस मामले में 175 देशों में 171 वां नम्बर लाने वाला हमारा भारतवर्ष स्वास्थ्य पर अपनी कुल आय का केवल 0.9 फासदी खर्च करता है, जो एक व्यक्ति पर एक पैसा भी नहीं बैठेगा। लेकिन हां, डाक्टरों और नर्सिंग होमों और अपोलो जैसे प्राइवेट अस्पतालों के चलते प्राइवेट स्वास्थ्य सेवा में यह देश 18वें नम्बर पर है, जिनमें मरीज अगर एक लाख से कम खर्च कर बाहर आ गया तो स्टाफ शर्मसार हो जाता है। यानी सरकारी और प्राइवेट स्वास्थ्य सेवाओं में 153 देशों का फासला! यही हाल निजी स्कूलों का है, जहां पांच हजार रुपये फीस दीजिये तो आपका बच्चा पांच सितारा होटल का मजा लेते हुए अपने कैरियर की सोचेगा। यानी पैसा फैंकों और मजा लूटो। ठहरिये, अब एक सच और जान लीजिये कि रेलवे अपने खाते के एक रुपये में केवल एक नया पैसा ट्रेनें दौड़ानें यानी विकास पर खर्च करता है, जिसे लेने से भिखमंगे 30 साल पहले ही मना कर चुके हैं। तो जिन पटरियों पर आपकी ट्रेन दौड़ रही है वो किस हाल में है यह सोच कर कांपने मत लगियेगा।

वो कभी न मानने वाले, क्यों मरी भूख से!

राजीव मित्तल
यह एक तरह से अपमान है, गाली है, उनकी खुद्दारी को अंगूठा दिखाना है। जो नहीं करना चाहिये था वो कर डाला तुमने उनके साथ। याद नहीं, दो महीने पहले बाढ़ के समय पेड़ के तने पर टिकी महिला ने बच्चा जना था और उन्होंने उस बच्चे के सिर पे हाथ फेरते हुए सुयोग से एकाकार हुए नभ-जल-थल को साक्षी मानते हुए कसम खायी और खिलायी थी कि भूख से कोई नहीं मरेगा, चाहे भी तो मरने नहीं दिया जाएगा। उस मनहूस दिन जब तुम भूख से मरीं फूलकुमारी, तब तक न जाने कितने टप गए होंगे। कई पानी में डूब मरे, तो कई सांप के काटे मर गए। अब बाढ़ नहीं सुखाड़ है लेकिन उनका काटना जारी है, क्योंकि उनके बिलों में पानी जो घुस गया था। क्या करते बेचारे, तुम्हारी तरह आसमान, आसमान में कहीं छुपे बैठे उस परम पिता परमात्मा या फिर सरकार की ओर टकटकी लगाए तो बैठे नहीं रहते। कुछ किये ही जा रहे हैं तब से। खैर, असल मुद्दा यह है फूलकुमारी कि तुम्हारे मरने के बाद यह अफवाह क्यों फैली कि तुम भूख से मर गयीं? उनके वादे का, उनके हाथ उठा कर लिये गए प्रण का तुम्हें जरा भी ध्यान नहीं रहा कि बाढ़ चाहे जितनों को लील जाए, पर भूख से कोई नहीं मरेगा। सवाल यह है कि तुमने ऐसा कोई सबूत भी तो नहीं छोड़ा कि तुम भूख से मरी नजर आओ। मरने से एक घंटा पहले या एक दिन पहले तुमने किस मंμाी से, किस नेता से या किस अफसर से कहा कि तुम भूखी हो? तुमने गांव में किसी के दरवाजे पर हाथ फैलाया? किसी मंदिर की चौखट पर नजर आयीं? पटना या दिल्ली कहीं भी प्रेस कांफ्रेंस कर भूखे होने की बात बतायी? किस चैनल में मरने से पहले या मरने के बाद खबर बनीं तुम? एक का भी नाम गिना दो तो सही दिशा में काम शुरू हो। गांव के चार लोगों ने बोल दिया कि तुम भूख से मरीं तो क्या इसे सच मान लिया जाएगा? पता चला कि तुम्हारे घर में एक छंटाक भी अनाज नहीं था। यह जानकारी तुम्हारे मरने के बाद ही क्यों? जीते जी बतलातीं तो शायद किसी ने जुम्बिश तो ले ली होती। तुमने वह मौका भी खो दिया। अब यह क्या ढोल पिटवा रही हो कि कई दिनों की भूखी एक गरीब बेऔलाद विधवा अपनी झोंपड़ी में मरी पायी गयी। गांव का मुखिया तक कह रहा है कि तुम्हें कई दिन से छींक आ रही थीं। बीडीओ ने भी इस बात की पुष्टि की कि तुम बीमार थीं। एसडीओ साहब का फोन आया कि खाने को इतना कुछ होते हुए भूख से मरना नामुमकिन है। विपक्ष के हाथों का खिलौनी बन रही है फूलकुमारी। अब आखिरी बात कि तुम्हारी झोंपड़ी में खूब तो चूहे, ऊपर से चींटियों की लम्बी कतार। और ये दोनों उसी जगह होते हैं जहां खाने को कुछ होता है।

तुम्हें तुम्हारे बच्चों का वास्ता

राजीव मित्तल
आज हम स्कूल गए तो वहां सन्नाटा था। सब बच्चे सहमे से, चुप से क्लास में बैठे थे। पता चला कि हमारी क्लास का बालमुकुंद अगवा कर लिया गया है। जब वह रिक्शे से स्कूल आ रहा था तो मोटरसाइकिल पर सवार आप में से ही किसी ने रिक्शा रुकवा कर उसे उठा लिया और अपने साथ ले गए। टीचर जी बता रही थीं कि बालमुकुंद को छोड़ने के लिए उसके पिताजी से तीन लाख रुपए मांगे गए हैं। आपने तीन दिन का समय दिया है रुपए भिजवाने को। उसके बाद पहले उसकी उंगलियां काटेंगे, अगले दिन आंखें निकालेंगे और फिर गला काटेंगे। हम आज सारा दिन स्कूल में खेले नहीं, न ही एक बार भी शोर मचाया। बस,क्लास में बार-बार उस चेयर को देखते रहे जिसपे कल तक बालमुकुंद बैठता था। इंटरवल में बालमुकुंद की हुड़दंग गायब थी। उसकी चीख-चिल्लाहट भी गायब थी। अगर उसके पिताजी आपको पैसा न दे पाए तो क्या आप बालमुकंुद की उंगली काट देंगे? उसकी आंखें भी निकाल लेंगे? और फिर गला भी काट देंगे?आज पुलिस स्कूल में आयी थी। चपरासी से लेकर प्रिंसीपल साहब तक सबसे पूछताछ की। पर, हमें मालूम है कि वो कुछ नहीं कर पाएगी। आप रुपये लेकर ही हमारे दोस्त को छोडें¸गे। और कोई चारा भी तो नहीं है। अब आपसे एक बात पूछें कि आपको रुपए की इतनी जरूरत है तो अपनी किडनी निकलवा के क्यों नहीं बेच देते? अब हम क्या बताएं हमारी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा। अपने दोस्त के घर जाकर भी क्या करेंगे। क्या पूछेंगे वहां जाकर कि अंकल पैसे का इंतजाम हुआ कि नहीं? हम जानते हैं कि जवाब देने के बजाए वो हाथ उठा कर ऊपर देखने लगेंगे। घर के बाकी लोग भी दम घोटे होंगे। यही होता है जब कोई सहारा न हो तो। अच्छा, अब आप हमारी एक बात मान लीजिए। बालमुकुंद का अंगूठा काटने से पहले आप अपने बेटे की अंगुली में सुईं चुभो दीजिएगा। अगर उसके मुंह से चीख नहीं निकलती है तो आप बेशक बालमुकंद की अंगुलियों पर छुरी चला दें। बालमुकुंद की आंख निकालने से पहले आप अपने बेटे या बेटी की आंख में एक चुटकी लाल मिर्च का पाउडर डाल दीजिएगा। अगर तब भी उसका चेहरा मुस्की मारता रहे तो बालमुकुंद की आंखें भी आपके हवाले। और गला काटने से पहले आप एक मुर्गे की गर्दन पर चाकू चलाइयेगा, अगर वह न फड़फड़ाए तो बालमुकुंद का गला भी आपका। लेकिन आप ये तीनों काम काजिएगा जरूर, आपको आपके बच्चों की कसम।

नेता बने होते तो ये हाल न होता

राजीव मित्तल
गली के कुत्तों से किसी तरह बच घर आकर सीधे बिस्तर पर गिरा। कल बहुत काम करना है। टीम के लोगों को कई ट्रेनें पकड़ानी हैं। बिस्कुट, लड्डू और आटे की पंजीरी वगैरह का इंतजाम करना है और उनमें मिलाने के लिये उस नशीली दवा का भी जो धनवर्षा लाटरी का काम दे रही है। बगल में खोल के रखी अटैची से सूट की महक उठ रही थी, सोने का हार चमक मार रहा था। लगता मर्द का है। एक बार तो गले में डालने की इच्छा भी हुई, फिर सोचा कि सुबह नहा-धोकर गाय के दूध में भिगो कर पत्नी के हाथ से पहना जाएगा और उसकी अंगुली में होगी मोती जड़ी अंगूठी। हे भगवान यह सीजन तुम्हारे नाम पर। यह सब सोचते-सोचते पता नहीं कब नींद आ ही गयी। दरवाजे पर भड़भड़ सुन पत्नी अचकचा कर उठी। दरवाजे की सिटकनी पर हाथ धरा तो सुनायी दिया-अबे उठता है कि नहीं या दरवाजा तोड़ दें। और दरवाजे पर जोरदार प्रहार हुआ। देवी जी ने भन्ना कर दरवाजा खोेला। देखा दरोगा जी के साथ दो-तीन सिपाही खड़े हैं। तुरंत सिपाहियों पर कड़के-जाओ, उस मरदूद को घसीट कर ले आओ। सिपाहियों ने आव देखा ताव और पिल पडे¸ कमरे में। सोते श्रीमान जी की कमर पे दो लात झाड़ीं। ओह, चोरी की अटैची बगल में रख के सोया हुआ है कम्बख्त। चल बे, ससुराल चल। बहुत परेशान करने के बाद हाथ लगा है। पत्नी तब तक सारा माजरा समझ चुकी थी। उसने परमरम्परागत तरीके से सुर निकालना चाहा तो पतिदेव कांखे-चोप्प, सारे मोहल्ले को जगाना है क्या? सिपाही उसे हथकड़ी वगैरह लगा कर मार्च की तैयारी कर चुके थे कि पत्नी चार कप चाय ले आयी। यह देख दरोगा जी ने दहाड़ मारनी चाही, फिर चुप लगा कर चाय सुड़कने लगे। चाय खत्म होते-होते पत्नी ने अपने स्वामी के सिर पर कपड़ा डाल दिया और बोली-उजारा हो चुका है, लोग देखेंगे अच्छा नहीं लगेगा, अच्छी तरह मुंह ढांप लो। दरोगा जी ने सिपाहियों की तरफ देखा और सिपाही उसे बाहर की ओर घसीट कर चल पडे¸। पत्नी की आंखों में आंसू भर आए-कल कितनी देर रात आए थे। ठीक से आराम भी नहीं कर पाए। कब से कह रही हूं कि किसी पार्टी में शामिल हो जाओ। धंधा भी चलता है और हनक भी रहती है। आज कहीं नेता होते तो इस बार विधानसभा चुनाव लड़ रहे होते। यही दरोगा जी बाहर बैठ कर तुम्हारे सो के उठने का इंतजार करते। बाहर पार्टी कार्यकर्ता नारे लगा रहे होते। अच्छा, इस बार तो जेल काट आओ, अगली बार शिव जी ने चाहा तो उन लोगों की तरह तुम भी जेल की कोठरी में नहीं किसी नर्सिंगहोम में ठाठ करोगे।

प्रशासन पे दुलत्ती झाड़ते रंगदारी के घोड़े

राजीव मित्तल
बिहार में कैसा भी प्रशासन विधवा विलाप की स्थिति में पहुंच गया है। उसकी दुकान एक छोटे से खोके में चल रही है जहां उसकी हालत इन शब्दों में ही बयां की जा सकती है कि तेरी सुबह कह रही है तेरी रात का फसाना। रंगदारों ने उसकी वह धमक भी छीन ली है, जो मसूरी के अफसर पैदा करने वाले संस्थान में ट्रेनिंग के दौरान रग-रग में उछालें भरने लगती है। राज्य का इंजीनियर कबाड़ में बैठा अपने कान उमेठ रहा है कि उसने बेवजह बाप की गाढ़ी कमाई और पांच साल क्यों बरबाद किए और सालों घोटा लगाने के बाद आईएएस बनी दो हाथ दो पांव वाली काया चौपाया बनने को मजबूर है। डीआईजी रैंक के अफसर बजाय अपराधियों को पकड़ने के रात में रिक्शेवाले की सीट पर बैठ शोहदों और उनकी इस कला पे कुर्बान सैक्स वर्करों को दौड़ा-दौड़ा कर पकड़ते हैं, मुर्गा बनवाते हैं और फिर अपनी पीठ ठोकते हैं कि चलो एक बड़े काम को इतनी खूबसूरती से अंजाम दिया। अब कुछ तो हौव्वा बैठेगा कातिलोें, लुटेरोें, रंगदारों और तस्करों के दिलों में। थाने के इंस्पेक्टर बड़े साहब के लिए कोई रिक्शा तलाशने में मशगूल रहते हैं, जिसको चलाते हुए वे 'मैं रिक्शा वाला' लगें। जब केंद्र सरकार के वो हनकदार मंμाी, जिनके दल का बिहार में 15 साल से एकछμा राज है, माननीय रघुवंश प्रसाद सिंह की सांसद कोष की कई योजनाएं रंगदारी के घोड़ों के खुरों से उड़ती मिट्टी से सन गयी हैं, जिस वजह से वह बिसूर रहे हैं। उनसे यही पूछने को मन करता है कि मान्यवर, इस शेर की सवारी तो आपका दल काफी समय से बिना नकेल डाले कर रहा है। बस, खासियत यही है कि जब तक यह दौड़ रहा है, तभी तक ही आप खैरियत से हंै, रुकेगा तो नीचे उतरने से पहले सौ बार सोचना पड़ेगा। गिनीज बुक में चस्पा हो जाएं या टाइम मैगजीन में टंक जाएं, पर नागपुर, पुणे या सूरत का उद्धार कर देने वाला जैसा कोई अफसर इस राज्य में है जो मंμिायों और बाहुबलियों की सिफारिशों या धमकियों को ताक पे रख कर अपना काम पूरे जोश और ईमानदारी से कर सके! जरा गुजरात के भुज शहर हो आइये, जो तीन साल पहले भूकंप से बिल्कुल तबाह हो गया था और आज उसकी नयी काया कैसी चमक रही है। प्रशासन को बड़ा बाबू बना देने से बिहार जैसा ही हाल होता है। पंचतंμा की कहानियों में भी यही है साहेबान। और बड़ा बाबू तो सड़क को बगल में बह रही नदी के लेवल से नीचे ही बनवाएगा और रंगदारों की हड़काहट पर तुतलाना शुरू कर देगा क्योंकि उसे मालूम है कि उसका सरपरस्त शासन शेर की सवारी कर रहा है, चिड़ियाघर या सर्कस में नहीं बिल्कुल खुले में।

सीवर में विकास का भ्रूण और आस्था

राजीव मित्तल
देश की राजधानी में इस बार छठ व्रतियों को सीवर के पानी में खड़े हो सूर्य को अघ्र्य देना पड़ा। तो क्या हुआ बिहार में तो हर पर्व कचरे के ढेर पर मनाना मजबूरी है। आस्था के साथ ऐसा घिनौना खेल किसी और धर्म में चल रहा है? एक, जी हां सिर्फ एक मझौले शहर का सात सौ सफाईकर्मी खैनी फटकारता हुआ देखता रहे और घाटों के किनारों से मलमूμा की सफाई का काम करना पड़े उग्रवादियों से भिड़ने आए अद्र्ध सैनिक बलों के जवानों को, क्योंकि उन्हें श्रद्धा-भक्ति के साथ यह मजाक रास नहीं आ रहा था। लेकिन हमारे नगर निगमों के सफाई कर्मियों और उनके जहांपनाहों के अंदर बरसों से पैठी गंदगी कुछ नहीं देख रही। उनके लिए सब मिथ्या है, बस, कचरों का ढेर ही है जीवन का सबसे बड़ा सच। चलिये, कचरे में ही सही, आस्था दिख तो रही है, लेकिन उस विकास को क्या कहा जाए, जिसका भ्रूण हर बार गर्भ में ही गिरा दिया जाता है। बिना हाथ-पांव और मुंह का वह भ्रूण उसी कचरे का हिस्सा बन जाता है, जो हर गली-मोहल्ले की शोभा की वस्तु है। बरसों से बिहार में यह खेल चल रहा है। किसी सड़क को बनाने, या उसे ठीक करने, दूर-दराज तक रेलगाड़ियां चलें, इसके लिए पटरियां बिछाने, किसी नदी पर पुल बनाने या बाढ़ रोकने के लिए तटबंधों को मजबूत करने के रास्ते में नेता-माफिया का गठजोड़ इस तरह रोेड़ा बना पड़ा है कि उसे रास्ते से हटाना तो क्या छूने से भी सरकार और हर तरह का प्रशासन घबरा रहा है। बल्कि सच्चाई तो यह है कि वह घबरा नहीं रहा, घबराने का ढोंग कर रहा है। ऊपर से लेकर नीचे तक सबको मालूम है कि बिहार के विकास के साथ खो-खो कौन लोग खेल रहे हैं, लेकिन उन पर अंकुश लगाने वालों का दामन कौन से हाथ साफ करेंगे? इस समय एनएचपीसी के दो आला अफसरों के अपहरण को लेकर जम कर शतरंजी दांव चल रहे हैं, नई-पुरानी दुश्मनियां याद आ रही हैं। इस प्रहसन के दौरान अपह्तों का जो होगा, सोे होगा, पर आज जिनके यहां छापे पड़ रहे हैं, क्या कल चुनाव के समय किसी फायदे के तहत आज की जामा-तलाशियां गलबहियों में तब्दील नहीं हो जाएंगी? कन्याओं की तरह विकास की भ्रूण हत्याओं का मजा सीवर के पानी में उपजा हर वह जीवाणु ले रहा है, जिसको खत्म करने का टीका फिलहाल ईजाद नहीं हुआ है। जिन्हें यह काम बहुत पहले कर लेना चाहिये था वे दर्शक बन खेल में शामिल अपनी टीम का उत्साह बढ़ाने में लगे हुए हैं।

एक आंदोलन की हसीन मौत

राजीव मित्तल
बिहार में काफी समय बाद रोष ताजा-ताजा कलई कराए बर्तन की तरह चमक रहा था कि एक मनचाही मुलाकात ने और आपसी मनमुटाव ने एक आंदोलन को अपना सिरा ही नहीं पकड़ने दिया। रोष था एक डॉक्टर की हत्या को लेकर। हत्या भी किसी गांव-गोट में नहीं ठीक मगध साम्राज्य की राजधानी पटना में। कत्ल हुआ डॉक्टर भी ऐसा-वैसा नहीं था। सरकारी था और जब उस पर गोलियां चलीं तो वह अपनी क्लीनिक में था। वैसे तो पिछले 10 सालों में न जाने कितने डाक्टर रंगदारों के हाथों मारे जा चुके हैं, कितने ही अपह्त हो बड़ी-बड़ी फिरौतियां दे कर छूटे हैं। ऐसे ही कई पुराने मामले और अभी-अभी छूटे समस्तीपुर के एक देहात से अगवा उस डॉक्टर का मामला भी इस रोष को भड़काने में मददगार साबित हुआ, जिसका अपहरण 15 दिन से गुमनामी में था। पर, सबसे बड़ी बात यह रही कि ऐसे रोष में भी कोई तोड़फोड़ नहीं हुई। पटरियों पर ट्रेनें परम्परागत अंदाज में दौड़ीं, गली-मोहल्लों और सड़कों पर त्यौहारों की धूम मची रही, दीपावली के बाद ईद, अखबारी भाषा में कहें तो काफी हर्षोल्लास से मनी और अब हर कोई छठ के रंग में डूबा हुआ है। पता चला है कि डाक्टर का कत्ल इसलिए हुआ क्योंकि रंगदारी की बेहतरीन किस्त न मिलने से रंगदार उससे नाराज थे। मौत कैसी भी हो मन को तकलीफ पहुंचाती है और फिर यह तो बेवक्त की मौत हुई। पर सवाल यहां दूसरा है वो यह कि क्या बिहार में किसी डॉक्टर का पहली बार कत्ल हुआ है? डॅाक्टर को पैसा बनाने की मशीन समझ सबसे आसान शिकार मानना बंद हो गया क्या? या डॉक्टर सारी मोह-माया त्याग समाजसेवी बन गए हैं? सवाल यह है साहेबान कि ऐसी न जाने कितनी खताओं के बाद अब ऐसा निर्मम बवाल क्यों, क्रूरता की हद तक आक्रोश क्यों, जिससे जान बचाने की खातिर अस्पताल में भर्ती हुए 70 मरीज चार कंधों पर बाहर आए। डॉक्टरों का भला चाहने वाले उनके संगठन और समितियों के दिमाग में अचानक बंदूक उठाने का विचार क्यों क्रोंधा? क्या कल तक उनके लिए बिहार किसी ऋषि का आश्रम जैसा था। नहीं, सच्चाई यह है कि कल तक जिनके कंधे थाम कारोबार दिन-दूनी रात चौगुनी चल रहा था, वो कंधे अब अपना हिस्सा मांग रहे हैं और न देने पर मौके पर ही हिसाब-किताब दुरुस्त किए दे रहे हैं। कई सालों से रंगदार मैदान में जमे हुए हैं। और ऐसा भी नहीं कि वे किसी और दुनिया के हैं। वे सब आप ही के बीच से उठ कर गए हैं। आप उनको पहचानते भी हैं। आपने उनके गलबहियां भी डालीं। वही ठीक है क्योंकि आप उनका न आज कुछ बिगाड़ सकते हैं न कल कुछ बिगाड़ पाएंगे। आपको एक ऐसा माहौल चाहिये जिसमें आप आराम से रुपयों के ढेर लगा सकें और वो माहौल न तो सरकार दिला सकती है, न पुलिस और न सेना। आपके मन-मुआफिक माहौल दे पाना तो भैया उन्हीं के हाथ में है, जिन्हें अब आप बंदूक दिखा कर डराना चाह रहे हैं। अब जब आप इस बात से संतुष्ट हैं कि उनके दीदार हो गए और सब ठीक हो जाएगा तो पांच मिनट के लिए कहीं बैठ कर अपने उस कृत्य पर भी विचार करें, जिसने 70 इंसानों को मुर्दे में तब्दील कर दिया। आपको अपना सनम मिला हो या न मिला हो, पर इस चक्कर में कई घरों के चूल्हे बुझ गए। अब आपको कई ऐसे चेहरे फिर कभी नहीं दिखेंगे, जो वक्त-बेवक्त आपको परेशान किया करते थे। पर उनके हाथ आपको दुआएं देने के लिए उठे रहते थे।

कटआउटों से झरते सपने

राजीव मित्तल
रैलियों के मौसम में सोनपुर का मेला एक सुखद संयोग है। एक साथ दो तरह के कटआउट देखने को मिल रहे हैं। एक कटआउट में जैसे नेता सिर पर चढ़ा आ रहा है और हाथ पकड़ कर कह रहा है मेरे साथ चल, वो चोर है। तो सोनपुर मेले के थियेटराना कटआउट कह रहे हैं कि बेवकूफी मत कर उनके पास कुछ नहीं दिखाने को, हाहाकारी शिल्पा को देखना है तो आ, इधर को निकल आ, जन्नत की सैर करनी है तो इस जमावड़े को चीर कर आ। भीड़ दोनों जगह है क्योंकि उसे भुला देना है कि इस बार बाढ़ का पानी उसकी छाती पर से होकर गुजरा है और सूखे ने उसकी कमर झुका दी है। अगले साल की अगले साल देखी जाएगी। ये दोनों तो अब एक आदत बन चुके हैं। तो, भीड़ में कुछ ऐसे भी हैं, जिन्हें न बाढ़ को भुलाने की जरूरत है न सूखे को, उनके लिए दोनों उतना ही मजा देने वाली चीज हैं, जो मजा ये विभिन्न पोजों वाले कटआउट दे रहे हैं। रैली को और लुभावना बनाते हैं नेताई कटआउट। रैली में जुटी भीड़ उन कटआउट में अपनी जाति के संत या पीर को देखती है, अपने खेत में लहलहा रही फसल को देखती है, घर में परांत भर पकी रोटी को देखती है, अपने सिर के ऊपर सीमेंट से बनी छत को देखती है, अपनी नदी का निर्मल जल देखती है और अपने गांव को जाती पक्की को सड़क देखती है। मजे की बात यह कि दोनों ही तरह कटआउट बरसों से लाखों-करोड़ों को एक सपनीली दुनिया का मजा दे रहे हैं। सोनपुर का मेला तो 15-20 दिन बाद खत्म हो जाएगा और वो सपनीली दुनिया दो सौ एकड़ का मैदान बन कर रह जाएगी, पर रैलियों का दौैर थोड़ा लम्बा खिंचेगा। हर कटआउट के मन में अगले के लिए कई सारी भड़ास हैं और सामने बैठी भीड़ को दिखाने को उसके पिटारे में कई सारे सपने हैं। भले ही बासी और बदबू मारते। रैली में जुटी भीड़ को उस बच्चे की सी आदत पड़ चुकी है, जिसे रात को दादी या नानी से परियों की कहानी सुने बगैर नींद नहीं आती। रोजमर्रा वही संुदर परी, वही भयानक राक्षस और वही सलोना राजकुमार। दोनों जगहों की भीड़ ने अपनी भूमिका तय कर ली है। मेले में हर कोई राजकुमार है, जो सामने स्टेज पर नाच गा रहीं परियों के झुंड के दिलों में पता नहीं कब का उतर चुका है। और रैली में कोई सी भी जुटने वाली भीड़ खुद को पता नहीं कबसे दादी-नानी की कहानी वाली परी माने बैठी है और सामने मंच पर वही कटआउट वाला सपनों का राजकुमार, जो उसे वह सब देने आया है, जिसकी आस वह बरसों से लगाए है। जीने लायक जीवन की और मरने लायक मौत की। लेकिन वो राक्षस कहां है, जिसके बिना परी और राजकुमार की कहानी अधूरी है। इंतजार कीजिए। यह राजकुमार बहुत सुंदर है, बहुत बहादुर है, इसके थैले में सपने आलू की तरह भरे हैं, पर गद्दी अब तक नसीब नहीं हुई। इसको पता है कि राक्षस कौन है, हत्यारा कौन है, माफिया को कौन पाल रहा है, जनता का खून बरसों से कौन चूस रहा है, जनता को इस बुरी गति में किसने पहुंचा रखा है। बस यह उस कुर्सी को चाहता है, जिसमें उस राक्षस की जान है, इसके गद्दी पर बैठते ही वह राक्षस भस्म हो जाएगा औेर जनता की सारी तकलीफें दूर हो जाएंगी। अब महारैली-जिसमें कई सारे कटआउट एक स्वर से बचाओ-बचाओ जैसा स्वर निकाल रहे हैं और बखान कर रहे हैं कि कैसे देश की जनता ने पूतना राक्षसी जैसी इमरजेंसी को लातों से रौंदा था, यह सामने वाला तो एक हुंकार में चित हो जाएगा, बस जनता एक बार फिर अंगड़ाई ले ले। एक महारैला भी प्रस्तावित है, जिसमें राजकुमार नहीं खुद राजा पधारेंगे, जिनकी कैद में राक्षस बरसों से पड़ा हुआ है। इसलिए उस तरफ से तो परी को चिंता करने की कोई जरूरत नहीं, पर इन राक्षसों का संहार कैसे हो, जो उन्हें ही राक्षसों का सरदार बता रहे हैं। इसी का तोड़ महारैला में तलाशा जाएगा।

मिस्र के पिरामिड और बिहार की सड़कें

राजीव मित्तल
बिहार के लोगों को हाल के अपहरणकांड ने खुशी का एक ऐसा मौका दिया है, जो बार-बार नहीं आता। और उसी क्षण जब दैवीय कृपा भी प्रकट हुई हो तो क्या कहने। हुआ यूं है कि स्विटजरलैंड का एक खुराफाती दुनिया के सात अजूबों की करीब सवा दो हजार साल पुरानी लिस्ट नकार कर अपनी नयी लिस्ट बनाने की तैयारी में जुटा है। और इसके लिए वो दुनिया भर की राय मांग रहा है। अब तक उसे एक करोड़ सत्तर लाख लोगों के जवाब मिले हैं। इन जवाबों से पता चलता है कि दुनिया के सात अजूबों की नयी लिस्ट में अपना ताजमहल तो किसी तरह ठुंस गया है, पर मिसþ का पिरामिड गायब है। उसे तो लोगों ने सात तो क्या 31 अजूबों की सूची के काबिल भी नहीं समझा। यही है वो ईश्वरीय चमत्कार, जिसका फायदा बिहार उठा सकता है। अगर थोड़ी कोशिश की जाए तो बिहार की सड़कें अजूबों की इस लिस्ट में शामिल हो सकती हैं और वह गौरवशाली समय एक बार फिर लौट सकता है, जो गुप्त वंश के खात्मे के बाद से लापता है। उस गौरवशाली समय की पुनप्र्राप्ति के लिए शर्त एक ही है कि बिहार की सड़कें जस की तस रहने दी जाएं। वह दुनिया का अजूबा बनने के कगार पर हैं लेकिन अलकतरा उनके लिए जहर है और सुरंगनुमा गड्ढे भरने का काम महापाप। उन सबको साधुवाद, जो ऐसे किसी भी काम में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर अड़ंगा लगाने में कमर कस कर जुटे हैं। यही सड़कें बिहार के इतिहास, वर्तमान और भविष्य की शान हैं। शेरशाह सूरी ने साढ़े चार सौ साल पहले पता नहीं किस गफलत में पेशावर से ढाका तक एक सड़क बनवा दी थी, वह और जगह किस हाल में है, यह तो पता नहीं, पर खुशी इस बात की है कि बिहार में वह बिल्कुल अपने मौलिक अंदाज में है। हमें इस राज्य के कर्णधारों से उसी अंदाज की अपेक्षा है। वे यह काम ठेकेदारों, माफियाओं और रंगदारों पर क्यों छोड़ना चाहते हैं? क्यों दुनिया भर की एजेंसियों को सड़क बनाने का न्योता दे रहे हैं? उन्हें गौरवशाली अतीत की वापसी चाहिये या चमचमाती सड़कें! वैसे भी सड़कें तो बनने से रहीं, तो खामखां सिर क्यों खपाया जाए। अब देखिये न, कितनी परेशानी उठानी पड़ी उन रंगदार टुन्ना, मुन्ना, चुन्ना को, आप सबको और जीएम व इंजीनियर साहब को। नतीजा क्या निकला-खाया पिया कुछ नहीं चार गिलास ऊपर से तोड़ दिये। मुक्त हुए इंजीनियर मंडल जी से तो अब टुन्ना-मुन्ना-चुन्ना के यहां खाये-पिये का भी हिसाब मांगा जा रहा है बिल्कुल उसी कलही सास की तरह, जो रोज सुबह-शाम बहु को सुनाती है कि कमबख्त तिनका नहीं तोड़ती और खावे मन भर है। न जाने कितने जेल में डाल दिये गए, कितनों की रातें बरबाद हुईं कितनों की सुबहें। भूसे के इस ढेर में गेहूं का दाना निकली बिहार की पुलिस, जो पंद्रह दिन और पंद्रह रातें बगैर खाये-पिये नेपाल, गोरखपुर, पटना, नरकटियागंज, और पता नहीं कौन-कौन से गांव, जंगल, नदी-नाले एक किये रही। कभी घोड़े पर, तो कभी रिक्शे पर, कभी टुटही जीप पर, कभी मालगाड़ी तो कभी सवारी गाड़ी, तो कभी बैलगाड़ी पर-सब की सवारी गांठी। अब ऊपर से माफिया वालों का यह इल्जाम कि मंडल जी तो हमारा भंडार खाली कर गए और तुम हमारे लोगों को तिलचट्टा पड़ी सब्जी खिला रहे हो। हमने उन्हें मच्छरदानी में सुलाया, तुम मच्छरों के हवाले कर दिये हो। वो हमारे यहां खाट पर रहे, तुम हमारे वालों को जमीन पर सुला रहे हो। यह सब आगे न हो इसलिए पिरामिडों के ढहते ही सब जुट जाएं क्योंकि बिहार की सड़कें भारत की ही नहीं पूरे विश्व की धरोहर हैं, उन पर कोई बुरा साया न पड़े।

क्या फर्क है आसमा खातून और राजेन्द्र बाबू में

राजीव मित्तल
आसमा खातून चार दिन पहले परसौनी इलाके की एक संुदर महिला थी और राजेन्द्र बाबू 43 साल पहले देश के राष्ट्रपति थे। थोड़ी-बहुत और जोे कमीबेशी रही होगी, उन्हें हमारे शानदार नस्ल के इस समाज ने मिटाने में कोई देर नहीं लगायी। आसमा खातून के चेहरे पे तेजाब फेंक उसके बाकी जीवन का एक-एक क्षण कराहते रहने पर मजबूर कर दिया और देश की आजादी के एक ठोस स्तम्भ, गांधी जी के बेहद करीबी और आजाद भारत के पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद की धरोहरें दीमक चाट गयीं। दीमकों को ऐसा करने की छूट बाकायदा उनकी आरती उतार कर प्रदान की गयी थी। उन पर यह गम्भीर दायित्व इसलिये डाला गया क्योंकि हमें बंदरों पर भरोसा नहीं था। दीमकों ने वह सब कुछ चाट डाला, जो एक सभ्य और संवेदनशील समाज की पहचान कराते हैं। और इस मामले में हमारा समाज हजारों सालों से न तो सभ्य है और न संवेदनशील। जरा नजरें दौड़ाएं तो यह सच्चाई सामने आ जाएगी, कि दो हजार साल पुराने खंडहरों पर शौचालय बना हुआ है, नहीं भी बना हुआ है तो जैसे ही मसाने कसमसाए, वह स्थान गीला हो जाता है। हमारा दिव्य समाज किसी भी और कैसे भी पत्थर कोे पूजने और कहीं भी और किसी भी मुहूर्त में पेट साफ करने के लिये दुनिया भर में मशहूर है। बहरहाल, राजेन्द्र बाबू की जन्मस्थली, कर्मस्थली या समाधि स्थल वर्तमान या भावी पीढ़ी के किसी काम के नहीं थे, उन्हें मिला भारत रत्न का प्रमाणपμा एक कागज के टुकड़े से ज्यादा कुछ नहीं था, उनकी गांधी जी के साथ ंिखची तस्वीर कौन सी प्रेरणा प्रदान कर रही थी, सो दीमकों ने न हमें शर्मसार होने दिया, न हमारी सरकारों को। हमारे नेता इन सब बातों में वैसे भी कोई विश्वास नहीं रखते इसलिये वे दीमकों का अहसान मानने से रहे। गांधी जी थोड़े देवता टाइप बना दिये गए थे, इसलिये राजघाट अभी बचा हुआ है। (वैसे सच मानिये कि नेता-बिल्डर का पविμा गठजोड़ राजघाट को चांद-तारा मार्केट कॉम्प्लेक्स बनाने को तैयार बैठा है।) किसी विदेशी को वहां ला कर उसके जूते उतरवाने से मन को थोड़ा सुख तो मिलता ही है। जयशंकर प्रसाद शैक्सपीयर के देश में तो जन्मे नहीं थे, मरणोपरांत उनको अपनी इस गल्ती की सजा मिल गयी। प्रेमचंद भी कई जन्मों तक अपने किये की सजा भुगतते रहेंगे- भौतिक रूप में भी और अपने लेखक होने का भी। एक नाशुक्रा समाज कैसा होता है इसके लिये हम एक से दस तक किसी भी स्थान के हकदार हैं। बल्कि दसों हमारी जेब में हैं। राम और कृष्ण बहुत किस्मत वाले थे कि समय रहते रूहानी बन गए तो आज गली-गली में राह चलते पूजे जा रहे हैं, अगर मामला थोड़ा सा भी ऐतिहासिकता से जुड़ा होता तो कहां के राम और कैसे कृष्ण! खैर, राजेन्द्र बाबू अमर रहें ये वाक्य हम साल में एक-दो बार जरूर उच्चारित करते हैं, इससे ज्यादा का भाव भी नहीं है उनके शेयरों का, लेकिन उस आसमा खातून का क्या होगा, जिसके शरीर को ही खंडहर बना कर छोड़ दिया गया। गंगा से लेकर वैष्णोंदेवी को चौबीसों घंट पूजने वाला यह देश औरत के प्रति कितना क्रूर है इसके लिये गली-गली में यहां-वहां उगे मंदिरों की तरह ही मोहल्ले-मोहल्ले में आंखें गंवाए, चेहरा जलाए, इज्जत गंवाए आसमा खातूनों की भरमार है। पहले लाठी-डंडों से काम चल जाता था, लेकिन इन चीजों से पाश्विकता का रंग नहीं चढ़ पाता, सो वो कमी एक लीटर तेजाब ने दूर कर दी। इस तरल पदार्थ से पचास-साठ साल तो निकल ही जाएंगे, बाद की बाद में देखी जाएगी।

फुटबॉल के मैदान में राम मिलाऊ जमावड़ा

राजीव मित्तल
वहां एक फुटबॅाल प्रतियोगिता शुरू होने जा रही थी लेकिन एक नामुराद दिन ने उस खेल के मैदान को गड्ढों में बदल के रख दिया। वैसे तो खेल के मैदानों का खोदा जाना हमारे देश में कोई नयी बात नहीं है। जब शिक्षा ही पैर पोंछने का टाट बनी हुई हो तो खेल तो वैसे ही घर से बुहार कर निकाली गयी धूल-धक्कड़ है। जिस मैदान पर दो टीमों के बीच फुटबॅाल उछलती, लहराती, खिलाड़ियों का जोश उमड़ता, दर्शकों का शोर उभरता, उसे एक आदेश से खूंटे पे टांग दिया गया कि आज नहीं। आज वहां बांस-बल्ली गाड़े जाएंगे, पंडाल लगेगा और इन सब कामों के लिये मैदान की खोदन क्रिया बेहद जरूरी है इसलिये जब खेलना हो तो दो-चार रुपया देकर मजदूर बुलवाना और गड्ढे भरवा लेना। तब तक खेलने के उत्साह को हमारी जिंदाबाद के नारे में तब्दील कर दो। बहरहाल, प्रतियोगिता स्थगित हो गयी उस एकदिनी आयोजन की खातिर। प्रशासन और मैच के आयोजकों ने हाथ जोड़ कर मैदान का उद्धार करने के लिये मुंडी ऊपर से नीचे कर दी क्योंकि मामला था ही इतना महत्वपूर्ण। एक केंद्रीय मंμाी के राजनैतिक दल को भविष्य में कुलांचे भरने, राज्य को, देश को नयी दिशा देने, उसे और इसे विकास के रास्ते पर फटफटिया की तरह दौड़ाने और अगले विधानसभा चुनावों में धोखेबाजों को सबक सिखाने के लिये बहुत कुछ करना है भई! इस काम के लिये एक बड़ा सा खेल का मैदान, उसमें लगा पंडाल, उसमें जमा हुई भीड़, उसे ढंग से देखने और खुद को और ज्यादा ढंग से दिखाने के लिये पांच फुट ऊंचा मंच जरूरी है कि नहीं! प्रतियोगिता में शामिल 10 टीमों के खिलाड़ी मायूस हैं तो हों, नून शो का टिकट नहीं मिला तो इवनिंग शो ही सही। मैदान कोई भागा थोड़े ही न जा रहा है। वो तो राम ने भली करी कि प्रतियोगिता शुरू होनी थी, हुई तो नहीं न, वरना मैच को रोक बांस-बल्ली गाड़ दिये जाते। है न विकास का अनमोल तरीका!

अब बजने लगी हुबली की ढपली

राजीव मित्तल
पिछले दिनों बेंगलौर में एक नाटक चला, फिर नौटंकी हुई और अब भड़ैंती हो रही है। नाटक खेलने का आह्वान किया था वहां की धर्मवीर सरकार ने, जिसके टिकट ही नहीं बिके। हुबली पे तिरंगा की सूμाधार सुश्री उमा भारती कुछ दिन किसी कर्नाटकी जेल में भर्ती रहीं, वहां से निकल अब राष्ट्रीय नेतृ की पदवी से नवाजी जाने वाली हैं। वो जब जेल जाने के लिये ट्रेन से रवाना हुई थीं, तभी लग गया था कि मनमोहन देसाई की तर्ज पर भारतीय जनता पार्टी को किसी मेले में खोया अपना नेता मिल गया है। खैर, भविष्य की राष्ट्र नेताणी जेल में हो और बाहर वही दिन वही रात, वही डाल वही कौवा-यह तो देश भक्तों का अपमान है, सो पार्टी के कई छोटे-बड़े नेताओं ने सप्ताह के सातों वार तय कर लिये कि सोमवार को मैं तो मंगलवार को तुम और बुधवार को वो-इस तरह रोजाना हम गिरफ्तारी देंगे ताकि तिरंगा फहराना हमारा पुश्तैनी धंधा करार दिया जाए और कैद (पता नहीं कैसी और कौन सी) में ‘मेरी जेलयाμाा’ लिख रहीं मोहतरमा को गाजेबाजे के साथ दिल्ली ले जाया जाए। सो, रोज ट्रक भर-भर कर गिरफ्तारियां हुईं। लबालब तो नहीं लेकिन कामचलाऊ रहा ये खेल। इस खेल में कई बड़े नाम शामिल हुए। आजादी की लड़ाई में जेल जाना शान माना जाता था, तब नहीं गए तो अब उस शान को हासिल करने का मौका क्यों छोड़ा जाए। फिर गांधी-सावरकर विषय पर मची तूतू-मैंमैं में अचानक याद आया कि सत्याग्रह जैसा कुछ होना चाहिये, जो होता भी, तभी मोहतरमा के लिये गेट खुला और मच गया विक्ट्री रैली का शोर। सत्याग्रह अगली बार के लिये हो गया किनारे। लेकिन कोई कुछ भी सोचे, उमा भारती बहुत खुश नहीं हैं इन सब बातों से, राष्ट्रीय नेतागिरी में कदम धरवाने के चर्चों से। यह तो बारह साल पहले ही हासिल हो जाना चाहिये था। बाबरी मस्जिद पर हथौड़ा पड़ते ही ऋतम्भरा को गोद में लेकर कौन नाचा था, जोशी को गले किसने लगाया था, माइक पर जय-जयकार किसने बुलवायी थी, किसने यह ऐलान किया था आज की इस जीत की खुशी में आप सब प्रसाद खा कर जाएं। उस निठल्ले लिब्राहम ने अगर जेल भिजवा दिया होता, तो कैसा अगली बारी अटल बिहारी, उसकी जगह होता देश का रोआं-रोआं चिंघाड़े उमा-उमा। आडवाड़ी जी ने सीना तो ताना, पर पीछे हट गए। नहीं तो ठोक कर कहना चाहिये था-हां मैंने गिरवाई वो बाबरी मस्जिद। उल्टे मुझे भी यह कर रोक लिया- न उमा न, तुमने जेल के अत्याचारों से तंग आकर अगर जुबान खोल दी तो इस बु¸ढ़ापे में खासी फजीहत हो जाएगी मेरी। वैसे ही एक घोटाला पीछे लगा है। यह वैंकेया कम नहीं, इत्ता बड़ा मुंह खोलने की क्या जरूरत थी कि यह जनता की जीत है राष्ट्रीय ताकतों की जीत है जबकि किया धरा सब मैने, हुबली की जंग जीती मैंने। ऊपर से यह और कि मध्यप्रदेश की चीफ मिनिस्ट्री फिलहाल उसी गौर के पास, बाद में विचार किया जाएगा। चुप तो रहा ही नहीं जाता कमबख्त से। इत्ते साल कीर्तन करवाया, अब राष्ट्रीय नेता बन कर क्या मिल जाएगा, प्रधानमंμाी की कुर्सी पे बैठने को तो वैसे ही कई बुड्ढ़ों की लार बह रही है। महाजन और जेटली पीछे से उचक रहे हैं और रहा पार्टी अध्यक्ष का पद, तो उसकी इज्जत तो पहले ही नीलाम हुई पड़ी है।

एक ही रजत पे झूम उठे 103 करोड़ सिर!

राजीव मित्तल
आत्मसंतोष का इतना भयावह नजारा कहीं और देखने को मिलेगा! यह कुछ ऐसा ही है जैसे किन्नरों की बस्ती में कोई मुर्गी पहुंच गयी हो और वहां ढोल बजने लगें। मेजर राठौड़ के रजत पदक को दोनों हाथों से सलाम कि देश को हॅाकी के अलावा पहली बार चांदी का कोई पदक मिला, पर क्या यह राष्ट्रीय शर्म नहीं है और अगर नहीं है तो अब तक हम लजाना क्यों नहीं सीख पाए? एथेंस ओलम्पिक में पदक पाए 37 देशों में नीचे से सिर्फ तीन देशों के ऊपर, और इस खेल मेले के खत्म होते-होते शायद और नीच खिसक आएं। हमारे ऊपर जिम्बाबवे भी है और थाईलैंड भी, तो उ. कोरिया भी। थोड़ा इंतजार कीजिए, इस खेल महाकुम्भ के खत्म होते ही राठौड़ के रजत पदक को सब अपना कारनामा बताएंगे। बाकी तो मैदान सफाचट है ही, उसके लिये बैठेंगी कमेटियां, एक-दूसरे पर उठेंगी उंगलियां, खिलाड़ी कोसेगा प्रशिक्षक को, प्रशिक्षक कोसेगा खिलाड़ी को, दोनों कोसेंगे खेल समिति को और खेल समिति कोसेगी उस दिन को, जिस दिन हजारों साल पहले यह बकवासबाजी शुरू हुई। पर सबके चेहरे पर यह संतोष भाव भी होगा, कि चलो एथेंस भी घूम आए, जेब से एक पैसा भी खर्चे बगैर। सरकार को रोज ही चूना लग रहा है, राजनेता भी लगा रहे हैं, अफसरान भी लगा रहे हैं तो हम ही क्यों पीछे रहें। जन-गण मन की धुन एक बार तो बजवा दी, यही क्या कम है। जय हो कलमाड़ी जी की, जो बिना कुछ किये धरे सालों से मुर्गा तोड़ रहे हैं, जय हो गिल साहब की, जिन्होंने जर्मनी के एक उठाईगीर को हॅाकी टीम का प्रशिक्षक उस समय बनवाया, जब मैदान में खिलाड़ी मार्चपास्ट के लिये उतरने को ही थे। सारा देश पृथ्वीराज चौहान जैसा बिहेव बड़ी अदा से एक हजार साल से करता आ रहा है कि गौरी को सोलह बार पीट दिया, सतरहवीं बार आने से रहा चलो संयोगिता को अंक में भर के आराम फरमाया जाए। यह ओलम्पिक खत्म हुआ, पसीना पोंछो (जो कहीं नहीं बहा) अगले ओलम्पिक में अभी चार साल हैं, कलमाड़ी अपनी वार्डरोब को भरने के लिये धंधा पानी चलाएंगे, गिल मूछें उमेठते रहेंगे और बाकी भी इन दोनों में से कुछ तो करेंगे, एक हफ्ते हाथ-पांव चलाएंगे और पेइचिंग से भी खाली हाथ लौट आएंगे। एक कांस्य भी मिल गया तो 107 करोड़ के मुंह से निकलेगा बल्ले-बल्ले।

काकोरी से नवगछिया तक का सफर

राजीव मित्तल
सन 1925 में काकोरी में रेलगाड़ी रोककर अंग्रेजी हुकूमत का धन लूट लिया गया था। राशि 10-15 हजार के बीच रही होगी। राम प्रसाद बिस्मिल को छोड़ लूट में शामिल सभी क्रांतिकारी 18-20 साल के थे। काकोरी कांड में बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशन सिंह को फांसी पर लटका दिया गया था। इस घटना के 70 साल बाद एक बाप ने अपने 12 साल के बेटे और उसके दोस्तों के बीच किसी मनमुटाव को सुलझाना चाहा और इस चक्कर में उनमें से एक लड़के को चांटा मार दिया। नतीजे में रात को करीब 40 लड़कों ने घर पर हमला बोल दिया और तोड़फोड़ मचाई। बाप को पीछे की दीवार फलांद कर थाने भागना पड़ा, पुलिस आयी तब उसकी जान बची। और अब कुछ परीक्षार्थियों ने एसी कोच से निकाले जाने के गुस्से में नवगछिया स्टेशन के पास पटरी पर 25 फुटा पोल डाल दिया कि जो भी ट्रेन वहां से गुजरे वह उलट जाए ताकि उसके मरते याμिायों को पता चले कि ऐसा एक महान उद्देश्य से किया गया है। खैर, गुजरना था राजधानी एक्सप्रेस को, पर वह उलटी नहीं क्योंकि एक सिपाही ने अपनी जान पे खेल कर वह पोल किसी तरह से खिसका दिया। तोे यह है एक आंदोलनकारी सफर जो अपने मुकाम पर पहुंच गया है। यह तो इतिहास बताएगा कि देश को आजाद कराने में बिस्मिल और उनके युवा साथियों का कितना योगदान था, लेकिन 24 जुलाई 2004 का आंदोलनकारी कारनामा बिस्मिल और उनके तीन साथियों की शहादत को, उनके सपनों को चीथड़े-चीथड़े करना है। आजाद भारत की राजनीति का असर एड्स से भी ज्यादा भयानक होगा, इसका आभास महात्मा गांधी को था तो, पर वह अंतिम दिनों में अपने को उस चौराहे पर पा रहे थे, जहां से कोई रास्ता कहीं को नहीं जाता था।एक देश के विकास में उसका नौजवान तबका सबसे महत्वपूर्ण तत्व होता है और इसी तबके को इस देश की राजनीति विध्वंस के रास्ते पर ले जा रही है। किसी भी सार्वजनिक स्थान पर, जहां चार-पांच युवकों का झुंड मौजूद हो, आप अपने घर की किसी युवती के साथ बेखौफ बैठ सकते हैं? दीपा मेहता की फिल्म फायर हो या ना बनी गंगाजल या हाल में प्रदर्शित गर्लफ्रेंड, उसके लिये हंगामा मचाने में सबसे आगे यही युवा वर्ग रहा, जिसको यही नहीं पता कि वह ऐसा क्यों कर रहा है। इस वर्ग के खालीपन, बेरोजगारी, समाज और परिवार की जिम्मेदारियों के प्रति उदासीनता का हर राजनैतिक दल बरसों से शानदार इस्तेमाल कर रहा है। और जो पैसों वालों के जिगर के टुकड़े हैं वे नशे में धुत हो बीएमडब्लयू में बैठ फुटपाथ पर रात गुजार रहे लोगों को टमाटर की तरह मसल रहे हैं या राह चलती लड़की को कार में घसीट अपने आंदोलनकारी दिलो-दिमाग को सकून पहुंचा रहे हैं। चीन में कुछ साल पहले तियेनमेन चौक पर एक आदर्श के लिये जमा छाμाों को वहां की सरकार ने गोलियों से भून डाला था, जिसकी सारी दुनिया में निंदा हुई। लेकिन उसी के बाद चीनी सरकार ने अपने युवा वर्ग को देश के विकास के उस इन्फ्रास्ट्रक्चर का हिस्सा बना लिया, जो अमेरिका तक को हैरान किये हुए है। चिदम्बरम साहब देश की विकास गति छह फीसदी रखें या दस फीसदी, राजधानी ट्रेन के रास्ते पर पोल डालने से वह युवा आंदोलनकारियों को नहीं रोक सकते, क्योंकि इस विकास में उनकी कोई हिस्सदारी नहीं है। न लाभ में न हानि में।

खादी रैम्प पर, खादी आश्रम में तम्बोला



राजीव मित्तल


यह वाकया साल पुराना है



अय्यर जी, आप भी किस चक्कर में पड़ गए कि गांधी को मरवाने में फलाने-फलाने भी थे। कुछ नहीं, अपनी फजीहत करा रहे हो। मन को भायी नहीं अखबार में छपी वो फोटो, जिसमें बाल ठाकरे के हाथ में जूता है और सामने मणि शंकर पुतला।
खैर, मुद्दा यह है कि गोडसे की गोली खा कर मरे गांधीको तो 30 जनवरी 1948 के बाद से रोज ही मारा जा रहा है, तिल-तिल कर मारा जा रहा है, तो किस-किस को कटघरे में खड़ा करेंगे आप। उनके हाथों में चाकू-पिस्तौल न हों, पर असर ज्यादा घातक है, ज्यादा गहरा है। आप को तो बस इस बात की पड़ी है कि बुढाऊ पर गोली चलाने वाले, चलवाने वाले ये थे, वो थे, पर उसका क्या करेंगे, जिसमें उन्हें मिटाने का खेल चल रहा है। आप नेताओं के सिर पर से गांधी टोपी उतर चीथड़ा हो गयी, उनके चरखे की खादी आपके बदन को छीलती थी, सो वो भी आपने उतार फेंकी, जो अब किसी फैशन शो में रैम्प पर उतरे रति-कामदेवों के जोड़ों के अंगवस्त्रों में इस्तेमाल हो रही है, तो फिर गांधी को वक्त-बेवक्त याद क्यों करते हैं? पुण्य तिथि और जन्म तिथि को राजघाट पर हुजूम लगा कर ‘रघुपति राघव राजा राम’ का पाठ करना काफी नहीं है क्या?
पर, एक काम बहुत अच्छा हो रहा है कि उन्हें राजघाट तक सीमित कर बाकी देश भर से उनको बुहारा जा रहा है। जो कुछ गांधीमय था, वह स्वर्गीय होता जा रहा है। अब देखिये न, जिस चम्पारण से मोहन दास करमचंद गांधी महात्मा गांधी बने वहां अब उनकी ऐसी कौन सी चीज बची है, जहां जा कर सिर श्रद्धा से झुक सके या दो मिनट खामोश बैठ कर बापू को महसूस किया जा सके। गांधी वहां पग-पग में घूमे थे, उस समय न जाने कितने भले- मानुषों से उन्हें भूमि दान में मिली थी ताकि वे अपने सपनों को अमलीजामा पहना सकें।
गुलाम देश की जनता ने गांधी को ही नहीं, उनके सपनों को भी सिर-माथे लिया था। उनके लिये लाठियां खायीं, कोड़े खाए, पर आजाद भारत ने उनकी एक-एक याद को रोंदने में कोई कसर नहीं छोड़ी। देश की आजादी से 12-15 साल पहले गांधी जी खादी का प्रचार करते-करते वैशाली के गौरोल इलाके में पहुंचे तो वहां की जनता गुलामी की कातरता भूल इतना उत्साहित हुई कि अपना सब कुछ इस महात्मा पर न्योछावर करने पर उतर आयी। पर वे साल 1935-40 के थे, जिनके आदर्शों पर सन् 60 आते-आते मकड़ी का जाला लग चुका था।
लेकिन मकड़ी भी गांधी जी की धरोहरों को कब तक संभालती, सो अब जाले छंट चुके हैं, गांधी जी को दान में दी गयी भूमि बिक चुकी है, शायद रजिस्टरी तक हो चुकी है, अब वहां पर क्या होगा, ये तो खरीदने और बेचने वाले जानें, पर वहां गांधी जी किसी रूप में नहीं होंगे।

क्योंकि वहां पुल था

राजीव मित्तल
आंध्र के दो हजार मछुआरे सुनामी तूफान से अपनी जान इसलिये बचा सके क्योंकि उनके गांव में ताजा-ताजा बना पुल था, लेकिन बिहार में राजधानी से केवल 50 किलोमीटर दूर पालीगंज और वहां से 15 किलोमीटर दूर मौरी गांव तक पहुंचने के लिये नदी में कपड़े उतार कर घुसना पड़ेगा क्योंकि उस पर पुल नहीं है। कभी था भी नहीं। जी हां, यह वही मौरी गांव है जो केवल उग्रवादियों के लिये मुफीद है, क्योंकि उन्हें कत्ल करने और उसके बाद के आयोजन के लिये डामर की सड़क की जरूरत नहीं होती। रास्ता जितना ऊबड़-खाबड़ हो, गांव वालों के लिये बच के भागने और कत्लेआम के बाद पुलिस के वहां पहुंचने में जो मुश्किलें आती हैं, वह खून बहाने के बाद उसका लुत्फ उठाने के लिये काफी है। बिहार में सुनामी या उस जैसा ही कुछ आये या न आये, जिस रास्ते निकल जाइये, वहां की सड़क और उस पर बने पुल-पुलिया बाहें फैलाये उछलते हुए मिलेंगे। ऐसी किसी μाासदी को कतई निराश नहीं होना पड़ेगा, क्योंकि भूकम्प आये बिना ही उन रास्तों पर हर वाहन गिरता-पड़ता नजर आता है। एक पुलिया पार कर ली तो हाथ ऊपर की तरफ उठते हैं कि लौटती बार भी इसी तरह पार करा दीजो भगवन। मौरी गांव के लोग मछुआरे तो हैं नहीं कि समुद्र ने तांडव दिखाया तो कहीं और भाग कर बस जाएंगे। भागेंगे कहां उन्हें हर हाल में यहीं रहना है अब अपनी मौत मरें या किसी की गोली से लाश बनें। लाशें उसी सड़क से होकर मुर्दाघाट जानी हैं जो कहीं नहीं है, नदी बांस-बल्ली पकड़ कर ही पार करनी है। साल के बारहों महीने औरतों के रोने और सिसकियां भरने का इतना शानदार इंतजाम और कहां मिलेगा।कितनी मजेदार बात है कि बिहार का एक बड़ा हिस्सा भूकम्प के जबरदस्त लपेटे में है और जिसके साथ उसका बहुत अपनापा नहीं है, वह नक्सली मार की जद में है। लेकिन भेदभाव कोई नहीं-हर तरफ भूकम्प और नक्सलियों को ललचाने वाली वही सड़कें और वही पुल-पुलिया। सीतामढ़ी हो या मधुबनी, पूर्णिया हो या आरा सारे रास्ते धसके हुए हंै, वहां भूकम्प और कितना बिगाड़ लेगा, जो सामने है उसी से जी बहलायेगा। और नक्सली, उनके लिये फिलहाल वो सात जिले बहुत हैं जहां बगैर भूकम्प के ही सब उजड़ा हुआ है। खून बहाने को उम्दा इलाका। बाकी बिहार तो चेंज के लिये है। आंकड़े बताते हैं कि बिहार में हर पचासवां साल भूकम्प के लिये आरक्षित है। सुनामी और भूकम्प की सारी प्रचंडता समुद्र ने झेल ली। विनाश का कारण बनीं उसकी लहरें, जो सामने पड़ा उसको लील गयीं, पर बिहार के जो इलाके बेहद संवेदनशील हैं वहां किसी के बचने का है कोई रास्ता? है कोई जगह जहां भागा जाए और भागा भी जाए तो कैसे-इसका जवाब है 2005 के मार्च में बनने वाली सरकार के पास, पर मुश्किल तो यह है कि पहले उसके सामने यह मुद्दा तो हो। जब डोर होगी पतंग तो तभी उड़ेगी न!

...पर खोज जारी है

राजीव मित्तल
सड़क, बिजली और पानी- इन तीनों की तलाश में कई दोपाये चारों दिशाओं की ओर भेजे जा चुके हैं और भेजे जा रहे हैं। जो कभी गये थे वे खाली हाथ लौट आये और अब डीए, टीए वसूल आराम फरमा रहे हैं। जो भेजे जा चुके हैं उन्हें डीए-टीए देकर भेजा गया है इस चेतावनी के साथ कि लौट जरूर आना भले ही हाथ खाली हों अन्यथा लक्षमण की नाराजगी सुग्रीव को झेलनी पड़ जाएगी। कई साल से इनकी खोज चल रही है। कन्दराएं, चट्टानें, रेगिस्तान, नदियां, जंगल सब जगह छान लीं पर इनका कहीं पता नहीं चला है। लेकिन तलाश जारी है। वैसे कई जगह से यह सुझाव आया है कि इस बार का चुनावी मुद्दा अगर इन तीनों को बना दिया जाए तो इन्हें खोज निकालने में मुश्किलें कम आएंगी। पर सुना है कि किसी ऋषि का श्राप है कि जो बरसों से चले आ रहे भूरा बाल, अजगर, माय वगैरह शब्दों का उच्चारण त्याग इन्हें चुनाव में उछालेगा उसका भट्टा बैठ जाएगा। पर इस घोर कलयुग में भी एक गिलहरी समुद्र पर पत्थरों का पुल बनाने में राम के वानरों की मदद कर रही है। एक आवाज उठी है कि बिजली, पानी और सड़क होगा चुनावी मुद्दा। यह आवाज एक बड़े दल की एक छोटी सी नेतृ की है। यह दल है तो पुराने आर्यावर्त तक फैला हुआ, पर कर्म की गति के चलते अब कोई भी आवाज कांखते हुए उठाने की मजबूरी बन गयी है। खोने को कुछ नहीं इसलिये कुछ पाने की आकांक्षा से मीलों दूर, तभी सड़क, पानी और बिजली जैसे शापित मुद्दे फूल के समान झर रहे हैं। यह तो था समस्या का आध्यात्मिक पक्ष। लौकिक समस्या जरा गहरी है वह यह कि सड़क कौन बनवायेगा। बिहार में सड़क बनवाने के लिये गिट्टी-रोड़ी-अलकतरे की जरूरत बहुत बाद की बात है, पहले तो यह कि असलहे कौन-कौन से हैं, कारतूस का भंडार भरा है कि नहीं, उन असलहों को टांगने वाले कंधे कितने हैं-इनका हिसाब किताब पहले बाकी अगले सावन में। उसके बाद आता है निविदा का मामला-इसमें असलहे और मूछों की लम्बाई-चौड़ाई आधारभूत जरूरत बन कर सामने आती है। फिर तय होता है कि खून कितना गिरेगा। वैसे सड़क न भी हो तो रास्ते की लम्बाई-चौड़ाई तो अपनी जगह कायम है ही। उसी को देखते हुए वाहन लुढ़काइये, पैदली या दोपहिया चालक अपनी राह खुद तलाश लेगा। नीचे गिरेगा या ऊपर जाएगा। जैसे भी सड़क पर खून की कमी कभी नहीं होगी। इधर, ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार यही तय पाया गया कि बिजली कभी-कभार मायके वालों की तरह आये तभी ठीक है। इससे उनकी इज्जत बनी रहती है। रहा पानी, तो उसके लिये इतना पोखर और नदी-नाला हैं कि अगले दस बरस तक कोई टोटा नहीं। नल के टपकने पर बाल्टी लगाना निरी बेवकूफाना हरकत है। गंगा आये कहां से गंगा जाये कहां रे से क्या मतलब, जो सामने है चाहे रुका हुआ चाहे बहता वही सच है। उसी में सारे धार्मिक-नैतिक और शारीरिक कर्म करने की पूरी छूट है। लीजिये हो गया न बैठे-बिठाये तीनों समस्याओं का समाधान! लेकिन फिर भी आध्यात्मिक खोज जारी रहनी चाहिये क्योंकि उसी से कई परिवारों के पेट पल रहे हैं।

ऐसी शहादतें जरूरी हैं?

राजीव मित्तल
सरकार उनकी बहादुरी की दाद दे रही है, परिवार के लोग बिलख रहे हैं, साथियों की आंखें नम हैं, वरिष्ठ उन्हें याद कर रहे हैं, कनिष्ठ सहमे हुए हैं और बिहार की जनता की तरह हम स्तब्ध हंै -इन सब के होने में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं। कुछ दिन बाद सब कुछ सामान्य हो जाएगा, किसी के साथ बहुत जल्द, तो किसी का घाव पता नहीं कब तक रिसता रहेगा। अब चुनाव नजदीक हैं, इसलिये समय का तकाजा है कि नेतागिरी का चक्का पूरे जोर से घूमे क्योंकि जैसे किसी एसपी का शहीद होना रोज-रोज नहीं होता वैसे ही चुनाव भी रोज-रोज नहीं होते। और जो ऐसी मौत मरता है तो उसके शव पर मुंह से निकालने के लिये करुण शब्दों का भंडार तो है ही, बजाने को शोक संगीत भी है और है वादों की फेहरिस्त भी। ये तीनों कंडेस्ड कॉफी की तरह कहीं भी कैसी भी हालत में तैयार किये जा सकते हैं। यही चुनावतंμा का अद्भुत गुण है। मरते-मरते भी एसपी केसी सुरेन्द्र बाबू एक रिकार्ड बना गये कि वह झारखंड से अलग हुए बिहार के पहले आईपीएस थे, जो नक्सली हिंसा का शिकार हुए। अब यहां यह पूछने की हिमाकत करनी पड़ रही है कि सर, अखंड बिहार के आखिरी शहीद एसपी अजयकुमार सिंह.....? जी हां, वही अजयकुमार सिंह, जिनकी शहादत का भी इतना ही, इन्हीं शब्दों में बखान किया गया था, मुआवजे की बड़ी-बड़ी रकमें जुबां से उछाली गयी थीं, लेकिन बखान इतना ज्यादा गीला हो गया कि सुखाने के लिये मिट्टी डालनी पड़ी और जुंबा से उछली रकमें ऊपर उड़ रही चील ने झपट लीं। तभी तो अजयकुमार की बहन की शादी चंदे से हुई, और बाकी काम उनके नाम से बनाये गये ट्रस्ट से चल रहा है। यह सब भी उनके साथियों, चाहने वालों की कृपा से। लेकिन एसपी केसी सुरेद्र बाबू के परिवार को परेशान होने की जरूरत नहीं क्योंकि अजयकुमार की शहादत बंटवारे के चलते हवा में उड़ गयी थी। जिस लोहरदग्गा में उन्होंने जान गंवायी थी, कुछ दिन बाद वह झारखंड के पल्ले पड़ा तो कैसे वादे और कैसी मदद। वह जिसने लोहरदग्गा अपने पास रख लिया वही जाने। लेकिन स्वर्गीय सुरेन्द्र बाबू, आपकी आत्मा कतई परेशान न हो, आपके यहां कोई बेसहारा नहीं रहेगा क्योंकि अब बिहार अखंड है। जो कहा वह होकर रहेगा। मौत से क्या डरना उसे तो आना है-आपका यह वाक्य मान लीजिये कि जय जवान जय किसान की माफिक अमर हो गया। पर, एक सवाल फिर भी मन में उठ रहा है कि आप बेवजह क्यों शहीद हो गये? क्या झारखंड बनने के बाद सारे नक्सलियों ने चाईबासा, लोहरदग्गा, गिरीडीह को मुजफ्फराबाद, पेशावर, कराची या लाहौर मान बिहार से मुंह मोड़ लिया था? उनके उन्मूलन के लिये जो करोड़ों रुपये आये वह क्या अमानत समझ लौटा दिये गये थे। उन अभियानों का क्या हुआ, जो दसियों साल से फलाने-ढिमाके ऑपरेशन का नाम देकर शुरू किये गये थे? झारखंड के अलग होते ही क्या बिहार ने यह समझ लिया था कि चलो बला टली, अब रंगदारों के साथ शतरंज बिछेगी? बिहार का कौन से हिस्सा माओवादियों, उग्रवादियों या नक्सलियों से अछूता है, जिनकी किसी भी खूनी हरकत पर आंखें चढ़ा कर पूछा जाता है-ऐं, तुम यहां भी? जाओ यहां से, या शांत बैठो, तंग न करो, हमारे पास दम मारने की भी फुर्सत नहीं है।

हर मोरपंखी की गोपिका बनना!

राजीव मित्तल
श्रीकृष्ण अपनी घुमंतु प्रवृति के चलते कई बार मुसीबत में फंस जाते थे। संदीपन आश्रम में अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी कर उद्धव के साथ निकल लिये कच्छ की ओर और किसी कुचक्र में फंस पाताल पहुंच गए। वहां का हाल देख चकराए क्योंकि पाताल का राजा श्रृंगालव्य अपने को असली कृष्ण बताता था और उन्हीं की नकल करता था-मसलन मोरपंख लगाना, हाथ में मुरली, चक्र भी धारण कर रखा था। श्रंृगालव्य के स्वंय के कृष्ण कहलाने के उन्माद को उसकी बहन शैव्या बढ़-चढ़ कर सहारा दे रही थी। श्रंृगाल का पागलपन उसकी जनता को हैरान किये हुए था। इस नाम पर उसके अत्याचार भी बढ़ते जा रहे थे। कृष्ण ने जब वहां का यह हाल देखा तो पहले तो श्रंृगालव्य और गोपिका बनी उसकी बहन को काफी समझाया, पर नासमझ, ऊपर से अहंकारी श्रंृगाल ने कृष्ण को कैद में डाल दिया। फिर कृष्ण ने कैसे उसको मारा और पाताल की जनता को उसके अत्याचार से मुक्त कराया और शैव्या के भ्रम कैसे दूर किये इन सब के विस्तार में जाये बगैर यहां यह बताना जरूरी है कि इस कथा को सुनाया ही क्यों जा रहा है। वह इसलिये साहेबान की बिहार की जनता और श्रंृगालव्य की बहन शैव्या की तासीर में कोई फर्क नहीं। अब देखिये न, बिहार के ग्यारह विधानसभा क्षेμाों की जनता अपने तारणहारों की राह तक रही है, और वे तारणहार स्वर्गलोक से नहीं आने, उन्हें जेल के दरवाजे खुलने का इंतजार है। हाल के विधानसभा चुनावों में जो विधायक चुने गये, उनमें नौ जेल में बंद हैं और दो फरार हैं। और इन सभी सज्जनों ने जेल में रहते या फरारी के दौरान ही चुनाव लड़ा और मूछों पर ताव देते हुए चुनाव जीता। शैव्या का सा आचरण कर रही इन विधानसभा क्षेμाों की जनता को कौन समझाए कि भैय्ये, आपने जिन्हें जितवाया तो वे क्या किसी जनांदोलन में जेल गए थे, आपकी कौन सी समस्या उठायी थी उन्होंने या कौन सी दूर की? कैसा भी कोई सुख दिया उन्होंने? वे जेल तो चोरी-चमारी या लूटपाट या हत्या या अपहरण के आरोपों में ही गये थे, तो उन्हें वोट किस खुशी में दिये-सिर्फ इसलिये कि जेल में बंद नेता जी उस क्षेμा की उस जाति के थे, जिसका वहां ज्यादा असर है। अब देखिये बारसोई के नवनिर्वाचित विधायक महबूब आलम 15 साल से भागे फिर रहे हैं, लेकिन नो प्रॉब्लम-तीन बार से लगातार जीत रहे हैं। उस क्षेμा की जनता ने उन्हें क्यों वोट दिया, वह एक फर्जी कृष्ण की गोपिका क्यों बनी हुई है-है कोई पूछने वाला। चाहे जेल में बंद हो या फरार हो-सब पर दर्जनों मुकदमे चल रहे हैं तो किस आशा में इन्हें जिताया जाता है यह समाजशास्μिायों और मनोविज्ञानियों के शोध का बढ़िया विषय नहीं है? या फिर ये कारा विधायक जेल से बाहर रहते हारे प्रत्याशियों से ज्यादा सज्जन हैं? तब तो कुछ नहीं कहना है क्योंकि जेल की दावारें फूस की हो चली हैं।

रूपा के दो हजार पांच सौ पचपन दिन और रात


देवघर के प्लेटफार्म पर भटक रही रूपा को जब रेलवे पुलिस ने पकड़ा था तब उसकी उमर आठ साल थी, जब रिहा हुई वो पंद्रह की हो चुकी थी, आज पांच साल छः महीने बाद उसकी फिर याद आयी तो आप सबसे शेयर करने का मन हुआ.............आज रूपा साढ़े बीस साल की होगी .................

राजीव मित्तल

दो हजार पांच की बरसात में प्रभात खबर में चार लाइन की खबरपहले पेज के लायक तो कतई नहीं। और ऐसी खबर कि किसी टीवी चैनल ने झांका भी नहीं होगा कि असम की रूपा, छोटी सी लड़की, सात साल तक जेल में इसलिए सड़ती रही क्योंकि उसके पास प्लेटफार्म टिकट नहीं था।

उस देश में, जहां बिना अपराध के ही लाखों व्यक्ति जेल की कोठरियों में सालों से सड़ रहे हों, वहां रूपा का अपराध तो किसी की भी नजर में खटकने वाला होता ही, सो मजिस्ट्रेट ने नियमावली देख नौ दिन की सजा सुना दी। लेकिन जाने किसकी गफलत के चलते उसे नारी निकेतन नाम की सडांध में काटनी पड़ गयीं 2555 रातें और झेलने पड़े 2555 दिन। ( इनमें लीप इयर यानि फरवरी का उनतीसवां दिन शामिल नहीं...हिसाब लगाया तो दो दिन और )

सात साल बाद हाईकोर्ट के एक जज ने पता नहीं किस तुफैल में जब उस नारी निकेतन का दौरा किया तब जाकर रूपा को छुटकारा मिला, नहीं तो पता नहीं और जाने कितने दिन और इस देश के कैदखाने में काट कर रूपा मर-खप जाती।

चूंकि यह वाक्या ऐसा था ही नहीं कि इसे ...शहाबुद्दीन को कब होगी जेल ... नामक अरसे से चल रहेधारावाहिकके आसपास भी टांका जा सकता, इसलिए उसके सात साल या 2555 दिन-रात का हिसाब कौन देगा-यह सवाल उठाना बिल्कुल बेमानी है। लेकिन हां, रूपा की सात साला कैद की चुनिया सी खबर ने लगभग रोजाना लीड बन रहे शहाबुद्दीन प्रकरण को एक घटिया प्रहसन में जरूर बदल दिया। साथ ही किसी भी दिमाग वाले को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या हम एक आजाद देश के आजाद नागरिक हैं! लेकिन हैं, इत्तेफाक से हम हैं. लेकिन जहां ऐसे प्रहसन होने ही होने हैं क्योंकि शहाबुद्दीन रूपा नहीं बन सकते।

आठ साल की बच्ची को सजा सुनाने में मजिस्ट्रेट को कितना समय लगा होगा? यही कोई ढाई मिनट। और, सजा तामील होने में? स्टेशन से नारी निकेतन का जितना फासला जैसे भी कटा हो उतना। यानी रूपा को सजा सुनाने से लेकर नारी निकेतन तक पहुंचाने में पूरा एक दिन मान लीजिये। और शहाबुद्दीन को गिरफ्तार करो का आदेश दिए कितने दिन या कितने माह गुजर गए! और अब तक यही तय नहीं हो पाया कि इन सांसद महोदय को गिरफ्तार कौन करे, और कैसे किया जाए। हालांकि प्रदेश के सबसे आला अफसर पिछले दो दिन से फरमा रहे हैं-बस एक सप्ताह और।

इधर अदालत सीवान के डीएम को पुचकार कर समझा रही है कि भइये, ढंग के कागजात तो लाओ गिरफ्तारी के। और गिरफ्तारी के बाद क्या होगा-यही कि पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण यानी चारों कोनों से बयानों की बौछार शुरू हो जाएगी कि हाय-हाय, यह क्या कर डाला! एक जनसेवक के साथ यह अभद्र कार्रवाई! क्या अपराध किया है इस मासूम ने! और, अगर इत्तेफाक से जेल भेज दिये गए तो! प्रत्यक्ष तौर पर आतंक का जिले वाला दायरा सिकुड़ कर क्रिकेट के मैदान जितना रह जाएगा। परोक्ष में तो शहाबुद्दीन का आतंक शाश्वत है ही, हर उस जगह, जहां भारतीय मानव मौजूद है।

जेल में भी मौज-मस्ती या रुतबे में कोई कमी आनी नहीं। पप्पू यादव को तिहाड़ में वालीबॉल खेलते नहीं देख रहे आप लोग! अमरमणि त्रिपाठी की मुस्कान जेल में और लवली हो गयी थी कि नहीं! इन लोगों को जेल की कोठरी में नहीं रखा जाता। जिस तरह हर दुर्गापूजा पर बड़े-बड़े मंडप सजा कर मूर्तियां रखी जाती हैं और अगले कुछ दिन पूजा का शोर रहता है, बस, उसी तरह अंदर धंसते ही उन्हें जेल के शानदार मंडप में रख दिया जाता है और वे राष्ट्र की धरोहर कहलाने लगते हैं। उन्हें कुछ हो गया तो भैंस की तरह राष्ट्र भी गया पानी में!

राष्ट्र की धरोहर नहीं थी रूपा, इसलिए उसके 2555 दिन-रात का, उसके बच्ची से नवयुवती हो जाने का हिसाब-किताब कोई मूढ़ ही करेगा........ और वैसा मूढ़ भी इस आजाद देश में अब दुर्लभ है।